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स्वामी दयानंद के सत्य व अहिंसा के प्रयोग के रोचक व प्रेरक किस्से

भारतीय तथा पाश्चात्य महापुरुषों में एक मूलभूत अंतर रहा है| भारतीय महापुरुषों ने अपने जीवन की उन महत्वपूर्ण घटनाओं को सदा ही छुपाने का यत्न किया है| यहाँ तक कि अपनी जन्म तिथि तक इतिहास को नहीं बताई ताकि उनके जन्मदिन के नाम से कहीं भारतीय जन मानस उनका स्तुतिगान आरम्भ न कर दे| दूसरी और जब हम पश्चिमी महापुरुषों के जीवनों पर दृष्टि डालते हैं, तो हम पाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन की छोटी छोटी घटनाओं (जिनसे किसी को कुछ भी प्रेरणा मिलती हो) को संजो कर रखा है| वह चाहते थे कि उनका जीवन दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जावे, जबकि भारतीयों ने सदा वेद,उपनिषद्, दर्शन तथा ब्राहमण ग्रन्थों को ही प्रेरणा का स्रोत माना| इस कारण अपने जीवनों को तथा इस की छोटी बड़ी घटनाओं को तुच्छ मानते हुए इसे छुपाये रखा, इसे कुछ भी महत्त्व नहीं दिया| विदेश के कुछ लोगों ने तो अपने जीवन की छोटी सी घटना को भी अत्यधिक बढ़ा चढ़ा कर प्रकाशित किया है| वह इस में ही अपना गौरव मानते थे|

 

इस सब के विपरीत जब हम स्वामी दयानंद सरस्वती जी के जीवन पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं कि स्वामी जी ने अठारह अठारह घंटे की समाधि लगाकर, अभ्यास करके भी अपने लिए कभी कुछ भी पाने की इच्छा नहीं की| इस समाधि के माध्यम से भी जो कुछ भी पाने की कामना की, वह सब समाज की भलाई के लिए, समाज के हित के लिए तथा राज्य के सर्वोपरी हित के लिए किया, इनकी त्रुटियों को दूर करने के लिए किया|

 

जब स्वामी जी इस प्रकार के परोपकार के कार्य कर रहे थे तो उन्हें अनेक पेटपंथियों, थोथेश्वर पूजकों तथा विधर्मियों के कोप का भाजन भी बनना पड़ा, इन विरोधियों ने उन पर अनेक बार प्राण घातक आक्रमण किये| इन आक्रमणों में से कुछ आक्रमण तो अत्याधिक घातक थे| स्वामी दयानंद सरस्वती सच्चे अर्थों में संन्यासी थे| इतना ही नहीं वह पूर्ण सत्यवादी थे और अहिंसा को अपना परम धर्म भी मनाते थे| इसलिए स्वामी जी ने न तो कभी किसी भी आक्रमण कारी को दंड ही दिया और न ही उसे कभी पुलिस को ही सौंपा| अनेक बार आक्रमणकारी पकडे भी गए तो स्वामी जी ने यह कहते हुए उन्हें छुड़ा दिया कि “ मैं संसार को कैद करने नहीं, कैद से छुड़ाने आया हूँ|” यह तो स्वामी जी की एक बहुत बड़ी महानता की झलक मात्र ही थी| आओ हम इन पंक्तियों में स्वामी जी पर हुए कुछ इस प्रकार के ही प्राण घातक आक्रमणों में से कुछेक को जानें|

मैं मनुष्य को छुडाने आया हूँ…
स्वामी दयानंद सरस्वती अनूपशहर में वेद सन्देश देने के लिए निकले हुए थे| स्वामी जी के इस प्रचार से त्रस्त होकर किसी व्यक्ति ने स्वामी जी को एक पान खाने के लिये भेंट किया| इस पान में विष डाला हुआ था| पान स्वामी जी ने लिया और उसकी श्रद्धा को देखते हुए तत्काल मुख में डाल लिया| पान को मुख में रखते ही स्वामी जी को कुटिलता का पता चल गया| उन्होंने पान देने वाले को कुछ नहीं कहा, उसे वहीँ पर ही छोड़ कर गंगा की और चल दिए| वहां जाकर स्वामी जी ने न्योली क्रिया की और पान के सब विष को वमन करके बाहर निकाल दिया| इस बात का वहां के तहसीलदार को पता चला| तहसीलदार ने पान देने वाले उस दुष्ट को पकड लिया और उसे पकड़ कर स्वामी जी के सामने प्रस्तुत किया किन्तु स्वामी जी ने यह कहते हुए उसे छुड़वा दिया कि “मैं तो मनुष्यों को बंधवाने नहीं छुड़वाने आया हूँ|”

