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भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा – भाग २

प्राचीन काल से ही भारत साधुओं एवं द्रष्टाओं के साथ साथ विद्वानों एवं वैज्ञानिकों की भी भूमि रही है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में इतिहास से ही भारत का अतुलनीय योगदान रहा है। गणितिज्ञ आर्यभट्ट ने ‘शुन्य’ की खोज की थी, जो इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार माना जाता है। आर्यभट्ट को खगोल विज्ञान का जनक कहा जाता है। शुन्य के साथ साथ दशमलव प्रणाली की भी खोज भारत में ही हुई थी। सामान्य गणित से लेकर कंप्यूटर की दुनिया में भी शुन्य एवं दसमलव प्रणाली सबसे उपयोगी खोज है।

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त्रिकोणमितीय कार्यों को पहले से ही छठी शताब्दी से परिभाषित किया गया था, और आज हम आधे कोण के साइन को क्या कहेंगे, इसके लिए एल्गोरिदम को आर्यभटीय में वर्णित किया गया था। आर्यभट्ट के पश्चात खगोल विज्ञानी-गणितज्ञ में ब्रह्मगुप्त का नाम आता है, जिन्होनें अधिक सटीक कलन गणित (एल्गोरिदम) दिया।

ऊपर उल्लेखित बीजगणित कई अन्य लोगों द्वारा बहुत आगे ले जाया गया था, जिसमें भास्कर II का विशेष रूप से योगदान है। उन्होंने विमान और गोलाकार ज्यामिति और बीजगणित दोनों पर ग्रंथ की रचना की। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में एक आकर्षक पुस्तक है, जिसे लीलावती कहा जाता है, जिसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कई समस्याओं का कविताओं के रूप में वर्णन किया गया है।

भास्कर II एवं ब्रह्मगुप्त ने एक हल भी किया था जो बाद में पेल के समीकरण के रूप में जाना जाने लगा। केरल स्कूल ने प्रचलित भूगर्भीय दृश्य को चुनौती दी एवं इसके बजाय एक आंशिक रूप से हेलियोसेंट्रिक मॉडल का प्रस्ताव किया, जिसमें आंतरिक ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते थे, जो अभी भी पृथ्वी की परिक्रमा करते थे। ज्यामिति के लिए भारतीय दृष्टिकोण का सबसे पहला उपलब्ध खाता सुलवा सूत्र में है। इन सूक्तों का दृष्टिकोण निवारक के बजाय व्यावहारिक और रचनात्मक है।

पाकुड़ कात्यायन ने परमाणु सिद्धांत पर शोध किया था। आणविक सिद्धांत (atomic theory) की खोज का श्रेय भी लगभग 2600 वर्ष पहले, महर्षि सनद को जाता है, जिन्होंने परमाणु सिद्धांत लिखा। अग्नि पुराण में भी इसका वर्णन है। खगोल विज्ञान के क्षेत्र में महर्षि आर्यभट की देन अतुलनीय है। उन्होंने यह सिद्धांत स्थापित किया की पृथ्वी गोल है एवं वह अपनी ही धुरी पर घूमती है तथा सूर्य का चक्कर लगाती है, जिसे हेलिओसेंट्रिक सिद्धांत कहते हैं। उन्होंने सूर्य और चंद्र ग्रहण का भी अन्वेषण किया। उपनिषदों के अनुसार, प्रकृति के पांच तत्व पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश हैं, जो आज भी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करता है।

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में महर्षि सुश्रुत की देन भी अतुलनीय है। महर्षि सुश्रुत द्वारा रचित सुश्रुत संहिता प्राचीन शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में व्यापक पाठ्यपुस्तक है। नासासंधान (rhinoplasty) के क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। महर्षि सुश्रुत के द्वारा ही सबसे पहली बार मोतियाबिंद ऑपरेशन भी किया गया था।

आयुर्वेद के प्राचीन विज्ञान का मूलभूत पाठ महर्षि चरक द्वारा चरकसंहिता में लिखा गया। पाचन की अवधारणा, उपापचय (metabolism) एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति की संकल्पना भी महर्षि चरक के द्वारा की गई। वैदिक विद्वान पिंगल के द्वारा सर्वप्रथम अपनी किताब छन्द शास्त्र में द्विआधारी संख्या पद्वति (binary number system) के विषय में बताया गया।

