Tuesday, April 16, 2024
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मातृभाषा में शिक्षा हो तो भारत में नकलची नमूने नहीं, करोड़ों वैज्ञानिक और दार्शनिक पैदा होंगे

1909 में जब महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज’ लिख रहे थे तो उसमें वह भावी भारतीय राष्ट्र का स्वरूप भी प्रस्तुत कर रहे थे. भावी भारत में भाषा और शिक्षा के स्वरूप गांधीजी ने लिखा- ‘मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओं को चमकाना चाहिए. …प्रत्येक पढ़े-लिखे भारतीय को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का ज्ञान होना चाहिए. और हिन्दी का ज्ञान तो सबको होना चाहिए. कुछ हिन्दुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए. उत्तर और पश्चिम भारत के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए. सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होगी. उसे फारसी या देवनागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए. हिन्दू और मुसलमानों में सद्भाव रहे, इसलिए बहुत से भारतीयों को ये दोनों लिपियां जान लेनी चाहिए. ऐसा होने पर हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी को निकाल बाहर कर सकेंगे.’

इसी पुस्तक में एक स्थान पर पाठक दो-टूक भाषा में एक सीधा सवाल पूछता है- ‘क्या आप स्वराज्य के लिए अंग्रेजी शिक्षा का कोई उपयोग नहीं मानते?’ और इसके जवाब में गांधी कहते हैं- ‘मेरा जवाब ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है. करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी, उसने इसी इरादे से वह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता. किन्तु उसके कार्य का परिणाम यही हुआ है. हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है. फिर यह भी जानने लायक है कि जिस पद्धति को अंग्रेजों ने उतार फेंका है, वही हमारा शृंगार बनी हुई है. …जिसे उन्होंने भुला दिया, उसे हम मूर्खतावश चिपटाए रहते हैं. वे अपनी-अपनी भाषा की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं. वेल्स इंग्लैंड का एक छोटा-सा परगना है. उसकी भाषा धूल के समान नगण्य है. लेकिन अब उसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है.’

‘…लेकिन हमारी क्या दशा है? हम एक-दूसरे को जो पत्र लिखते हैं, सो गलत-सलत अंग्रेजी में. इस गलत-सलत अंग्रेजी से साधारण एमए पास व्यक्ति भी मुक्त नहीं है. …यदि लंबे समय तक ऐसा चलता रहा तो आनेवाली पीढ़ी हमारा तिरस्कार करेगी और हमें उसका शाप लगेगा ऐसी मेरी मान्यता है. आपको समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बढ़े हैं. अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. यदि हम अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोग अब उसके लिए कुछ करते भी हैं तो हम (अंग्रेजी से और अंग्रेजी के जरिए वंचित) जनता के ऋण का एक अंश ही चुकाते हैं. क्या यह कम अत्याचार की बात है कि मुझे यदि अपने देश में न्याय प्राप्त करना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना पड़े. बैरिस्टर हो जाने पर मैं अपनी भाषा में बोल नहीं सकता. दूसरा आदमी मेरी मातृभाषा का अनुवाद करके मुझे समझाए, क्या यह छोटा-मोटा दंभ है? यह गुलामी का चिह्न नहीं तो और क्या है? इसके लिए मैं किसे दोष दूं? अंग्रेजों को अथवा अपने को? भारत को गुलाम बनानेवाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग ही हैं. जनता की हाय अंग्रेजों को नहीं, हमको लगेगी.’

‘हम ऐसे रोग में फंस गए हैं कि अंग्रेजी शिक्षण लिए बिना काम चलने का समय नहीं रहा. …लेकिन उसका उपयोग अंग्रेजों के साथ और ऐसे भारतीयों के साथ करें जिनकी भाषा हम न समझ सकते हों. अंग्रेजी का उपयोग यह समझने के लिए करें कि अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कितना परेशान हो चुके हैं. …बच्चों को उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और भारत की एक दूसरी भाषा भी सिखानी चाहिए. बच्चे जब काफी बड़े हो जाएं, तब भले ही उन्हें अंग्रेजी पढ़ाई जाए. और वह भी अंग्रेजी को मिटाने के इरादे से, न कि पैसा कमाने के विचार से. यह करते हुए आपको यह सोचना पड़ेगा कि अंग्रेजी में क्या सीखें और क्या न सीखें.’