इस प्रकार की ही एक घटना काशी की मिलती है| यहाँ पर भी एक व्यक्ति स्वामी जी के प्रति अत्यधिक श्रद्धा दर्शाते हुए उनके भक्त का रूप धारण करके आया| उसने भी स्वामी जी को पान भेंट किया| ज्यों ही स्वामी जी ने पान उसके हाथ से पकड़ा और इसे खोलकर देखने लगे तो कपटी दुष्ट पकडे जाने के भय से भाग खडा हुआ क्योंकि इस पान में भी तीव्र विष डाला गया था|

बाबा डूब गया
स्वामी जी जहाँ भी जाते वहां सदा ही वैदिक धर्म का प्रचार कर इसे अपनाने के लिए जन जन को प्रेरित करते और अन्य मतावलम्बियों की कमियों को प्रकाशित करते हुए कहा करते थे यदि यह मतावलंबी अपने मत की इन कमियों को दूर कर लें तो वह शेष्ठ बन जावेंगे| इस प्रकार की ही एक घटना काशी की मिलती है| स्वामी जी अन्य मतावंबियों की कमियों की चर्चा करते समय इस्लाम की चर्चा कर रहे थे| इस चर्चा को कुछ मुसलमान भी सुन रहे थे| स्वामी जी इस चर्चा को समाप्त कर जब गंगा की और गए तथा गंगा किनारे समाधी अवस्था में बैठ गए| इस समय दो हट्टे कटे मुसलमान आये| उन्होंने स्वामी जी को मजबूती से पकड़ा और गंगा में फैंकने लगे किन्तु स्वामी जी ने अपने हाथों को बड़ी मजबूती से भींच लिया और गंगा में छलांग लगा दी| उन दोनों विधर्मियों को गंगा में कुछ गोते खिलाये और फिर बाहर लाकर छोड़ दिया और स्वयं एक बार फिर से गंगा में कूद गए| इतना होने पर भी वह दोनों दुष्ट बाहर आकर पत्थर उठा स्वामी जी के बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे ताकि वह स्वामी जी को पत्थरों से मार सकें| स्वामी जी उन दोनों की भावना को पहले से ही जानते थे| अत: स्वामी जी गंगा के अन्दर ही समाधि लगाकर बैठ गए| बहुत समय बीतने के बाद भी स्वामी जी जब गंगा से बाहर न आये तो यह दोनों विधर्मी गुंडे यह कहते हुए लौट गए कि “बाबा तो डूब गया है|”

यहाँ की ही एक अन्य घटना है| इस घटना के अनुसार एक लठैत स्वामी जी का पीछा कर रहा था| अकस्मात् स्वामी जी ने उसकी और देखते हुए हुंकार की| स्वामी जी की हुंकार मात्र से ही भयभीत वह लठैत भाग खडा हुआ। इस प्रकार की ही एक अन्य घटना सोरो की भी मिलती है| यहाँ पर हुए शास्त्रार्थ में स्वामी जी से पराजित एक चाक्रांकित क्रोध से कांपते हुए स्वामी जी को मारने के लिए आया| वह सोते हुए व्यक्ति को पहचान न पाया और एक अन्य साधु को सोते हुए खाट सहित उठा कर गंगा में फैंक दिया|

सोरों की ही एक अन्य घटना है| इसके अनुसार स्वामी जी की चल रही सभा में अकस्मात् एक लठैत आकर जोर से बोला तुम ठाकुर का खंडन करते हो, इसलिए बताओ तुम्हें यह लट्ठ कहाँ पर मारूं| स्वामी जी ने उसे घूरते हुए प्रत्युत्तर दिया, खंडन करने का दोष तो मेरे सिर का है, इसी को ही मारो| इस उत्तर को सुनकर श्रोता लोग अवाक् से रह गए| इसके साथ ही यह उत्तर सुनकर दुष्ट के अन्दर की दुष्टता धुल गई तथा वह रोने लगा स्वामी जी ने उसे क्षमा करते हए कहा “ भगवान तुम्हें सत्य मार्ग पर लाये|”

