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किन हालात में जीता है एक फौजी का परिवार

सोमवार 20 नवंबर को सुबह 8 बजे ‘एनडीटीवी ग्रुप’ के कार्यकारी उपाध्यक्ष केवीएल नारायण राव का निधन हो गया, लेकिन उनके बारे में शायद यह बात बहुत ही कम लोगों को पता होगी कि वह पूर्व सेना प्रमुख जनरल केवी कृष्ण राव के बेटे थे। पूर्व सेना प्रमुख के अलावा जनरल केवी कृष्ण राव जम्‍मू-कश्‍मीर, मणिपुर, नागालैंड और त्रिपुरा के राज्‍यपाल भी रह चुके थे। 30 जनवरी, 2016 को 92 साल की उम्र में जनरल केवी कृष्ण राव का दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ था।

4, अक्टूबर, 2016 को केवीएल नारायण राव ने एनडीटीवी डिजिटल पर एक आर्टिकल लिखा था, जिसमें उन्‍होंने बताया था कि एक सैन्‍य अधिकारी के बेटे के रूप में किस प्रकार उनकी परवरिश हुई। इसके अलावा उन्‍होंने इस आर्टिकल में उस घटना का भी जिक्र किया था, जब जम्‍मू-कश्‍मीर के राज्‍यपाल पद पर रहते हुए उनके पिता पर आत्‍मघाती हमला हुआ था। उनका ये आर्टिकल हालांकि पुराना है, लेकिन यह उनसे जुड़े कुछ ऐसे वाक्यों से रूबरू कराता है, जिससे शायद ही लोग वाकिफ हों। उनका ये लेख आपको एहसास कराएगा कि एक फौजी का परिवार किन संघर्षों के साथ जीवन जीता है।

पिछले दिनों जब भारत ने पाकिस्‍तान के खिलाफ सर्जिकल स्‍ट्राइक की थी, उसके अगले दिन हम कुछ मित्र इस मुद्दे पर बात कर रहे थे। तभी इस बारे में बात छिड़ गई कि वे उन सैनिकों के परिवार इन परिस्थितियों का सामना करते होंगे, जो इस तरह की कार्रवाई में शामिल रहते हैं और उनसे दूर रहते हैं।

एक सैन्‍य अधिकारी का पुत्र होने के नाते मैं इस बात को भलीभांति समझ सकता हूं। मुझे पता है कि पिता के ऐसे महत्‍वपूर्ण पदों पर रहते हुए मेरे परिवार ने कैसे इन परिस्थितियों का सामना किया है।

जहां तक मेरी जानकारी में है, अधिकांश सैनिकों और उनके परिवारों को काफी कठिन परिस्थितियों में जीना पड़ता है। उनके बच्‍चों को बेहतर शिक्षा के साथ-साथ अन्‍य सुविधाएं भी नहीं मिल पाती हैं।

जब मैं छोटा था तो अंबाला, ऊधमपुर और जम्‍मू-कश्‍मीर जैसे शहरों में रहना हमारे लिए काफी मुश्किल भरा था। हम सभी परिवार के लोग साथ रहते थे। हालांकि जब मेरे पिता की पोस्टिंग ‘फील्‍ड’ एरिया में हुई तो चीजें काफी बदल गईं क्‍योंकि परिवार को वहां ले जाने की अनुमति नहीं थी और हमें अलग रहना पड़ा।


1965 में जब मेरी उम्र 11 साल की थी, मेरी बहन की उम्र आठ साल की थी और मां की उम्र तकरीबन 32 वर्ष रही होगी, उस समय मेरे पिता लद्दाख में पोस्‍टेड थे और चीन के सामने उनके पास एक बिग्रेड की कमांड थी। वह करीब 17000 फीट की ऊंचाई पर तैनात थे जहां का तापमान (-40) डिग्री सेल्सियस था। उनकी टुकड़ी 22000 फीट की ऊंचाई तक फैली हुई थी। तब हम चेन्‍नई में रहते थे और अपने पिता से वर्ष भर में दो बार सिर्फ तभी मिल पाते थे जब वह छुट्टियों में घर आते थे। उस समय मोबाइल की तो बात ही दूर, वहां टेलिफोन लाइन भी नहीं थी। उस समय बातचीत का सिर्फ एक साधन पत्र (letters) होता था, जो पहुंचने में करीब एक महीना ले लेता था। ऐसे में परिवार की बातचीत उनसे कम ही हो पाती थी और विभिन्‍न परिस्थितियों में अधिकांश फैसले मेरी मां को ही लेने पड़ते थे, जिसका सीधा प्रभाव हम सभी पर पड़ता था। उस समय आर्थिक स्थिति भी ज्‍यादा अच्‍छी नहीं थी क्‍योंकि मेरी मां एक हाउसवाइफ (housewife) थीं और उनके पास आय का कोई अन्‍य साधन नहीं था। जब तक हमारे पास पिता का पत्र नहीं आता था, हमें पता ही नहीं चलता था कि वह कैसे होंगे लेकिन मन में यही विश्‍वास रहता था कि वह अच्‍छे ही होंगे। यह समय मां और हमारे लिए काफी मुश्किलों भरा था लेकिन हमने इन परिस्थितियों को काफी अच्‍छे से संभाल लिया था।

