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मैं तब विनोद मेहता के पास नौकरी माँगने गया था

मुझे जुलाई 1995 में आउटलुक में काम करने का मौका मिला था। मैं एक कॉलेज ग्रेजुएट था और मेरे पास सिर्फ नौ महीने का प्रिंट एक्सपीरिएंस था। नौकरी कोलकाता संवाददाता की थी जिसके लिए पद्मानंद झा जिन्हें पैडी भी कहा जाता था, ने मेरा 10 मिनट का इंटरव्यू किया था।
 
‘इंटरव्यू का नेक्स्ट स्टेज कब होगा सर?’ मैंने पैडी से पूछा।
 
‘कौन सा नेक्स्ट स्टेज?’ पैडी ने मुझसे ही सवाल किया।
 
‘विनोद मेहता के साथ सर।’ मैंने लड़खड़ाते हुए कहा।
 
‘वह जरूरी नहीं, मैं विनोद से कह दूंगा कि मैं तुमसे मिल चुका हूं और तुम ओके हो।‘ पैडी ने सीधे सीधे जवाब दिया, जोकि उनका स्टाइल था।
 
‘तो ठीक है, शुक्रिया सर।’ मैंने जवाब दिया और सफदरजंग एनक्लेव के धूल भरे बाजार में आउटलुक के दफ्तर के बाहर पांच घंटों तक इंतजार करता रहा कि कब विनोद मेहता को देख सकूं। मैं चाहता था कि मैं उनसे कहूं कि पैडी ने मेरा इंटरव्यू लिया है और मैं जल्द ही आउटलुक जॉइन करने वाला हूं।
 
‘यह तो बहुत अच्छा हुआ।’ मैं चाहता था कि वह मुझसे कहें और फिर मुझे कॉफी पर बुलाएं। पत्रकारिता के क्षेत्र में वह एक लीजेंड थे और उनसे मिलना किसी सपने से कम नहीं था। 
 
दुर्भाग्य से मैं उस दिन विनोद मेहता से नहीं मिल पाया। चूंकि मुझे दिल्ली में काम करना था, इसलिए मैंने अगले दिन दूसरी कई जगहों पर इंटरव्यू दिए और टीवी रिपोर्टर के रूप में अपने कॅरियर की शुरुआत की।
 
करीब 15 साल बाद, मैंने विनोद को यह आपबीती बताई, जब हम मुंबई से दिल्ली आ रहे थे। Times Now घोटालों पर एक्सक्लूसिव स्टोरी कर रहा था। विनोद सारी डीटेल्स जानना चाहते थे और लगभग दो घंटों तक हम बातचीत करते रहे।
 
‘तो, विनोद, आप मुझे क्या सलाह देंगे?’ जब हम फ्लाइट से उतरे तो मैंने उनसे पूछा। मैंने पंद्रह साल पहले छूट गई बात को मानो उस दिन पूरा करने की कोशिश की।
 
‘अपनी रफ्तार धीमे मत करो। अगर तुम्हारी स्टोरी सही है तो तुम भी सही हो। बाकी की बातों के बारे में मत सोचो।‘ उन्होंने कहा।
 
हमने अपना सामान उठाया और मैं उनके साथ उनकी कार तक गया।
 
‘अगर मैं तुम्हारी उम्र का होता तो मैं भी वही कहता।’ उन्होंने बात खत्म की।
 
मैं सोचता हूं कि काश, मैं विनोद से यह सब कह पाता। लेकिन उस दिन से मुझे पक्का यकीन हो गया कि उन जैसा संपादक और कोई नहीं हो सकता।
 
विनोद मेहता का मार्गदर्शन मुझे हमेशा मिलता रहा। उनके शॉर्ट फोन कॉल्स और मेरे फोन की मेमोरी में उनके टेक्स्ट मैसेज, मुझे हमेशा याद रहेंगे- तुम सही ट्रैक पर हो या तुम्हारे चैनल पर हेडलाइन तो ठीक है लेकिन स्टोरी बहुत वीक है या तुमने डिबेट के लिए सही स्टोरी ली है- अगर दूसरों ने नहीं ली हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
 
कई बार वह टीवी डिबेट में दिखने वाले गुस्से या तनाव से परेशान हो जाते। एक बार एक जबरदस्त बहस के बाद उन्होंने कहा, ‘अर्णब, मैं टीवी फन(Fun) के लिए करता हूं। पर सोचता हूं कि अगली बार स्किप(skip) कर लूं।’ उस बहस में कई पैनलिस्ट उन पर चढ़ गए थे। मैं उन्हें तुरंत फोन किया और कहा, ‘अगर आप ऐसा चाहते हैं तो ऐसा ही होगा। चलिए बताइए, क्या खबर है।’
 
विनोद ऐसे थे। कोई दुर्भावना नहीं, कोई बुरा खयाल नहीं। कोई राजनीति नहीं और छिपाने के लिए भी कुछ नहीं। बहुत ज्यादा ईमानदार और अच्छी स्टोरी के लिए भूख।
 
