Friday, April 19, 2024
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कैसा था हमारा प्राचीन हिन्दू अर्थतंत्र (इकोनॉमी) ?

भारत किस तरह सोने की चिड़िया बना कि दुनिया हमें लूटने को आतुर हुई। हमारे “लुट-पिट” जाने का विष्लेषण हम अनेक बार कर चुके आज भी करते है। इसके अनेक उदाहरण भी दिए जाते रहे हैं। क्या कभी इस तरफ भी सोचा है कि ऐसा क्या था हमारी अर्थव्यवस्था में कि हम आर्थिक महाशक्ति बने थे?

दुनिया के विश्व व्यापार अथार्त एक्सपोर्ट पर हमारा 25% +अधिकार था। भारत में एक समय उन्नत इस्पात (स्टील) की 10,000 भट्टियां थी, जो विश्व स्तर के इस्पात निर्माण करती थी। दिल्ली स्थित लोह स्तम्भ इसका जीता जागता प्रमाण है।

क्या ये सब सरकारी नियंत्रण में थी? कोई पूंजीपति का व्यक्तिगत उद्योग था? हम गहराई में जाकर ही हिन्दू अर्थतंत्र को समझ सकेंगे। जब हिन्दू अर्थतंत्र कहता हूं तो इसका अर्थ पंक्चर अर्थतंत्र या हलाल इकोनॉमी की तरह नहीं लिया जाए, जो किसी मजहब विशेष का पोषण करने के लिए दीवारों में बंद है। इसका अर्थ यह है कि भारत का सर्वे भवन्तु सुखिनः का उद्घोष करने वाला अर्थतंत्र। उस प्राचीन अर्थतंत्र के अध्ययन और शोध से जो निकल कर आएगा वही होगा भारत का मूल स्वरूप का आदर्श अर्थतंत्। किसी दूसरे के मॉडल को लेकर हम कभी सफल नही हो सकेंगे। क्योकि वह हमारी मूल प्रकृति से भिन्न होगा। मनुष्य अपनी मूल प्रकृति के अनुरूप रहने और व्यवहार करने पर ही सहज विकास कर पाता है।

भारत का अर्थतंत्र न्यूनतम सड़क-परिवहन (मिनिमम ट्रांसपोर्टेशन) वाला अर्थतंत्र रहा है, यह भी हमें ध्यान में रखना होगा। इसी को आज के संदर्भ में “वोकल फ़ॉर लोकल” कहा गया है। इसी को स्वदेशी भाव का जागरण कहा जाता है। जो वस्तु या उत्पाद जहां पैदा होता है, जहां निर्मित होता है उसे बाजार भी वहीं स्थानीय मिले। उसके उपभोग का प्रथम अधिकार भी स्थानीय नागरिकों को मिले। कश्मीर सेव का उत्पादन करता है । लेकिन इसका व्यापार दिल्ली से होता है। इस लिए एक आम कश्मीरी को उत्तम नस्ल के सेव उसी दर पर खरीदना पड़ता है जिस दर पर आप और हम खरीदते है। यह व्यवस्था विनाशकारी ही सिद्ध हुई है, आगे भी होगी।

जहां जिसकी मांग है उनका उत्पादन और निर्मिति भी वहीं प्रारम्भ की जाए। स्थानीय स्तर की अल्प मांग को पूरा करने के लिए किसी बड़े उद्योग की जरूरत नहीं होगी। उच्च गुणवत्ता युक्त छोटे उद्योग, उत्पादन इकाइयों से अर्थ का वितरण भी न्यायपूर्ण होगा। एक व्यक्ति या समूह के पास धन का अथाह संग्रह नहीं होगा। पूंजीपतियों और श्रमजीवियों के बीच की खाई भी न्यून रह जाएगी। इस तरह सम्पूर्ण समाज अर्थात जन-जन के साथ यह राष्ट्र सम्पन्नता के सोपान चढ़ता जाएगा।

1) सबसे पहले स्थानीय उत्पाद को महत्व देना,
2) आवश्यकता होने पर स्वदेशी खरीदना और
3) संकटपूर्ण परिस्थिति में विदेशी उत्पाद की खरीद
इस सूत्र में “वोकल फ़ॉर लोक” और स्वदेशी के आग्रह का भाव समाहित है।

भारत को भारतीय मूल हिन्दू अर्थतंत्र की दिशा में चलाने के लिए यह केवल प्रारम्भ है। मजदूरी का निर्धारण, कच्चा माल पर अधिकार और उत्पाद का वितरण, लाभांश का वितरण, लाभ और लागत का संतुलन, लाभ का पुनर्निवेश, कमाने वाले के सामाजिक दायित्व का निर्धारण और निर्वहन आदि इसके बाद के विचारणीय प्रश्न का उत्तर भी हिन्दू अर्थतंत्र के पास है।
इसी अर्थतंत्र के बल पर भारत के कोने कोने में तत्कालीन सम्पन्नता के प्रतीक मठ, मंदिर, किले, सार्वजनिक भवन, तालाब, कुएं, बावड़ियां, झीलें, धर्मशालाएं, अनेकानेक निर्माण निर्मित हो पाए थे। सूत्र था जो कमाएगा वह खिलायेगा अर्थात सबका पेट भरेगा। जब सम्पन्नता सार्वजन में व्याप्त थी, किसी समूह विशेष के नियंत्रण में न थी तब राष्ट्र सोने की चिड़िया कहलाया था। तभी घरों पर ताले लगाने की आवश्यकता न थी, तभी कोई चोर न था, तभी कोई भिखरी न था।

आज आवश्यकता है तो बस निष्पक्ष अध्ययन और शोध करने के बाद उस दिशा में चल पड़ने की। इसे अपना कर हम विश्व मे एक बार फिर से आर्थिक महाशक्ति बन जाएंगे इसमे कोई संदेह नहीं।

“आँखों में वैभव के सपने, पग में तूफानों की गति हो
राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता, आये जिस जिस की हिम्मत हो”

मनमोहन पुरोहित
(मनुमहाराज)
7023078881
फलोदी, राजस्थान

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