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मुंबई से इन्दौर दुरंतो यात्रा का दुखांत अनुभव

मुंबई से इन्दौर की दुरंतो की रेल यात्रा की शुरुआत अंधेरी स्टेशन से की, 9 मई की रात को दस बजे अंधेरी स्टेशन पर अपनी 10 साल की बेटी के साथ पहुँचा तो रेल्वे के लोकल टिकट के सभी काउंटर बंद थे, लोकल से लेकर लंबी दूरी का टिकट खरीदने के लिए यात्री बदहवास से इधर-से उधर भटक रहे थे। एक तो बुकिंग काउंटर महीनों से दो मंजिल ऊपर बना दिए गए हैं और अगर आपके साथ सामान और छोटा बच्चा हो और वह भी रात की 10 बजे तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसे में एक यात्री की मनोदशा क्या होगी। ये तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि मेरे पास लोकल टिकट निकालने का एवीएम कार्ड था और मैने मुंबई सेंट्रल का टिकट निकाल लिया और मुंबई सेंट्रल इन्दौर की दुरंतो पकड़ने जा पहुँचा।
 
दुरंतो अपने ठीक समय रात्रि 11.15 पर रवाना हुई। मुझे बी-2 कोच में 18 और 19 (पीएनआर नंबर 8522642604 ) नंबर की बर्थ मिली थी। इस कोच को इस कदर ठंडा कर दिया गया था कि लोग कंबल और चादर वाले को खोजने लगे। रात को 12 बजे तक किसी अटेंडेट का कोई पता नहीं था, ऐसा कोई व्यक्ति पूरे कोच में नहीं दिखाई दे रहा था जिसे अटेंडेट या टीईई समझकर बात की जा सके। देर रात को टीटीई टिकट चैक करने आए, यात्रियों ने अटेंडेंट के बारे में और कंबल चद्दार के बारे में पूछा तो टीटीई ने कहा ये सब प्रायवेट लोगों के हाथ में है,  कहीं दारु पीकर पड़ा होगा। मैने टीटीई से शिकायत पुस्तिका माँगी तो उन्होंने कहा कि मेरी पेटी में रखी है, सबके टिकट चैक करके लाकर देता हूँ, मगर न शिकायत पुस्तिका आई न टीटीई महोदय आए।  इसके बाद उनींदे यात्रियों में देश भर की रेल्वे की हालत पर चर्चा होने लगी और बात रेल मंत्री पर आकर टिक गई। मुझे ये जानकर संतोष हुआ कि किसी इन यात्रियों का रेल मंत्री श्री सुरेश प्रभु को लेकर ज़बर्दस्त आशावाद था। मगर शिकायत करने की बात कहने पर सबका एक जवाब था –‘कुछ भी करो कोई सुनवाई नहीं होने वाली है।‘ जबकि मेरा हमेशा अनुभव रहा है कि देश में रेल्वे ही एक ऐसा विभाग है जहाँ शिकायत करने पर उसके बारे में पूछताछ की जाती है और ये भी सच है कि बाद में शिकायत की लीपापोती कर दी जाती है। नियमित आने जाने वाले यात्रियों का कहना था कि 'दुरंतो का नाम बड़ा, मगर दर्शन खोटा' जैसी हालत है।

इसी बीच कुछ यात्री एक गठ्ठर में से अपनी अपनी पसंद के चद्दर और कंबल निकालकर लाने लगे, क्योंकि उनका और उनके साथ की महिलाओं सहित बच्चों का और मेरी छोटी बच्ची का भी ठंड के मारे बुरा हाल था। जो लोग कंबल और चद्दर लेकर आए थे उनकी गंध से साफ लग रहा था कि इनकी धुलाई नहीं की गई है। यात्री तकिए भी खोज लाए थे और तकिए की हालत ऐसी थी मानो चूहों ने अपना पेट भरने के बाद यात्रियों और रेल्वे पर मेहरबानी करके कुछ हिस्सा छोड़ दिया ताकि लोग इसे तकिया समझकर काम में ले सके। इसी बीच एक यात्री ने बताया कि उसने रतलाम स्टेशन पर देखा है कि एक गाड़ी के चद्दर और कंबल का गठ्ठर निकालकर दूसरी गाड़ी में चढ़ा दिया, ये चद्दर और कंबल भी ऐसे ही दिखते हैं।
 
खैर, देर रात लगभग साढ़े 12 बजे नशे में धुत कोई अटेंडेंट आया जो कंबल, तकिए और चद्दर यात्रियों के मुँह पर ऐसे फेंक रहा था जैसे फुटपाथ पर बैठे लोगों को दान दे रहा हो, (दान देने वाले भी इतने अशिष्ट नहीं होते)।
 
देर रात को नींद खुली तो टॉयलेट की ओर गया तो देखा कि कोच के दोनों दरवाजे खुले थे और अटेंडेंट का पता नहीं था। टॉयलेट में लिक्विड सोप के डिब्बे की हालत ये थी कि उसमें हाथ डालकर साबुन निकालना पड़ा, उसका प्रेस बटन काम ही नहीं कर रहा था।
 