विगत अनुभवों के अनुसार ही जब स्वामी जी मिर्जापुर में सभा कर रहे थे तो दो लठैत सभा स्थल पर आ धमके और गड़बड़ करने लगे| इस पर स्वामी जी ने एक जोरदार हुंकार की| इस हुंकार को सुनते ही दोनों लठैत गुंडे बेहोश होकर गिर गए| दोनों का मल भी निकल गया| स्वामी जी नेप्रथम उपचार कर उन्हें होश में लाये और उन्हें होश आने पर स्वामी जी ने कहा कि “संन्यासी लोग कभी किसी को मारा पीटा नहीं करते|” इसलिए डरो नहीं| उठो कपडे संभाल कर निर्भयता से चले जाओ|

इस स्थान की ही एक अन्य घटना भी सामने आती है| एक सेठ के सहयोग से स्वामी जी को समाप्त करने का पुनश्चरण आरम्भ किया गया| ज्योंही कार्य बढ़ता गया सेठ जी के शरीर पर एक फोड़ा निकल आया और यह तेजी से बढ़ने लगा| अंत में सेठ जी ने पुनश्चरण को बंद करवाने के लिए कहा| वह समझते थे कि जब तक दयानंद का सिर कटेगा, उससे पहले तो मैं ही इस फोड़े के कारण कट जाउंगा|

यहीं पर ही एक अन्य घटना भी सामने आती है| अक भयानक प्रकृति का व्यक्ति एक सौ गुंडों के साथ स्वामी जी की सभा के स्थल पर आया और गड़बड़ करने लगा| स्वामी जी ने बड़ी दृढ़ता से कहा कि इस हाल के सब दरवाजे बंद करा दो, मैं अकेला ही इन सब से निपट लूंगा| यह सुनते ही भयभीत होकर वह व्यक्ति सीधा होकर बैठ गया|

कर्णवास में स्वामी जी एक सभा में बोल रहे थे| अकस्मात् बरौली के राव कर्णवास आकर स्वामी जी को गालियाँ देने लगे| गालियाँ देने के साथ ही साथ, वह तलवार भी घुमाने लगे| उसकी इस अवस्था को देखकर स्वामी जी ने उसे कहा की अगर शास्त्रार्थ करना है तो अपने गुरु रंगाचारी को बुला लो,यदि शस्त्रार्थ करना है तो जयपुर जोधपुर(के राजाओं)से जाकर भिडो किन्तु वह नहीं माना तो स्वामी जी ने उसके हाथ से तलवार छीन कर दो टुकडे कर दिए|

यहाँ जिस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर स्वामी जी प्रचार कर रहे थे, उसे जड़ सहित निकाल कर यहाँ भूगर्भ में एक कमरा बनाया गया है और इस मैदान में स्वामी जी की स्मृति में एक ओषधालय चल रहा है| मैं जब १९९२ में अलीगढ युनिवर्सिटी में रेफ्रेशर कोर्स करने गया था तो इस स्थान को भी देखने के लिए दो बार गया था|

बरेली में भी स्वामी जी ने एक सभा में ईसाई मत की कमियाँ सब के सामने रखीं| ईसाईयों की इस आलोचना को सुनकर वहाँ का कलेक्टर कुपित हो उठा| उन्होंने स्वामी जी के व्याख्यान बंद करवाने की धमकी तत्काल दे डाली| इसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा, “लोग कहते हैं सत्य का प्रकाश न कीजिए क्योंकि कलेक्टर कुपित हो जावेगा….चाहे चक्रवर्ती राजा भी क्यों न अप्रसन्न हो जावे, हम तो सत्य ही कहेंगे…..|” इस दिन रविवार होने के कारण स्काट साहिब गिरजा गए थे, इस पर स्वामी जी भी गिरजा चले गए| स्वामी जी को देखकर स्काट इन्हें मंच पर ले गए, जहाँ स्वामी जी ने एक घंटा तक व्याख्यान दिया|

