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भारतीय संस्कृति व चिकित्सा पद्धति में आयुर्वेद का महत्व – भाग २

यह कहा गया है कि “स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं’। इसका अर्थ यह है कि आयुर्वेद मौजूदा बीमारियों का इलाज करने के अलावा शरीर के समग्र स्वास्थ्य की भी रक्षा करता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आयुर्वेद रोग के उपचार से ज्यादा अनुसाशनात्मक जीवनशैली की बात करता है। यदि कोई वैद्य के पास जाता है तो उसे न केवल दवा दी जाती है बल्कि कुछ मंत्र भी दिया जाता है जैसे- भोजन करें आराम से, सब चिंता को मार।

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चबा-चबा कर खाइए, वैद्य न आवे द्वार।
इसका तात्‍पर्य यह है कि बिना किसी तनाव के भोजन का आनंद लें। भोजन के हरेक कौर का आनंद लें और उसे धैर्यपूर्वक चबाएं। ऐसा करने से आपको फिर कभी वैद्यराज को घर नहीं बुलाना पड़ेगा यानी आप निरोग बने रहेंगे।”

सोलहवीं शताब्दी में आंध्रप्रदेश के आचार्य बल्लभाचार्य द्वारा तेलुगू पुस्तक वैद्यचिन्तामणि का आयुर्वेद में विशिष्ट स्थान है। यह ग्रन्थ छब्बीस भागों में विभक्त है। मंगलाचारण के बाद पंच निदान के साथ-साथ अष्ट स्थान परीक्षा का विवरण है जिसमें पहले नाड़ी परीक्षा है। नाड़ी का जितना विस्तार से वर्णन यहां मिलता है उतना अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में शायद नहीं मिलता। हाथ के साथ-साथ पाँव के मूल नाड़ी परीक्षा, स्त्रियों के बायें तथा पुरूषों के दांये हाथ की नाड़ी परीक्षा का विधान बताया गया है। प्रत्येक रोग की चिकित्सा के लिए चूर्ण, काषाय, वटी, अवलेह, घृत, तेल, अर्जन तथा धूप का उल्लेख है। ग्रन्थ के तेइस भागों में विभिन्न प्रकार के रोगों को वर्णन है व क्षय रोग के उपचार का विस्तृत उल्लेख मिलता है।

ब्रिटिश राज ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अवैज्ञानिक, रहस्यमयी और केवल एक धार्मिक विश्वास माना। इसके विपरीत अंग्रेजों ने एलोपैथी को राज्य का संरक्षण प्रदान किया। परिणामस्वरूप आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति को नष्ट करने का प्रयास भी किया गया। इसके परिणामस्वरूप अनेकों महान आयुर्वेदिक ग्रन्थ, वैद्य और प्रक्रियाएँ दबकर रह गयीं। आयुर्वेद उन ग्रामीण क्षेत्रों में जीवित रहा जो ‘आधुनिक सभ्यता’ की पहुँच से दूर थे। वर्ष 1835 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में आयुर्वेद के शिक्षण कार्य को निलंबित कर दिया गया था। हालाँकि औपनिवेशिक शासन के दौरान कई प्राच्यविदों ने वैदिक ग्रंथों को पुनर्प्राप्त करके आयुर्वेद को अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित भी किया। प्राच्यविदों ने आयुर्वेद को पुनर्जीवित करने में बड़ा योगदान दिया था। इसके बारे में भ्रांतियां फैलाई गई व एक षड्यंत्र के अनुसार इस महत्वपूर्ण ज्ञान को आम भारतीयों की जीवन स्वास्थ्य संस्कृति से अलग कर दिया गया।

अंग्रेजी उपनिवेश के विरुद्ध भारत का संघर्ष जब ‘नवजागरण’ का रूप ले रहा था तब उसकी एक लड़ाई चिकित्सा के क्षेत्र में भी लड़ी जा रही थी। इसे ‘आयुर्वेदिक राष्ट्रवाद’ भी कह सकते हैं। यह पुनरुत्थान अनेक रूपों में प्रकट हुआ। पाश्चात्य चिकित्सकीय ढांचे का उपयोग कर आयुर्वेद अपने को बदल रहा था। इस विषय पर कार्य करने वाले विद्वान डैविड आर्नोल्ड के अनुसार आयुर्वेद के मूल संस्कृत ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद ने इस आंदोलन को शास्त्रीय वैधता प्रदान की और उसे विशाल समुदाय तक पहुंचाया, वहीं प्रभावकारी सांस्थानिक ढांचों में से एक का अनुसरण करते हुए आयुर्वेद ने औषधालयों की स्थापना करते हुए अपनी जड़े मजबूत की।

‘आयुर्वेद: पंचमो वेद:’ आयुर्वेद को पाँचवे वेद का स्थान दिया गया है। आयुर्वेद एक काढ़ा,दवाई अथवा केवल वटी-गुटी का शास्त्र नहीं है। ये जीवन से जुड़ा हुआ, सूक्ष्मतम ज्ञान से निहित शास्त्र है। इसमें जीवन की प्रत्येक पक्ष को सूक्ष्मता से देखा गया है, प्रत्येक व्याधि का समाधान दिया गया है। चाहे प्रमाणिकता हो, चाहे जीवन के अछूते पक्ष हों, सबकी बात आयुर्वेद में करी गयी है, इसीलिए चरक मुनि ने कहा है ‘आयुर्वेदो अमृतानाम्’। शायद ही किसी अन्य चिकित्सा पद्धति की पुस्तकें पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद कही गयीं।

आयुर्वेद शास्त्र धन कमाने के लिए नहीं है, किसी कामार्थ नहीं है, ये पेट भरने के लिए भी नहीं है। इसका हेतु है कि अनेक प्रकार के जीव जंतु का कल्याण हो जाए, मनुष्य स्वस्थ रह सके, रोगों से बच सके और जो रोग हो गए हैं उनका निदान कर सके। इसलिए रोगों से बचने के लिए क्या क्या आवश्यक है, ये सारा ज्ञान आयुर्वेद में है ।

स्वंतत्रता के बाद हमारे देश में आयुर्वेद चिकित्सा महाविद्यालय खोलें गए, लेकिन वे भवन निर्माण तक ही सीमित रह गए। आयुर्वेद में शोध को सरकारों ने कोई महत्व नहीं दिया। हमारे प्राचीन शास्त्र आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के गुणसूत्रों से भरें हुए हैं लेकिन इन्हें आम जनमानस के बीच लाने में कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ है। वर्तमान सरकार ने आयुष मंत्रालय जरूर बना दिया है लेकिन इसमें इस ओर कितना काम हो रहा है यह चिंतन व चर्चा का विषय है।

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को लेकर बहस बहुत पुरानी है। बजाए इसके कि एक-दूसरे को कमतर साबित करने का प्रयास हो, कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि सब साथ मिल कर काम करें ताकि बहुमूल्य मानव जीवन की रक्षा हो सके। अंतत: चिकित्सा का उद्देश्य भी तो यही है।

साभार- https://www.indictoday.com/ से