दूसरे दिन सुबह यात्रियों को नाश्ता दिया गया और नाश्ते की गुणवत्ता वैसी ही थी जैसी रेल्वे के खानपान की होती है, आईआरसीटीसी के टोल फ्री नं. 1800-111-139  पर इस नाश्ता की शिकायत करने के लिए कई बार कोशिश की मगर नंबर नहीं लगा तो नहीं लगा। नाश्ता के बाद पूरे कोच में गंदगी जैसी होना थी वैसी हो गई, नाश्ता बाँटने वालों से पूछा कि भई, कोच की सफाई होगी भी कि नहीं, उसका कहना था सके लिए अलग लोग हैं वो आपको दिखें तो उनको सफाई करने को कहना। टीटीई का कोई पता नहीं था, रात को टिकट चैक करने और कोच अटेंडेंट को भेजने का आश्वासन देकर वो साहब गायब थे।
 
दूसरे दिन दुरंतो 11.20 की बजाय दोपहर 1 बजे  इन्दौर पहुँची। ये तो थी दुरंतो की यात्रा की कहानी।
 
इसके बाद मुझे उज्जैन होकर मुंबई लौटना था। उज्जैन स्टेशन किसी जमाने में या यों कहें कि स्व. माधवरावजी सिंधिया के कार्यकाल में दिन में दो बार धोया जाता था। पूरे स्टेशन की साफ सफाई ऐसी होती थी कि बाहर आने वाला यात्री शहर की गंदगी देखने के बाद स्टेशन पर आकर यहाँ की सफाई देखकर हैरत में पड़ जाता था। मगर इस बार ये हाल था कि स्टेशन मास्टर के ऑफिस के ठीक बाहर प्लेटफार्म पर घूम रही गौमाता धार्मिक यात्रियों को सेवा का पुण्य प्रदान कर रही थी। लोग उसकी गर्दन में हाथ फेरकर अपनापन जता रहे थे।

स्टेशन के बाहर पूरे परिसर में गंदगी ऐसी थी मानो शहर का पूरा कूड़ा करकट स्टेशन परिसर में डाल दिया गया हो। कोई यात्री स्टेशन परिसर में घुस नहीं सके इसके लिए चारों तरफ ठेले, सामान वाले मोर्चा लेकर ऐसे खड़े थे कि स्टेशन की सीमा में प्रवेश करना ही ओलंपिक मैडल जीतने जैसा भाव पैदा करता था। आम यात्रियों के लिए बनी टिकट खिड़की पर इतनी भीड़ थी कि गाँव के बुजुर्ग और महिलाएँ लाईन में खड़े लोगों के आगे गिड़गिड़ा रहे थे कि हमारी टिकट ले लो नहीं तो गाड़ी निकल जाएगी। अगले साल उज्जैन में सिंहस्थ होने वाला है और रेल्वे 600 अतिरिक्त गाड़ियाँ चलाने वाला है और पाँच करोड़ लोगों के आने की संभावना है, क्या रेल्वे के अधिकारी अभी से सिंहस्थ की ऐसी तैयारी कर रहे है?
 
इस बात में कोई शक नहीं कि मोदीजी के स्वच्छता अभियान ने पूरे देश की सोच बदली है और लोग साफ सफाई के प्रति जागरुक हुए हैं, संयोग से देश को श्री सुरेश प्रभु के रूप में एक ऐसा रेल मंत्री मिला है जिसकी नेकनीयती पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। लेकिन जब तक रेल्वे में चलती गाड़ी में शिकायत करने पर अगले स्टेशन पर उसके समाधान का तरीका नहीं निकाला जाएगा, रेल्वे कर्मचारी यात्रियों की मजबूरी, लापरवाही और 'जाने दो किसी का कुछ नहीं होता' जैसी मानसिकता का बेजा लाभ उठाते रहेंगे।
 
क्या श्री सुरेश प्रभु रेल यात्रियों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सकते हैं कि यात्री शिकायत करने की हिम्मत करे और उसका समाधान करने के बाद उसे सूचित किया जाए। रेल्वे को फेसबुक या ट्विटर की तर्ज पर ऐसी वेबसाईट बनाना चाहिए जहाँ यात्री अपनी यात्रा के खट्टे मीठे अनुभव, टूटी खिड़कियों, फटे कंबलों, टूटे नलों, गंदगी  और नशे में धुत सो रहे रेल्वे कर्मचारियों के फोटो भेज सके। हमें ये भी सोचना है कि रेल्वे मात्र सरकार और रेल मंत्रालय की और रेल्वे कर्मचारियों की नहीं बल्कि हमारी भी है, हमारे जीवन की कई खुशियाँ रेल यात्रा के अनुभव से ही जुड़ी हैं और कई बार जीवन में जो बेहद यादगार पल आते हैं, कई मामलों में उनकी वजह रेल यात्रा ही होती है। इस देश में बुलेट और दूरंतो जैसी गाड़ियाँ खूब चलें मगर ऐसी सेवाएँ भी मिले कि यात्रा कष्ट की वजह से नहीं बल्कि सुकुन की वजह से यादगार बने।

(चित्र उन फटे तकियों में से एक का है जो यात्रियों को दिए जा रहे थे)