फर्रुखाबाद में कुछ गुंडे स्वामी जी को हानि पहुंचाने स्वामी जी की सभा में आये किन्तु मात्र स्वामी जी के चेहरे पर अदभुत तेज देखते ही वहां से भाग खड़े हुए| जब सुरक्षा की दृष्टि से स्वामी जी को अन्दर रहने को कहा गया तो स्वामी जी से उत्तर मिला “ मेरी रक्षा तो सर्वत्र परमात्मा ही करते हैं|” इसी स्थान की ही एक अन्य घटना है| स्वामी जी एक सभा में अपना व्याख्यान दे रहे थे| अकस्मात् सभा में आये एक शराबी ने स्वामी जी पर जूता फैंक दिया| इस पर उपस्थित लोग उस शराबी को पकड़ने लगे किन्तु स्वामी जी ने यह कहते हुए उसे छुड़वा दिया कि जूता तो हमें लगा ही नहीं, फिर यह भी नशे के कारण होश में नहीं है, इसलिए इसे छोड़ देना ही उत्तम रहेगा|

यहाँ की ही एक अन्य घटना भी सामने आती है| स्वामी जी की सभा चल रही थी| इस सभा में एक लठैत ने आकर स्वामी जी से पूछा तुम ईश्वर को नहीं मानते हो? इस पर स्वामी जी ने उससे ईश्वर का स्वरूप पूछा तो उसने ईश्वर को निराकार ही बताया| तो स्वमी जी ने कहा कि तो इसमें मूर्ति पूजा कहाँ से आ गई? स्वामी जी के इतने से उत्तर से वह भी सत्य का पुजारी बनते हुए स्वामी जी का अनुगामी बन गया|

यहाँ की ही एक अन्य घटना भी मिलती है| स्वामी जी भ्रमण कर रहे थे कि एक व्यक्ति ने आकर स्वामी जी को गालियाँ देना आरम्भ कर दिया| इतना ही नहीं वह व्यक्ति स्वामी जी को परेशान करने के लिए उनके निवास पर भी आ धमाका| इस पर स्वामी जी ने हंसते हुए उस दुष्ट व्यक्ति का स्वागत् किया| स्वामी जी के इस वयवहार से उस व्यक्ति की दुष्टता भाग गई तथा अपनी भूल के लिए पश्चाताप करने लगा|

स्वामी जी अमृतसर में व्याख्यान दे रहे थे कि एक अध्यापक के आदेश से उसके नन्हे छात्र स्वामी जी पर कंकर फैंकने लगे| जब वह पकडे गए तो उन बच्चों ने रोते हुए कहा कि उन्हें ऐसा करने के लिए अध्यापक ने कहा था| अध्यापक ने कहा था कि यदि तुम इस साधू को पत्थर मारोगे तो मैं तुम्हें लड्डू दूंगा| स्वामी जी ने उन बच्चों को लड्डू देते हुए कहा की “अध्यापाक तो संभव है न दे सके, लो मैं तुम्हें दिए देता हूँ|”

अमृतसर में ही स्वामी जी का एक शाश्त्रार्थ निर्धारित हुआ किन्तु इसके लिए विरोधी बहुत देर से आये तथा आते ही शास्त्रार्थ करने के स्थान पर ईंटें बरसाने लगे| पुलिस तो भयभीत होकर वहां से भाग खडी हुई किन्तु ऋषि भक्तों का क्रोध शांत न हुआ| इसे देखते हुए स्वामी जी ने कहा कि “हमारा काम ईंटें खाने का है….यही लोग कभी आप पर पुष्प वर्षा करेंगे|”

यहाँ की ही एक अन्य घटना है| कुछ लोग दुष्टों से स्वामी जी को बचाने के लिए उनके रक्षक बनकर स्वामी जी के पास ही सोने लगे| जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि निहंगों से उनकी रक्षार्थ यह सब लोग उनके पास सो रहे हैं तो स्वामी जी ने उन्हें रोकते हुए कहा कि हम अकेले ही रहेंगे| जिस की आज्ञा का मैं पालन कर रहा हूँ वही परमेश्वर मेरा रक्षक है|