भारत की भाषायी समस्या पर विचार करते हुए गांधी के ये शब्द अब भी कानों में गूंजने लगते हैं. आज यह समस्या समय के साथ-साथ और जटिल रूप ले चुकी है.संविधान सभा में इस विषय पर हुई लंबी बहस बेनतीजा ही रही और आगे जाकर दिशाहीनता का शिकार भी हो गई. आज यह भारत की मुख्याधारा के विमर्श से गायब पूरी तरह गायब है. राजनीतिक दलों के संविधानों और घोषणापत्रों में में भी कोई इसे छूना नहीं चाहता. जिस प्रकार का स्वस्थ और सपष्ट विमर्श इसपर होना चाहिए था और जिस तरह का भविष्योन्मुखी प्रयास होना चाहिए था, ऐसा कुछ भी दूर-दूर तक नज़र नहीं आता. त्रिभाषा फॉर्मूला जबानी जमाखर्च और खयाली पुलाव की तरह का एक छलावा ही साबित हुआ.

नतीजा यह है कि दो वर्ष पहले आंध्रप्रदेश में कृष्णा जिले के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज की दो छात्राओं ने आत्महत्या की तो इसके पीछे एक कारण यह भी कहा गया कि ये छात्राएं तेलुगु मीडियम से पढ़कर आई थीं. अभी दो सप्ताह पहले उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में एक छात्र ने इसलिए फांसी लगा ली, क्योंकि हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने के चलते उसे अंग्रेजी ठीक से समझ में नहीं आती थी और उसे प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं मिल पा रहे थे. पिछले महीने बेंगलुरु के मंजूनाथनगर इलाके में एक मेधावी छात्रा आत्महत्या के इरादे से छत से कूद गई और बुरी तरह जख्मी हो गई, क्योंकि अब तक कन्नड़ माध्यम से शिक्षा ले रही उस बच्ची को अंग्रेजी माध्यम से स्कूल में डाल दिया गया था जहां वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी.

गांधी ने इसकी भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी. 20 अक्टूबर, 1917 को गुजरात के भड़ौच में एक शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने लंबे संबोधन में गांधी ने कहा था— ‘विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है, वह असह्य है. यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ती है. वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते. इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं. उनमें खोज करने की शक्ति, विचार करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं. इससे हम नई योजनाएं नहीं बना सकते और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते. कुछ लोग, जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं.’

गांधीजी ने आगे कहा – ‘एक अंग्रेज ने लिखा है कि मूल लेख और सोखता कागज के अक्षरों में जो भेद है, वही भेद यूरोप के और यूरोप के बाहर के लोगों में है. इस विचार में जो सचाई है वह एशिया के लोगों की स्वाभाविक अयोग्यता के कारण नहीं है. इसका कारण शिक्षा का योग्य माध्यम चुन लेना है. दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी साहसी, शरीर से कद्दावर और चरित्रवान हैं. बाल-विवाह आदि जो दोष हममें हैं, वे उनमें नहीं हैं. फिर भी उनकी दशा वैसी ही है जैसी हमारी. उनकी शिक्षा का माध्यम डच भाषा है. वे भी हमारी तरह डच भाषा पर तुरंत अधिकार प्राप्त कर लेते हैं और हमारी ही तरह शिक्षा समाप्त होते-होते कमजोर हो जाते हैं. वे भी बहुत हद तक कोरे नकलची निकलते हैं. शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के हट जाने की वजह से उनमें भी असल चीज लुप्त हुई दीखती है. अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए हमलोग ही इस नुकसान का सही अनुमान नहीं लगा पाते. और यदि हम यह अनुमान लगा सकें कि जनसाधारण पर हमारा कितना कम असर पड़ा है, तो इसकी कुछ कल्पना हो सकती है. हमारे माता-पिता हमारी शिक्षा के बारे में कभी-कभी कुछ कह देते हैं, वह विचारने लायक होता है. हम जगदीशचन्द्र बसु और डॉ. प्रफुल्ल चंद्र राय को देखकर मोहांध हो जाते हैं. मुझे विश्वास है कि यदि हमने 50 वर्षों से मातृ-भाषा द्वारा शिक्षा पाई होती तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देखकर हमें अचंभा न होता.’

