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जैन समाज के लौह पुरुषः सेठ अमरचंद बाँठिया, जिन्हें अँग्रेजों ने तीन बार फाँसी दी

बीकानेर आरम्भ से ही वीर प्रस्विनी भूमि राजस्थान का मुख्य भाग रहा है| यहाँ के ही निवासी सेठ अमरचंद बाँठिया के यहाँ जो संतान हुई, उसका नाम अबीरचंद बाँठिया रखा गया|

अभी वह छोटे ही थे कि उनके पिता व्यापार के लिए ग्वालियर जा बसे| पुत्र का साथ जाना आवश्यक था| अत: अबीरचंद जी भी पिता के साथ ही ग्वालियर में जाकर रहने लगे| अबीरचन्द जी के पिता जैन मत के अनुगामी थे, इस कारण उन्होंने अपने व्यापार में इतना परिश्रम किया, इसमें इमानदारी को कभी हाथ से जाने न दिया| अपनी सज्जनता का भी पूरा परिचय दिया| इन सब कारणों से अबिरचंद जी तथा उनके परिवार को इतनी प्रतिष्ठा मिली कि इस प्रतिष्ठा के कारण ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि प्रदान करते हुए राजघराने के ही समान अपने पैरों में सोने के कड़े पहनने का अधिकार भी दे दिया| ग्वालियरका राजा इतना सम्मान देकर ही संतुष्ट न हुआ अपितु कुछ काल पश्चात् उन्हें अपने राज्य के राजकोष का प्रभारी भी नियुक्त कर दिया|

अमरचन्द जी स्वभाव से ही बड़े धर्मप्रेमी व्यक्ति थे। अपने इस धार्मिक स्वभाव के कारण वह धार्मिक सत्संगों में जाते ही रहते थे| सन् 1855 ईस्वी में उन्होंने चातुर्मास के दिनों में ग्वालियर पधारे जैन सन्त बुद्धि विजय जी के प्रवचन सुने। इन्हीं सन्त महाराज के प्रवचन वह इससे पूर्व सन् 1854 ईस्वी में अजमेर में भी सुन चुके थे। इन प्रवचनों को सुनने का यह परिणाम हुआ कि वे विदेशी और विधर्मी राज्य के विरुद्ध डटकर खड़े हो गये। सन् 1857 ईस्वी के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन में उन्होंने बढ़चढ़ कर भाग लिया तथा जब अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सेना और क्रान्तिकारी ग्वालियर में सक्रिय हुए, तो सेठ जी ने स्वयं को भामाशाह के प्रतिरूप में प्रस्तुत किया तथा न केवल राजकोष के समस्त धन को ही अपितु इसके साथ ही साथ अपनी पैतृक सम्पत्ति को भी देश कि स्वाधीनता के लिए उन्हें सौंप दिया।

अमरचंद जी कहा करते थे कि राजकोष का सब धन संग्रह सदा जनता से ही होता है, इसलिए जनता के हित के लिए इस धन को जनहित में देश को अथवा देश को स्वाधीन करवाने का प्रयास कर रहे स्वाधीनता सेनानियों को देना अपराध नहीं है| जहाँ तक निजी सम्पत्ति का प्रश्न था, वह उनकी अपनी मेहनत से कमाई गई थी, उसके प्रयोग का अधिकार भी उनका निज का ही था | अत: अपनी निजी सम्पत्ति होने के कारण, वे चाहे जिसे दें, इस पर किसी की कोई रोकटोक या आपत्ति का अधिआकर नहीं है| अत: यह संपत्ति भी उन्होंने देश के लिए न्योछावर कर दी| उनका यह दान अंग्रेज को कहाँ सहन हो सकता था? अत: अंग्रेजों ने इन्हें राजद्रोही घोषित कर उनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया। ग्वालियर राजघराना भी उस समय अंग्रेजों का ही साथ दे रहा था।