वजीराबाद के शास्त्रार्थ में झगड़े को तैयार होकर आये कुछ लोगों ने आते ही स्वामी जी पर इंटों की वर्षा आरम्भ कर दी| इस पर स्वामी जी कमरे के अन्दर चले गए और दरवाजा अन्दर से बंद कर दिया तथा हंसने लगे| इस सब व्यवस्था के समय स्वामी जी का एक सेवक बाहर रह गया| जब स्वामी जी को पता चला कि सेवक बाहर पिट रहा है तो स्वामी जी ने दरवाजा खोलकर जोर से हुंकार की| इस हुंकार से दुष्ट इतने भयभीत हो गए कि तत्काल भाग गए|

मुम्बई में कुछ लोग स्वामी जी की ह्त्या करना चाहते थे| इसके लिए लालच देकर उन्होंने स्वामी जी के सेवक को अपने साथ कर लिया| स्वामी जी इस दुष्कार्य को भांप गए| इस पर स्वामी जी ने उस सेवक से पूछताछ की तो सेवक ने सब कुछ उगल दिया| इस पर स्वामी जी ने उसे कहा, “जिसे परमेश्वर न मारे उसे मारने के लिए कोई समर्थ नहीं हो सकता| बनारस में मुझे हलाहल विष दिया गया, राव कर्ण सिंह ने पान में विष दिलवाया, अन्य भी अनेक स्थानों पर विष के विषम प्रयोग किये गए, परन्तु मेरा प्राणांत नहीं हुआ| स्मरण रखो, अब भी मैं मारा नहीं जाउंगा|”

मुंबई के कुछ पन्थाइयों के आग्रह पर स्वामी जी के वध के लिए प्रात: भ्रमण का समय चुना गया तथा इसके लिए प्रात:काल चार गुंडे स्वामी जी का पीछा करने लगे| स्वामी जी यह सब भांप गए और मुडकर उनसे कहा, “तुम मेरा हनन करना चाहते हो?” स्वामी जी के इतना कहते ही गुंडे भयभीत हो गए तथा उन्होंने स्वामी जी का पीछा करना बंद कर दिया|

सूरत में स्वामी जी के व्याख्यान में एक व्यक्ति ने स्वामी जी से कुछ प्रश्न किये किन्तु वह स्वामी जी के उत्तर सुनने पर ऐसा लगा कि वह स्वामी जी के सामने टिक नहीं पा रहा था| इस पर उस प्रश्नकर्ता व्यक्ति के साथी स्वामी जी पर पत्थर फैंकने लगे| इस पर स्वामी जी के भक्तों ने कुछ समय के लिए स्वामी जी से व्याख्यान रोकने का आग्रह किया| स्वामी जी बोले, “ अपने भाइयों द्वारा फैंके पत्थर मेरे लिए पुष्पों की वर्षा है ये तो हमारे भाई हैं|”

भरुच में स्वामी जी के व्याख्यान चल रहे थे कि एक दक्षिणी पंडित वहां आकर स्वामी जी को इंगित करते हुए अपशब्द बोलने लगा| इस पर उपस्थित श्रोता भड़क उठे| इस सब को देखकर स्वामी जी ने कहा, “ ये तो हमारे भाई हैं,इन्हीं की कल्याण कामना करते हुए दिन बीतते हैं|”

यहीं की ही एक अन्य घटना है| यहाँ पार्सी से ईसाई हुए एक व्यक्ति ने स्वामी जी की उपस्थिति में स्वामी जी के लिए अपशब्द बोलने आरम्भ कर दिए| उसकी इस हरकत से उपस्थित लोग भड़क उठे| इस पर स्वामी जी ने कहा, “आग में आग डालने से आग शांत नहीं होती, वैसे ही द्वेष बुद्धि उसके साथ द्वेष करने से दूर नहीं हो सकती |”