1970 में मेरे पिता मेजर जनरल बन गए और उन्‍हें नागालैंड के जखामा में तैनाती मिली। उस समय नागालैंड में विद्रोह चरम पर था और मेरे पिता पर बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी थी। उस समय उनकी निजी सुरक्षा भी हमेशा खतरे में रहती थी। हमारा परिवार फिर एक बार अलग हो गया और हम उस दौरान सिकंदराबाद में रहने लगे। उस समय भी हम अपने पिता को लेटर लिखते थे। हालांकि अब हमारे घर पर टेलिफोन था और करीब 15 दिनों में एक बार पिताजी ट्रंक कॉल (trunk call) करते थे और मेरी मां से उनकी करीब तीन मिनट बात हो पाती थी। जब वे छुट्टी पर होते थे तो प्रत्‍येक शाम को एक डिस्‍पैच राइडर (dispatch rider) घर आता था और SITREP (Situation Report) देकर जाता था, जिससे उन्‍हें नागालैंड के हालात के बारे में पता रहता था। उस समय परिस्थितियां काफी खराब थीं और हमारे पिता हमारे साथ नहीं थे।

यह मई 1971 की बात है, जब मैं अपने एक दोस्‍त के साथ ट्रेन से कोयंबटूर जा रहा था और उस समय हमारे पास रिजर्वेशन नहीं था। हम बिना रिजर्वेशन वाले डिब्‍बे में खुले हुए गेट के पास बैठे हुए थे। हमारे पैर डिब्‍बे से नीचे लटके हुए थे। तभी अचानक ट्रेन एक स्‍टेशन के पास से तेजी से गुजरी और हम ट्रेन व प्‍लेटफार्म के बीच फंस गए और घिसटते हुए चले गए। हमें गंभीर चोट लगी थी और हमें तुरंत अस्‍पताल जाना था। हमारे दो अन्‍य दोस्‍तों ने भी वहां हमारी मदद की और हमें कोयंबटूर के एयरफोर्स हॉस्पिटल में ले जाया गया। मुझे काफी गंभीर चोट लगी थीं और मुझे कुछ समय तक कोयंबटूर के अस्‍पताल में रखने के बाद ऊटी के पास वेलिंगटन भेज दिया गया। पुणे के कमांड हॉस्पिटल में मेरी सर्जरी होनी थी। इस बीच मेरी पिता की डिवीजन को खास जिम्‍मेदारी सौंपी गई थी और वे उसी की तैयारियों में लगे थे। जिससे न तो पिता नागालैंड से और न ही मां सिकंदराबाद से मुझे देखने आ सके। उस समय इतनी गंभीर चोटों के बावजूद मुझे अपने पैरेंट्स के बिना ही अस्‍पताल में रहना पड़ा। मुझे याद है कि शुरुआत में मैंने इस बात का विरोध किया था लेकिन जल्‍द ही स्थितियों को समझ गया था। मेरे पिता के पास काफी महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारी थी और मेरी मां को बहन का ध्यान रखना था। जब मुझे अस्‍पताल से छुट्टी मिल गई और मैंने कॉलेज शुरू किया, तब भी पिता इसी वजह से नहीं आ सके। मुझे याद है कि जब पिता को PVSM (Param Vishisht Seva Medal) मिला था तो मुझे काफी गर्व महसूस हुआ था। इसके अलावा भी मेरी जिंदगी में ऐसे कई वाकये हुए, जब मुझे अपने परिवार की काफी याद आई।

26 जनवरी 1995 को जब मेरे पिता जम्‍मू-कश्‍मीर के गवर्नर थे, उस समय जम्‍मू में गणतंत्र दिवस की परेड के दौरान एक जनसभा को संबोधित करते समय उनके ऊपर एक हमला हुआ था। उस दौरान तीन बम विस्‍फोट हुए लेकिन गनीमत रही कि पिता बाल-बाल बच गए हालांकि उस हमले में कई लोगों की मौत भी हो गई थी। मेरी मां ने फोन कर मुझे इस बात की जानकारी दी और बताया कि वे घर आ गए हैं। मां ने मुझसे यह भी कहा कि इन बारे में न्‍यूज रिपोर्ट को देखकर मैं परेशान न होऊं और वे लोग ठीक हैं।

वर्ष 2007 में मेरी मां की मौत हो गई और जनवरी 2016 में पिता का भी देहावसान हो गया। इस घटना के कुछ दिनों बद जब मैं सिकंदराबाद वाले घर में एक आलमारी को देख रहा था तो मुझे अपनी मां की एक साड़ी मिली जो उन्‍होंने 26 जनवरी 1995 को पहनी हुई थी। इसमें काफी छेद थे और विस्‍फोट के कारण एसिड गिरने से इस पर जलने के काफी निशान थे। दरअसल, जब मेरी मां कार्यक्रम स्‍थल पर बैठी हुई थीं, उस दौरान कुछ टुकड़े उनके ऊपर भी आकर गिरे थे। लेकिन उन्‍होंने मुझे बताया था कि वे सब ठीक हैं लेकिन असलियत में ऐसा नहीं था।

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