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मुझे भी शांति की तलाश है: गुरूदत्त

गुरूदत्त, जिनके पास सुंदरता, ज्ञान, हुनर, प्यार, परिवार, शोहरत, दौलत, सुख-सुविधाएं सब थी, मगर उन्हें शांति की तलाश थी, जिस शांति के बाद और किसी की तलाश न रहे ऐसी अमर शांति की।

गुरूदत्त जिज्ञासु और सर्वोच्च कृति करने वाले इंसान थे। वे अपने फिल्म, गाने, गायक-गायिका के आवाज में वो भाव, कलाकार में उसकी अभिव्यक्ति सभी के कार्यों में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ते थे, अच्छे से अच्छे कार्य करने की उनकी प्रवृत्ति थी। गुरूदत्त इंसानों में अच्छाईयां ढूंढते थे। एक सभ्य नेकदिल इंसान किसी दूसरे के साथ कितने अच्छे से व्यवहार, सम्मान, आपसी प्रेम, सहयोग आदि कर सकता है, वैसा ही सब कुछ गुरूदत्त अपने सहयोगियों के साथ करते थे। उनके अपने आदर्श थे, उनकी जमीर आदर्शों से भरी थी, जिनके कारण फिल्मकारों को अपनी ओर से काम करने के लिए मना कर देते थे। वे एक प्रसिद्ध निर्देशक, सफल अभिनेता, लेखक, कोरियाग्राफर और बेहद संजीदा, नेकदिल, सज्जन इंसान थे।

उनके साथ काम करने वाले लोग मानते हैं कि गुरूदत्त जी के हर काम सुनियोजित, शालीन व्यवहार और उनकी टीम में वे संरक्षक की भांति कार्य करते थे।

गुरूदत्त ने समाज को सिनेमा के माध्यम से अपनी ज्ञान, अनुभव और हुनर से सर्वश्रेष्ठ फिल्म, गीत, आदि दी। ये बात अलग है कि उस जमाने में ये सभी फिल्म सफल नहीं रही और आधुनिक युग में वो फिल्में क्लासिक और एशिया की सर्वोच्च फिल्मों की गिनती में गिने जाते हैं।

गुरूदत्त ने अपने जीवन में जो देखा, समझा, अनुभव किया उसे अपने फिल्म, गाने आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया। ‘‘अगर ये दुनिया मिल भी जाए तो क्या है’’ इस गीत में गुरूदत्त के हाव-भाव का चित्रण देखने से लगता है कि एक कवि, गायक, संजीदा इंसान की जज्बातों, उनके आदर्श, अच्छाईयों का समाज के लोगों को जरूरत नही। गुरूदत्त जी को समाज की बुराईयों से शिकायत थी, जिसमें इंसान अपनी मतलब के लिए दूसरों को धोखा देता है, दौलत के आगे अपना जमीर बेचता है, जमीन-जायदाद के लिए अपनों के साथ बुरा बर्ताव करता है। पैसों, राजनीति के आगे योग्य लोगों को उपेक्षित करता है।

‘प्यासा’ फिल्म के एक संवाद में गुरूदत्त जी का समाज के प्रति नजरिया – मुझे किसी इंसान से कोई शिकायत नही है, मुझे शिकायत है समाज के उस ढांचे से, जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है, मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है, दोस्त को दुश्मन बनाता है। मुझे शिकायत है उस तहजीब से, उस संस्कृति से जहां मुर्दों को पूजा जाता है और जिन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है, जहां किसी के दुख-दर्द में दो आंसू बहाना बुजदिली समझा जाता है, छुपके मिलना एक कमजोरी समझा जाता है। ऐसे माहौल में मुझे कभी शांति नहीं मिलेगी मीना, कभी शांति नहीं मिलेगी। इसलिए मैं दूर जा रहा हूं दूर …,

ऐसे ही उनके कागज के फूल के एक संवाद-‘मुझे भी शांति की तलाश है, अमर शांति’। देखा जाए तो गुरूदत्त उस अवस्था तक पहुंच चुके थे, जिस अवस्था में संत महात्मा गुणीजन ज्ञान, ध्यान, साधना, अनुभव से पहुंचते हैं।

– देवराम यादव (9993769490, 6232007013)