पूना प्रवाचन के समापन पर स्वामी जी की हाथी पर शोभा यात्रा निकल रही थी| उपद्रवकारियों ने यह अवसर भी हाथ से न जाने दिया और उन्होंने एक व्यक्ति का मुंह काला करके उसे दयानंद कहते हुए गधे पर बैठाकर, उसका जुलूस निकालते हुए, उसे गालियाँ देते तथा उस पर पत्थर आदि फैंक रहे थे| ऋषि भक्त इसे सहन न कर सके और उन्होंने यह सब कुछ स्वामी जी को बताया| इस पर स्वामी जी ने कहा, “अच्छा है गालियों से पेट खाली हो लेगा, सच्चे दयानन्द को तो कालिमा नहीं लगी| हाँ, बनावटी का मुख काला होना ही चाहिए, कल पत्थर पूजते थे आज पत्थर फैंकते हैं| सो मेरी बात मान ली, मैं भी तो यही कहता हूँ कि जन्म से सब नीच हैं| जिसने पढ़ा पढ़ाया, वह ब्राहमण हो गया, जो धर्म के लिए युद्ध में लड़ा वह क्षत्रिय हो गया, जिसने व्यापार पशुपालन या कृषि की वह वैश्य हुआ नहीं तो शुद्र| मैंने ब्राहमण के यहाँ जन्म लिया था| ब्राह्मण के पुत्र को नीच माना तो मेरे ही सिद्धांत पर आये, मुझे तो यह बात सुनकर अत्यंत प्रसन्ता हुई|

एक बार स्वामी जी बंगाल के किसी स्थान पर व्याख्यान दे रहे थे कि इस मध्य किसी ने स्वामी जी पर सांप फैंक दिया| स्वामी जी ने इस विषधर को पैर से कुचल दिया|

शाहजहाँ पुर के चांदापुर में शाक्त लोगों ने स्वामी जी की बलि देवी को देने का प्रयास किया किन्तु स्वामी जी ने पुजारी से तलवार छीन ली और मंदिर से बाहर आ गए| एक बार कुछ साधुओं ने रात्रि के समय स्वामी जी की कुटिया को आग लगा दी| किन्तु स्वामी जी इस आग में से भी जीवित बाहर निकल आये|

जब जयपुर राज्य ने स्वामी जी को हानि पहुंचाने की सोची तो एक कर्मचारी के आग्रह पर स्वामी जी ने उसे कहा, “आप लोग मेरी चिंता मत करो आप राज कर्मचारी हैं अत: मेरे पास न आया करो ताकि आपकी हानि न हो|”

जोधपुर राज दरबार में जब स्वामी जी गए तो वहां दरबार में वैश्या उपस्थित थी| स्वामी जी ने इस पर राजा को अच्छी लताड़ लगाईं तथा वापिस लौट कर उसे एक पत्र भी लिखा| इस वैश्या की दरबार में अच्छी साख थी, वह अपमान का बदला लेना चाहती थी| अब उस वैश्या के साथ अनेक दुष्ट भी मिल गए| उन्होंने रसोइये घूड मिश्र को (यहाँ जान लें कि स्वामी जी को विष देने वाले रसोइये का जो प्रचलित नाम जगन्नाथ चला आ रहा है, वह गलत है|) भी पटा लिया और उसके माध्यम से दूध में विष(राजस्थान में विष को कांच कहते हैं) मिलवा कर स्वामी जी को दिलवा दिया| यही विष ही अंत में स्वामी जी के बलिदान का कारण बना|

स्वामी जी को इस विष देने की घटना को आर्य समाज के कुछ विद्वान् नकारने लगे हैं| इस सन्दर्भ में कुछ लोग तो अपने आप को इस क्षेत्र से सम्बंधित होने का राग अलापते हुए कहने लगे कि उन्होंने सरकारी रिकार्ड देखा है| वास्तव में उनका यह दावा सत्य से कोसों दूर है| उनमें से किसी ने भी यह उस समय का सरकारी रिकार्ड नहीं देखा| मैं डी ऐ वी कालेज अबोहर में कार्यरत था| उन दिनों प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु जी भी अबोहर में ही कार्यरत थे| उनके पत्र भारी संख्या में आते रहते थे| जब वह कहीं बाहर गये होते थे तो उनके पत्रों को देखकर मैं कुछ साधारण पत्रों के उत्तर दे दिया करता था|

