Thursday, March 28, 2024
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कब तक ठगाते रहेंगे जम्मू कश्मीर के लोग

जम्मू कश्मीर का आम निबासी तो अंग्रेज के भारत से जाने और शक्सी राज खत्म होने के करीब ७ दशक बाद भी कई प्रकार की यातनाएं और राजनीतिक प्रताड़ना झेल रहा है . जम्मू कश्मीर के शीर्ष नेता कहते हैं इस राज्य के पास कोई विशेष दर्जा है और बे इस को इस राज्य के आम जन के हित में दिखाते हुए उसी आमजन को हर रोज एक नई उलझन में डाल देते हैं. कुछ तो यहाँ तक कहते हैं कि इस राज्य का भारत के संबिधान में एक खास दर्जा है और इस राज्य को भारत के संबिधान ने कुछ ख़ास रियायतें दी हैं. जम्मू कश्मीर के नेताओं ने जम्मू कश्मीर राज्य के सबिधानिक अधिकारों का प्रयोग आम जन के हित में कम और जम्मूकश्मीर राज्य को भारत से दूर दिखाने के लिए ज्यादा किया है. ऐसा भारत के विधान के अनुषेद ३७० और ‘अनुच्छेद 35A के संधर्व में कुछ ज्यादा ही किया गया है. कहते हैं जम्मू कश्मीर राज्य भारत में अपना एक अनूठा स्थान रखता है.

अगरचे इसी ११ मार्च २०१५ को भारत सरकार ने राज्य सभा में तारांकित प्रश्न संख्या 138 के लिखित उतर में साफ़ कहा है कि भारत के संविधान में, “जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा” का कहीं उल्लेख नहीं है और अनुच्छेद 370 में “जम्मू और कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंधों” के लिए प्रावधान हैं. पर फिर भी यदि जम्मू कश्मीर के कश्मीर घाटी केन्द्रित और केन्द्र के समीप रहे विचारकों और नेताओं के सम्बिधानिक विशेष दर्जे की बात को मान भी लिया जाए तो ‘यह’ रियायतें और अधिकार आम जन एवम रियासत के भले के लिए ही दीं गई होंगी. पर क्या इस राज्य के नेताओं और सरकारों ने कथित ‘विशेष’ दर्जे का इस्तमाल आम जन की भलाई और इस रियासत की प्रतिभा के हित में किया है इस विषय पर आज कम से कम आम जन हित में तो विचार करने की अति अवश्यकता है.

भारत के संबिधान के अनुच्छेद ३७० का अकसर जम्मू कश्मीर के नेता , ख़ास कर के कश्मीर घाटी के, अपने को विशेष बताने के लिए करते हैं. पर अनुच्छेद ३७० का प्रयोग पिछले ६५ साल में आम जन के हित में कम और जम्मू कश्मीर राज्य को भारत से दूसरे राज्यों के मुकाबले राष्ट्रियता की दृष्टि और स्तर पर दूर दिखाने के लिए ज्यादा किया गया है. जब के अनुच्छेद ३७० भारत के विधान का एक अनुच्छेद है जिस में भारत के जम्मू कश्मीर राज्य से संबंधित होने बाली सम्बेधानिक कार्यविधि का उलेख है जैसे अनुच्छेद २४६,२४८ एवम २४९ में पंजाब जैसे राज्य के लिए रखा गया था . साल १९५० में उस समय की जरूरत के अनुसार ऐसे ही संबिधान में अनुच्छेद ३७१ भी किसी अन्य राज्य के लिए रखा गया था जो बाद में तो विशेष श्रेणी में भी लाएया गया पर अनुच्छेद ३७० विशेष श्रेणी में भी नहीं रखा गया था.

इस लिए अगर अस्थाई होने के बाबजूद भी अनुच्छेद ३७० आज २०१५ में भी पहले अस्तित्व में ही है और जम्मू कश्मीर राज्य संबंधित ‘स्टेट लिस्ट’ में पंजाब या उत्तरप्रदेश या एम पी या राज्यस्थान के मुकाबले में कुछ ज्यादा संख्या में राज्य के अधिकार बाले विषय हैं तो फिर जम्मूकश्मीर की सरकारों को भारत के अन्य राज्यों की सरकारों और भारत सरकार के मुकाबले अब तक कई जनहित के अच्छे प्राबधान और कानून बना देने चाहिए थे , पर क्या ऐसा हुआ है ? अगर जम्मू कश्मीर के नेता ऐसा करते तो आज जो लोग अनुच्छेद ३७० को अस्थाई होने पर भी बने रहने की बजह से राज्य के विकास और जम्मू कश्मीर के आम नागरिक के भारत राष्ट्र की मुख्यधारा में आने के बीच एक रुकाबट बता कर इस को बदलने या हटाने की बात कर रहे हैं उन को सुनने बाला कोई नहीं होता. पर जम्मू कश्मीर के नेताओं ने अनुच्छेद -३७० के विषय को सिर्फ भारत से दूरियां दिखाने के लिए इस्तमाल किया है .