गांधी ने आगे कहा— ‘…जापान ने मातृ-भाषा में शिक्षा के द्वारा जन-जागृति की है. इसलिए उनके हर काम में नयापन दिखाई देता है. वे शिक्षकों के भी शिक्षक बन गए हैं. उन्होंने (गैर-यूरोपीय देशों के लोगों को दी गई ) सोख्ता कागज की उपमा को गलत साबित कर दिया है. मातृभाषा में शिक्षा के कारण जापान के जन-जीवन में हिलोरें उठ रही हैं. और दुनिया जापानियों का काम अचरज भरी आंखों से देख रही है. विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने की पद्धति से अपार हानी होती है. …अंग्रेजी भाषा पर अधिकार करने में ही हमारी अधिकांश मानसिक शक्ति खर्च हो जाए, यह बहुत ही अवांछनीय है.’

ज्यादा रुपया कमानेवाले रोजगार के अवसर अंग्रेजी में ही होने के चलते माता-पिता अपने बच्चों के इसमें जबरदस्ती झोंकते रहे हैं. इसके चलते उपरोक्त घटनाओं से अधिक कई गुना घटनाएं ऐसी होती हैं जिसमें प्रकट रूप से जान की हानि न भी दीखती हो, लेकिन हमारे छात्र भयंकर मानसिक पीड़ा और घुटन से गुजरते रहते हैं. भारत में विचार को, ज्ञान-विज्ञान को और रोजगार के अवसरों को संरचनात्मक रूप से एक खास भाषा का पर्याय बना दिया गया है. भारत का समाज औपनिवेशिक मानसिकता से बीमार होकर अपने ही करोड़ों संभावनाशाली युवाओं को पंगु बना देनेवाला एक आत्मघाती समाज है. ‘कॉमन स्कूल सिस्टम’ वाले प्रस्ताव सरकारों की अकर्मण्यता की भेंट चढ़ते रहे हैं. आज भारत में तीन से चार प्रतिशत अंग्रेजीभाषी लोग भारत की 96 से 97 प्रतिशत जनता पर हर तरह से एक अन्यायपूर्ण बढ़त बनाए हुए हैं. एक हास्यास्पद सच्चाई तो यह भी है कि अंग्रेजी जानने का दावा करनेवाले इन 3-4 प्रतिशत लोगों में भी इस भाषा के ज्ञान का स्तर निहायत ही औसत स्तर का है. यहां का शासक वर्ग इस भाषा को ढाल बनाकर एक झटके में भारत के बाकी जनसमुद्र को अयोग्य और नाकारा करार दे देता है.

आज हम भारत में तेजी से बढ़ते भीड़तंत्र का रोना रोते रहते हैं, लेकिन इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि मानवीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार और मौलिक चिंतन हमारी अपनी भाषाओं के माध्यम से पूरे भारतीय समाज में जितना समान रूप से पहुंचना चाहिए था, उतना पहुंच नहीं पाया है. अंग्रेजी या दुनिया की तमाम भाषाएं अच्छी हैं, सीखने लायक हैं, लेकिन इसके आधार पर एक संरचनात्मक असामनता और नब्बे फीसदी से अधिक जनसाधारण का हाशियाकरण ही भारत को अराजकता की ओर ले जा रहा है. सबसे अधिक दयनीय स्थिति तो उनकी है जो न ठीक से अपनी भाषा सीख पाए और न अंग्रेजी ही.

हिंदी या किसी एक भारतीय भाषा में समूचे राष्ट्र की भाषा बनने या बनाने की स्थिति न भी हो, तो भी भारत जैसे एक देश पर एक विदेशी भाषा को असमान रूप से और बिना किसी व्यवस्था या सहायता के लाद देना एक अमानवीय स्थिति है. सोचकर देखिए कि यदि ब्रिटेन में ही हिंदी या तमिल को बिना किसी व्यवस्था के भारत में अंग्रेजी की तरह अप्रत्यक्ष रूप से अनिवार्य कर दिया जाता तो आज उसकी स्थिति क्या होती? आज भारत में हम रट-पिट कर औसत-बुद्धि वाले इंजीनियर और डॉक्टर तो पैदा कर रहे हैं, लेकिन खोजकर्ता वैज्ञानिक, मौलिक चिंतक और दार्शनिक नहीं पैदा कर पा रहे हैं. भारत की ज्यादातर आबादी नवीनतम ज्ञान-विज्ञान तक पहुंच से वंचित है. जिसकी मौलिकता बची हुई है, उसके आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया गया है. और जो किसी विदेशी भाषा कर दम पर एक अन्यायपूर्ण सत्ता-संरचना में हर जगह छाए हुए हैं, उनकी मौलिकता नष्ट हो चुकी है. हमारी पूरी की पूरी पीढ़ी नकलची बन रही है, अधकचरी बन रही है.

साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से

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