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भारतीय राजनेता अब जन नेता नहीं, निकम्मे हैं

निकम्मापन जरा ज्यादा सख्त शब्द है। लेकिन फिलहाल हमारी राजनीति के लिए यही शब्द इस्तेमाल करने का मन हो रहा है। क्यों हो रहा है? इसलिए हो रहा है कि आज से 50-60 साल पहले की राजनीति मैंने देखी है। इंदौर और दिल्ली में लगभग सभी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ काम करने का अवसर मुझे मिला है। क्या फर्क है, उन दलों में और आज के दलों? पहले भी सत्ता के लिए जबर्दस्त होड़ होती थी। वोट पटाने के लिए जाति, मजहब, भाषा, शराब, पैसा और छल-कपट का प्रयोग भी होता था लेकिन यह सब खटकर्म सिर्फ चुनाव के दिनों में चलता था।

शेष पांच साल क्या होता था? विभिन्न राजनीतिक दलों की जो भी विचारधारा होती थी, सभी नेता और कार्यकर्ता उसके प्रचार-प्रसार में जुटे रहते थे। बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे, जिनमें खादी, स्वावलंबन, सफाई, बुनियादी तालीम, अस्पृश्यता निवारण आदि के कार्यक्रम कांग्रेस चलाती थी। समाजवादी पार्टी जात तोड़ों, अंग्रेजी हटाओं, दाम बांधों, भारत-पाक एका आदि आंदोलन चलाती थी। कम्युनिस्ट पार्टियां मजदूरों और किसानों के संगठन बनाकर उनमें वर्ग-चेतना पैदा करती थी। उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने लायक बनाती थी। उन्हें मार्क्सवाद की शिक्षा देती थी। जनसंघ जैसी पार्टियां राष्ट्रवाद का मंच ढूंढती थी। गोरक्षा-गोसेवा, हिंदी-प्रचार, भारतीय परंपराओं की रक्षा, गोवा मुक्ति आंदोलन, विदेशी मिश्नरी के विरुद्ध अभियान आदि चलाती थीं।

लेकिन अब क्या हो रहा है? अब विचारधारा का निधन हो गया है। सारे दल निर्धन हो गए हैं। एक रुप हो गए हैं। एकायामी हो गए हैं। किसी भी कार्यकर्ता और नेता की अलग पहचान नहीं बची है। इसीलिए आए दिन पार्टी-बदल के किस्से सुनने को मिलते हैं। बड़े-बड़े समझे जाने वाले नेता अपने जूतों की तरह पार्टियां बदल लेते हैं। ये पार्टियां क्या करती हैं? इन सभी पार्टियों का एक ही लक्ष्य होता है। वोट और नोट। इसीलिए चुनाव के अलावा उन्हें कुछ नहीं सूझता। अब राजनीतिक दल राजनीति नहीं करते। सिर्फ चुनाव लड़ते हैं। वे चुनावी मशीनें बन गई हैं। उन्हें सिर्फ सत्ता से मतलब है, सेवा से नहीं। वे समझते हैं कि सिर्फ सत्ता ही ब्रह्म है। बाकी सब मिथ्या है। सत्ता का अर्थ उनके लिए क्या है? प्रधानमंत्री बनना और मुख्यमंत्री बनना। अपने-अपने मंत्रिमंडल खड़े करने। याने नौकरशाही पर कब्जा करना? जो कुछ करना नौकरशाही के जरिए करना। पार्टी तो सत्ता में आते ही पर्दे के पीछे चली जाती है। उसका काम है सिर्फ जय-जयकार करना। अपने नेताओं की हर बात पर मुहर लगाना। या फिर दलाली करना और पैसे बनाना। इसे क्या आप राजनीति कहेंगे? नेता और पार्टियां एक-दूसरे से सिर्फ इसीलिए भिड़ती हैं कि उनमें से नौकरशाहों की नौकरी किसे मिलेगी? सत्ता में आने का मतलब ही हो गया है नौकरशाहों की नौकरी करना। असली राजनीतिक कर्म तो गौण हो गया है। इसे ही मैं निकम्मापन कहता हूं।

(साभार: नया इंडिया)

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