भारत से ‘दूरियां’ दिखाने का लाभ जम्मू कश्मीर के आम जन को कुछ मिला हो इस पर विवाद हो सकता है पर जम्मू कश्मीर के आम जन का राजनीतिक दृष्टि से मानसिक संतुलन जरूर अशांत हुआ है . इस के साथ ही क्यों कि जम्मू कश्मीर की मुख्यधारा के कहे जाने बाले नेता भी इस अनुच्छेद को १९४७ में जम्मू कश्मीर के भारत के साथ हुए अधिमिलन के साथ जोड़ कर दिखाते रहे हैं इस लिए भारत विरोधी प्रिथिक्ताब्दी घटकों को जरूर इस से कुछ लाभ होता रहा है.
जम्मू कश्मीर में आज कोई पंजाबी या बिहारी राज्य सरकार की नौकरी नहीं ले सकता है , बे सरकारी प्रोफेशनल कालेज में दाखिला नहीं ले सकता है या यहाँ की विधान सभा के लिए चुनाब में मत नहीं कर सकता है. पर यह भी एक मिथ्या है कि ऐसा अनुच्छेद ३७० के अंतरगत है और इस मिथ्या को बने रहने दिया गया है जिस से अनुच्छेद ३७० को ‘बदनामी’ ही मिली है . जब के जिन पहलुओं का यहाँ जिक्र किया गया है बे ‘अनुच्छेद 35A’ के संबिधानिक संग्रक्षण में इस राज्य में भारत के नागरिकों के मूल एवम मानवी अधिकारों के हनन करने बाले होने के बाबजूद भी आज तक बने हुए हैं.

ऐसे भी कहा जाता है कि जम्मू कश्मीर राज्य का भारत के संबिधान से अलग अपना एक ‘संबिधान’ है. जब के जम्मू कश्मीर के विधान का मूलस्त्रोत भारत के संबिधान में है और यह विधान किसी भी प्रकार से भारत के संबिधान का प्रतिद्व्न्धी नहीं कहा जा सकता. इस विषय को इस समय जरा बाद – विवाद से परे रख कर बात करते हैं. जम्मू कश्मीर विधान की धारा- 20 में कहा गया है कि यहाँ तक हो सकेगा इस राज्य के हर स्थाई निबासी को विश्वविद्यालय स्तर तक कि निशुल्क शिक्षा का अधिकार दिया जाएगा. पर आज १९५७ में मान्यता दी गई जम्मू कश्मीर विधान की धारा २० की स्थिति यह है कि राजकीय विश्वविद्यालय में तो पेमेंट सीट्स तक का चलन हो ही गया है सरकारी स्कूलों का स्तर भी इतना गिर गया है कि एक भिखारी भी अपने बच्चे को बड़ी मजबूरी में ही सरकारी स्कूल भेजता है. अगर जम्मू कश्मीर के विधान में किए गए प्रभ्धानो और जम्मू कश्मीर राज्य संबंधित विषयोँ की सूची का यहाँ की सरकारों और ‘कश्मीर घाटी केन्द्रित’ नीतिगत सोच रखने बाले नेताओं ने दयानतदारी से इस्तमाल किया होता तो जो लोग आज यह कहते हैं की अनुच्छेद ३७० की बजह से इस राज्य में भारत की संसद द्बारा पारित शिक्षा के अधिकार के प्राभधान आम जन तक नहीं पहुँच रहे के अनुच्छेद ३७० विरोधी अभियान को रोकना आसांन होता.

इसी तरह से पंचायती राज सम्वंदित संसद द्वारा किए गए संबिधान के ७३ और ७४बे संशोदन की बात कही जा सकती है जिस पर अनुच्छेद ३७० के पक्षधरों और विरोधिओं में आज विवाद बना हुआ है. जम्मू कश्मीर विधान की धारा -१६ में कहा गया है कि राज्य ग्रामीण पंचायतों को ऐसी शक्तियां और अधिकार देगा जिस से बे एक सेल्फ-गवर्नमेंट जेसी इकाई की तरह काम कर सकें इस लिए क्यों नहीं दूसरी रियासतों से भी अच्छे पंचायती कानून एवम प्राभ्धान जम्मू कश्मीर राज्य की सरकारों और विद्यिका ने आज तक अपने स्तर पर बनाए हैं, यह पूछा जाना चाहिए ?

इन तथ्यों को देखते हुए यह कहना भी गलत नहीं होगा कि जम्मू कश्मीर विधान के होने को भी ज्यादा तर जम्मू कश्मीर राज्य को भारत से दूर दिखाने के लिए किया गया है. इसी प्रकार के कई ओर पहलुओं की और अगर ध्यान दिया जाए तो जम्मू कश्मीर के आम जन को उस के अपने ही लोगों की ओछी राजनिति से बचाएया जा सकता है.

अभी भी समय है अगर जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्यधारा के नेता , खास कर के कश्मीर घाटी के, इस राज्य में शांति चाहते हैं और आम जन का हित कहते हैं तो इन बातों की ओर ध्यान दे सकते हैं.किसी भी विधान में समय और आवश्यकता के अनुसार संशोधन एवम सुधार करने के भी प्राभ्धान होते हैं पर जब सत्ता पर काबिज जन आवश्यकता होने पर भी उसका प्रयोग न करें तो उन की नियत पर प्रश्न उठने स्बभाभिक हैं.

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं

[email protected] 09419796096

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