दंत चिकित्सा से सम्बंधित साक्ष्य भी सिंधु घाटी सभ्यता में मेहरगढ़ में मिली है। जल युक्त शौचालय एवं मलजल प्रणाली का भी उपयोग हरप्पा एवं मोहनजोदाड़ो में की जाती थी। वजन पैमाना का भी उपयोग सिंधु घाटी सभ्यता में किया जाता था। हरप्पा की खुदाई में शासक माप (Ruler Measurements) की भी पुष्टि हुई है। मोहेंजोदारो और हरप्पा में 5,000 साल पहले नियोजित शहर में कई नागरिकों से संबंधित संरचनाएं थी। ऋग्वेद में 100 ओरों वाले जहाजों का उल्लेख है।

पुरातत्वविदों का मानना है कि मोहनजोदारो के पूरे पड़ोस को अच्छी तरह से बनाने से पहले योजना बनाई गई थी। ईंट नालियों को इस तरह निर्मित किया गया था, ताकि वे सभी एक साथ जुड़ जाएं ताकि शहर से अपशिष्ट बाहर निकल सकें। सिंधु घाटी सभ्यता में प्रौद्योगिकी का उपयोग कृषि में सहायता के लिए किया गया था। उस समय व्यापक सिंचाई प्रणालियों का विकास भी किया गया था।

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति के कारण गाड़ियाँ और शुरुआती नावें चलीं, जिनका उपयोग व्यापार और यात्रा की मुख्य विधि के रूप में किया जाता था। ऋग्वेद की 10 वीं पुस्तक में एक नारा भगवान इंद्र की प्रशंसा के लिए लिखा गया है। उस श्लोक का तकनीकी अनुवाद 28 अंकों तक पाई के मूल्य को सटीक रूप से बताता है।

महर्षि वराहमिहिर नें वाराही (बृहत्) संहिता में भूकंप बादल सिद्धांत के विषय में बताया। उन्होंने सबसे पहले बताया की दीमक एवं वृक्ष भूमिगत जल की उपस्थिति के सूचक हैं। महर्षि वराहमिहिर का योगदान जल विज्ञान, भूगर्भशास्त्र, पारिस्थितिकी विज्ञान एवं गणित के क्षेत्र में रहा है।

वराहमिहिर राजा विक्रमादित्य के नव रत्नों में से एक थे। उन्होंने ही यह भी बताया की चन्द्रमा एवं अन्य गृह सूर्य की रौशनी के चलते ही शोभायमान हैं, अपने स्वयं के प्रकाश के कारण नहीं। गणित के क्षेत्र में उनका योगदान त्रिकोणमितीय सूत्र बताने में रहा है। उन्होंने पास्कल का त्रिकोण का एक संस्करण भी खोजा था। उन्होंने इसका उपयोग द्विपद गुणांक की गणना करने के लिए किया था।

भारत के इतिहास में जैन गुरुओं को द्विघातीय समीकरण (quadratic equations) का भी कार्यविधि ज्ञान था। उन्होंने बीजगणितीय समीकरण, लघुगणक और प्रतिपादक (logarithms and exponents), समुच्चय सिद्धान्त (set theory) का भी वर्णन किया है। 850 A.D में जैन गुरु महावीराचार्य नें गणित सारा संग्रह की रचना की, जो की अंकगणित पर प्रथम पाठ्यपुस्तक मानी जाती है। उन्होंने आम एकाधिक (Least Common Multiple) के विषय में भी बताया।

उपरोक्त वर्णित तथ्यों एवं उदाहरणों से यह स्पष्ट है की हमारा इतिहास एवं हमारी सांस्कृतिक विचारधारा हमेशा से आगे रही है। विज्ञान भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं परंपरा का अभिन्न अंग रहा है। हमारे पास हमारा अपना पारंपरिक ज्ञान है। प्राचीन भारत को शून्य के उपयोग, ग्रहण की सटीक गणना, परमाणु की अवधारणा से समृद्ध वैज्ञानिक योगदान के लिए जाना जाता है।

मोहनजोदारो और हड़प्पा की सभ्यता इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि प्राचीन भारत उस समय दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में अधिक उन्नत था। हमें उस प्राचीन ज्ञान को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। हमें उसे समझना होगा, उसकी पहचान करनी होगी, उसे प्रोत्साहित करना होगा और आगे बढ़ना होगा। हम अपने इतिहास से सीखकर अपने वर्तमान और भविष्य को और उज्जवल बना सकते हैं।

चित्र साभार- medium.com से
साभार- https://www.indictoday.com/ से