लेकिन विनोद की प्रशंसा करने के बाद क्या मैं उनसे सहमत भी होता था? बिल्कुल नहीं। हम तो Times Now के स्टूडियो में मिलने वाले सैंडविच की क्वॉलिटी पर भी एक मत नहीं रखते थे। हम कश्मीर, पाकिस्तान, नक्सलवाद, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और उनकी मैगजीन में छपने वाले लंबे लेखों- किसी भी बात पर सहमत नहीं होते थे। मुद्दों पर असहमतियों के चलते ही वह न्यूज़ ऑवर  की डिबेट्स से दूर रहना पसंद करते थे क्योंकि ज्यादातर मौकों पर हम बातचीत करते-करते झगड़ ही पड़ते थे। लेकिन हमारे बीच की ईमानदार असहमतियां-सीधे तौर पर होती थीं। बहुत से लोगों ने तो उनका बायकॉट करना शुरू कर दिया था, जब उन्होंने राडिया टेप्स वाले मामले को एक्सपोज किया था। विनोद उपदेश नहीं देते थे, न ही फैसले सुनाते थे और न ही बीच-बचाव की मुद्रा में आते थे- वह जैसे थे- वैसे थे।
 
‘क्या तुम मेरी नई किताब के लिए आओगे?’ उन्होंने मुझसे पिछले साल नवंबर में पूछा था। वह चाहते थे कि मैं उनसे उनकी नई किताब के बारे में बात करूं।
 
‘बेशक’, मैंने बिना हिचके उनसे कहा। इससे पहले उनकी किताब लखनऊ बॉय के लॉन्च पर भी मैंने उनसे बात की थी।
 
‘अर्णब मैं बहुत एक्साइटेड हूं। यह इवेंट मेरे लिए बहुत मायने रखता है। मैं इन दिनों ट्विटर पर भी हूं।‘ वह बच्चों की तरह उत्साहित थे। 
 
‘मैं आपके साथ वह इवेंट करूंगा और फिर हम न्यूज़ ऑवर  में मिलेंगे।‘ मैंने कहा।
 
‘अर्णब परेशान मत हो। तुम चाहोगे तो हम वहीं से न्यूज़ ऑवर  कर लेंगे।‘ उन्होंने हंसते हुए कहा।
 
वह उस दिन भी बहुत खुश थे। वह आखिरी दिन था, जब मैंने उनसे बात की थी। मैं उनकी बुक रिलीज का इंतजार कर रहा था। बातचीत के एक हफ्ते बाद उनके पब्लिशर ने मुझे किताब की एडवांस कॉपी भेज दी। मैंने उस किताब को दो बार पढ़ा। इतना कंप्लीट सीक्वेल मैंने कभी नहीं पढ़ा था। विनोद कलम के धनी थे। उन्होंने अपनी जिंदगी को दो फाड़ करके लिखा था। उनकी जिंदगी का पहला हिस्सा लखनऊ बॉय में था और दूसरा हिस्सा इस किताब में। ऐसा नहीं था कि इस किताब में वह जिंदगी को अलविदा कह रहे थे लेकिन पता चलता था कि वह शांत मुद्रा में चले गए हैं। जैसे खुद से मिलने के लिए।
 
इवेंट से पहले ही वह बीमार हो गए और हमारी बातचीत अधूरी रह गई। उनकी किताब लॉन्च हो गई- एडिटर्स अनप्लग्ड।
 
9 फरवरी को मैं उनसे एम्स में मिला। मैंने उनसे कहा कि दिल्ली में एक्जिट पोल्स का क्या पूर्वानुमान था,  इलेक्शन पैनल में मैंने उन्हें कितना मिस किया,  मुझे उनकी किताब कितनी पसंद आई। मैं उनसे लगातार बातें करता रहा।
 
उन्होंने मेरा हाथ थामा और मैंने उनसे कहा कि मैं उनकी ईमानदारी की कितनी कद्र करता हूं। मुझे इस बात की कितनी तकलीफ है कि मैंने कभी उनके साथ काम नहीं किया। विनोद आईसीयू में ज्यादा बात नहीं कर सकते थे लेकिन मैं जानता हूं कि वह सब सुन रहे थे। मैं उनसे बहुत सारी बातें करना चाहता था लेकिन डॉक्टर्स ने मुझसे कहा कि उन्हें आराम की जरूरत है। मैं जानता था कि हमारी बातचीत अधूरी रह गई है।
 
एम्स से लौटने के बाद भी मैं सुमित्रा से बात करता रहा- वह उनकी असली ताकत थीं। मैं उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहा था लेकिन मैं भीतर से बहुत अशांत था। आप क्या कहेंगे जब आपका आदर्श, जिसकी तरह आप बनना चाहते हैं, एक ऐसा संपादक जो आपको कभी नहीं मिलेगा, एक मुश्किल संघर्ष कर रहा हो।
 
बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि पत्रकारिता में मेरा आदर्श कौन है। आज मैं कहना चाहता हूं- विनोद मेहता हमेशा से मेरा आदर्श हैं और रहेंगे। अपने दौर के बेहतरीन इंसान और एक महान संपादक।
 
 (टाइम्स नाऊ के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी का यह आलेख अंग्रेजी वेबसाइट 'द हाफिंगटन पोस्ट' में पोस्ट हुआ है। समाचार4मीडिया ने इस आलेख का हिंदी में अनुवाद किया है। आप इसका मूल लेख नीचे दी वेबसाइट के जरिए पढ़ सकते हैं )

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साभार- समाचार4मीडिया एवँ द हाफिंगटन पोस्ट से
लिंक  http://www.huffingtonpost.in/arnab-goswami/vinod-mehta-was-the-edito_b_6825998.html

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