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स्वयं के अस्तित्व से परिचय

तुमने कभी अपने शरीर को अनुभव नहीं किया। तुम्हारे हाथ हैं, लेकिन तुमने उन्हें भी कभी अनुभव नहीं किया। तुमने कभी नहीं जाना कि हाथ क्या कहते हैं, वे सतत तुम्हें क्या क्या सूचनाएं देते रहते हैं। हाथ कभी भारी और उदास होता है और कभी हलका और प्रफुल्लित। कभी उसमें रसधार बहती है और कभी सब कुछ मुर्दा मुर्दा हो जाता है। कभी तुम उसे जीवंत और नृत्य करते हुए पाते हो और कभी ऐसा लगता है कि उसमें जीवन नहीं है, वह जड़ और मृत है, तुमसे लटका है, लेकिन जीवित नहीं है।

जब तुम अपने होने को अनुभव करोगे तो तुम अपने हाथों की, नाक की, शरीर की भाव दशा से परिचित होगे। यह बहुत बड़ी बात है। उसमें बहुत सूक्ष्म भेद हैं। शरीर सतत तुमसे कुछ कह रहा है, लेकिन तुम उसे सुनने को मौजूद ही नहीं होते हो। और तुम्हारे चारों ओर का अस्तित्व निरंतर सूक्ष्म ढंगों से, अनेक अनेक ढंगों, भिन्न भिन्न ढंगों से तुममें प्रवेश कर रहा है, लेकिन तुम बेहोश हो, तुम उसके स्वागत के लिए वहां मौजूद नहीं हो।

जब तुम अपने अस्तित्व को अनुभव करने लगते हो तो सारा जगत तुम्हारे लिए सर्वथा नए रूप में जीवंत हो उठता है। अब तुम उसी सड़क से गुजरते हो जिससे रोज गुजरते थे, लेकिन अब वह सडक वही सड़क नहीं है, क्योंकि अब तुम अस्तित्व में केंद्रित हो। तुम उन्हीं मित्रों से मिलते हो जिनसे सदा मिलते थे, लेकिन अब वे वही नहीं हैं, क्योंकि तुम बदल गए हो। तुम अपने घर वापस आते हो तो जिस पत्नी के साथ वर्षों से रहते आए हो उसे भी सर्वथा भिन्न पाते हो। वह भी वही नहीं रही।

अब तुम अपने होने के प्रति बोधपूर्ण हो और तुम दूसरों के होने के प्रति भी बोधपूर्ण हो। जब पत्नी क्रोध करती है तो अब तुम उसके क्रोध का भी आनंद ले सकते हो, क्योंकि अब तुम समझ सकते हो कि क्या हो रहा है। और अगर तुम क्रोध को देख सके तो शायद क्रोध क्रोध न मालूम हो, वह प्रेम लग सकता है। अगर तुम उसे गहराई में अनुभव कर सके तो क्रोध बताएगा कि पत्नी अभी भी तुम्हें प्रेम करती है। अन्यथा वह क्रोध नहीं करती, वह चिंता ही नहीं लेती। वह अभी भी पूरे दिन तुम्हारी राह देखती है। वह क्रोधित है, क्योंकि वह तुम्हें प्रेम करती है। वह तुमसे उदासीन और विरक्त नहीं है।

स्मरण रहे, प्रेम का विपरीत क्रोध या घृणा नहीं है, उसका असली विपरीत उदासीनता है। यदि कोई तुमसे उदासीन है तो उसका अर्थ है कि प्रेम खो गया। अगर कोई व्यक्ति तुम्हारे प्रति क्रोध करने को भी राजी नहीं है तो समझो कि सब कुछ समाप्त हो गया।

लेकिन सामान्यत: जब तुम्हारी पत्नी क्रोध करती है तो तुम उससे भी ज्यादा उग्र प्रतिक्रिया करते हो, तुम आक्रामक हो जाते हो। तुम उसके क्रोध का मतलब नहीं समझे, क्योंकि अभी तुम अपने में केंद्रित नहीं हो, तुम स्वस्थ नहीं हो। तुमने अपने ही क्रोध को उसके यथार्थ में नहीं जाना है, यही कारण है कि तुम दूसरों के क्रोध को नहीं समझ सकते। अगर तुम अपने क्रोध को जान सके, अगर तुम उसे उसकी समग्र भावदशा में अनुभव कर सके, तो तुम दूसरों के क्रोध को भी जान लोगे। तुम किसी पर तभी क्रोध करते हो जब तुम उसको प्रेम करते हो। अन्यथा क्रोध करने की कोई जरूरत नहीं है। क्रोध के द्वारा पत्नी तुमसे कह रही है कि मैं अभी भी तुम्हें प्रेम करती हूं, मैं तुमसे उदासीन नहीं हूं। पत्नी तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही, प्रतीक्षा करती रही, और अब वही प्रतीक्षा क्रोध बन गई है।

शायद वह यह बात सीधे सीधे न कहे, क्योंकि भाव की भाषा सीधी नहीं है। और यही आज की सबसे बड़ी समस्या बन गई है। कारण यह है कि तुम भाव की भाषा नहीं समझ सकते, क्योंकि तुम अपने भावों से ही परिचित नहीं हो। तुम अपने होने में स्थित नहीं हो, तुम केंद्रित नहीं हो। तुम केवल शब्दों को समझ सकते हो; तुम भावों को नहीं समझ सकते। भावों की अभिव्यक्ति के अपने ढंग हैं और वे ज्यादा बुनियादी हैं, ज्यादा यथार्थ हैं।

जब तुम अपने अस्तित्व से परिचित होओगे तो तुम दूसरों के अस्तित्व के प्रति भी जागरूक होओगे। और प्रत्येक व्यक्ति इतना रहस्यपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति अथाह सागर जैसा है जिसे जानना है। प्रत्येक व्यक्ति की अनंत संभावना है जिसमें प्रवेश करना है और जिसे जानना है। और प्रत्येक व्यक्ति प्रतीक्षा में है कि कोई उसके हृदय में प्रवेश करे, उसमें गहरे उतरे और उसे अनुभव करे, उसे जाने। लेकिन क्योंकि तुमने अपने हृदय को ही नहीं जाना है, तुम किसी के हृदय में प्रवेश नहीं कर सकते। जब निकटतम हृदय ही नहीं जाना गया है तो तुम दूसरों के हृदयों को कैसे जान सकते हो?

तंत्र सूत्र -ओशो से साभार