इन्हीं दिनों जोधपुर से भैरव सिंह जी ( आर्य समाज गुलाब सागर जोधपुर) के अनेक पत्र जिज्ञासु जी के नाम से आये| इन सब पत्रों का उत्तर मैंने उनको दिया| इस कारण भैरव सिंह जी मुझे जिज्ञासु जी का पुत्र समझने लगे| उन्हीं के आग्रह पर मैं आर्य युवक समाज अबोहर का साहित्य लेकर इसके विक्रयार्थ मेरठ आर्य महासम्मलेन मेरठ में गया| यह सम्मलेन सन् १९७२ के लगभग हुआ था| भैरव सिंह जी यहाँ जोधपुर राज्य का वह सब रिकार्ड( उसकी नकलें) जो स्वामी जी से सम्बंधित था, साथ लाये थे| वह सारा रियासती रिकार्ड मुझे दिखाया और बताया तथा इसे महीनता से समझाते हुए कहा कि इसे (आपके पिता जी के अतिरिक्त कोई नहीं समझ सकता|) मैंने यहाँ पर उन्हें बताया कि जिज्ञासु जी मेरे पिता नहीं साथी हैं| यहाँ पर उन्होंने मुझे स्वामी जी को विष देने के दस्तावेज भी दिखाए| इस सब के आधार पर मैं दावे के साथ कहता हूँ कि स्वामी जी को जोधपुर में भयंकर विष दिया गया था| यह विष दिलवाने वाली वही वैश्या ही थी जो राज दरबार में स्वामी जी ने देखी थी| उस वैश्या का नाम नन्हीं ही था| अत; यह कहने का कुछ भी तात्पर्य नहीं रह जाता कि वह वैश्या नहीं थी या उसका नाम नन्हीं नहीं था या फिर उस वैश्या ने विष दिलवाया ही नहीं|

यदि ऐसा कहते हैं तो इसका यह प्रयास तत्कालीन जोधपुर राज्य के वर्तामान उत्तराधिकारियों को, उनके परिवार के वर्त्तमान के लोगों को जोधपुर पर लगे कलंक को मिटाने का एक प्रयास मात्र ही कहा जा सकता है, जिसके लिए यह परिवार उन्हें कुछ धन देता है, ऐसा हो सकता है| इसके अतिरिक्त अन्य कोई प्रयोजन नहीं| यहाँ एक बात और लिखना चाहूँगा कि भैरव सिंह जी ने भरसक प्रयत्न किये कि वह इस सन्दर्भ में हमारे जिज्ञासु जी से एक बार मिल लें और सम्बंधित सब रिकार्ड उन्हें सौंप दें किन्तु पहले चाहे वह उन्हें कितनी बार भी मिले हों तो भी इस सन्दर्भ में अपनी यह अभिलाषा मन में ही संजोये इस जगत् से विदा हो गए और जिज्ञासु जी को नहीं मिल पाए| हां! जाने से पहले यह सब कुछ मुझे दिखाकर आर्य जगत् को यह विश्वास अवश्य दे गए कि कोई भी इस कपट पूर्ण व्याख्यान का विरोध कर सत्य को जन जन तक ला सकें| मैं आपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि स्वामी जी से सम्बंधित जोधपुर रियासत का रिकार्ड देखने वाला इस समय कोई जीवित है तो वह एकमात्र मैं ही हूँ|

सो आज मैंने उनकी यह अंतिम अभिलाषा इस लेख की अंतिम पंक्तियों में पूर्ण करने का प्रयास करते हुए एक बार फिर यह बात कहता हूँ कि स्वामी जी को जो जीवन में अनेक बार मारने की असफल चेष्टाएँ की गईं किन्तु अंत में जोधपुर में नन्ही वैश्या ने स्वामी जी के रसोइये को(यह रसोइया शाहपुर नरेश ने स्वामी जी के जोधपुर जाते समय साथ में दिया था) अपने साथ मिलाकर जो विष दिलाया, वही विष ही स्वामी जी के बलिदान का कारण बना| विष दिलवाने वाली दरबारी वैश्या थी, उसका नाम नन्ही था तथा उसी ने रसोइये घूड मिश्र (जिसे इतिहास में आज जगन्नाथ कहा जाता है) से विष दिलवाया| विष देने वाले रसोइये का नाम घूड मिश्र ही था| आर्य समाज तथा जोधापुर के इतिहास की यह एक सत्य घटना है| लाख प्रयास करने पर भी इसे झुठलाया नहीं जा सकता| जो इसे झुठलाने का प्रयास करते हैं, वह कलुषित मानसिकता वाले स्वार्थी लोग ही हो सकते हैं|

डॉ. अशोक आर्य
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