अपने विरुद्ध वारंट जारी होने का समाचार सुनते ही अमरचन्द जी भूमिगत होकर क्रान्तिकारियों का सहयोग करते रहे| इसी बीच एक दिन दुर्भाग्य से वे शासन के हत्थे चढ़ गये| उन्हें हिरासत में ले लिया गया| अब उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। अनेक प्रकार की सुख-सुविधाओं में पले सेठ अमर चंद जी को वहाँ दारुण यातनाएँ दी गयीं। यथा उन्हें मुर्गा बनाना, पेड़ से उल्टा लटका कर चाबुकों से मारना, हाथ पैर बाँधकर चारों ओर से खींचना, लोहे के जूतों से मारना, मूत्र पिलाना आदि अमानवीय यातनाएं प्रमुख थीं| अंग्रेज चाहते थे कि वे क्षमा माँग लें; किन्तु देश के लिए मर मिटने के लिए सब सुखों को त्याग चुके सेठ अमरचंद जी क्षमा के लिए तैयार कैसे हो सकते थे? अत: उन्होंने क्षमा माँगने के स्थान पर स्वयं को भारत माता की भेट चढ़ाना उत्तम समझा| उनके इस निर्णय से कुपित अंग्रेजों ने उनके आठ वर्षीय निरपराध पुत्र को भी पकड़ लिया।

पिता के लिए पुत्र एक कमजोर कड़ी माना जाता है| इस कमजोर कड़ी का ही प्रयोग करते हुए अंग्रेजों ने धमकी दी कि यदि तुमने क्षमा नहीं माँगी, तो तुम्हारे पुत्र की हत्या कर दी जाएगी। अमर चंद जी के लिए यह बहुत कठिन घड़ी थी; परन्तु सेठ जी इस धमकी से भी उस प्रकार ही विचलित न हुए जिसप्रकार बन्दा वीर वैरागी अपने बच्चे के बलिदान पर विचलित न उए थे| अपनी क्रूरता के लिए प्रसिद्ध अंग्रेज ने निरपराध बालक(अमरचंद के पुत्र) को तोप के मुँह पर बाँधकर गोला दाग दिया। बच्चे का शरीर चिथड़े-चिथड़े होक्रर हवा में फ़ैल गया। फिर भी जब नगर सेठ अमरचंद जी विचलित न हुए तथा अपने हठ को न छोड़ा तो सेठ जी के लिए फांसी कि तिथि निश्चित कर दी गई| अत: 22 जून, 1858 ईस्वी को उन्हें भी फाँसी पर लटकाने की घोषणा कर दी गई| अंग्रेज इस फांसी के कृत्य को करते हुए नगर तथा ग्रामीण लोगों को भी भयभीत करना चाहता था| इसलिए नगर तथा संलग्न देहातों के ग्रामीण लोगों के सामने सर्राफा बाजार में ही उन्हें फांसी देने की सार्वजनिक घोषणा की गई|

कुछ ही दिनों में फांसी के लिए निर्धारित 22 जून भी आ गया। सेठ जी तो दिल के भी सेठ ही थे, इस कारण उन्हें अपने शरीर का कोई मोह नहीं रह गया था। फांसी के फंदे पर जाते समय जब उनसे अन्तिम इच्छा के लिए पूछा गया तो उन्होंने अपने धर्म के अनुसार नवकार मन्त्र जपने की इच्छा व्यक्त की। उन्हें इसकी अनुमति दे दी गयी; जो उन्होंने बड़ी श्रद्धा भावना से पूर्ण की| देश भक्तों की सहायता करने वाले के लिए परमात्मा सदा ही साथ आ जाता है| इनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ| इनको परमात्मा की व्यवस्था के कारण एक बार नहीं तीन बार फांसी पर लताकायागआया| प्रथम बार जब इनको फांसी पर लटकाया जाने लगा तो अकस्मात् वह रस्सी टूट गई, जिससे उन्हें फांसी डी जा रही थी| अत: नई रस्सी तैयार कर उन्हें दूसरी बार फांसी पर लटकाया गया तो इस बार पेड़ की वह शाखा ही टूट गई, जिस पर उन्हें लटकाने का यत्न किया गया था| अब तीसरी बार उन्हें फांसी पर लटकाया जाना था| तीसरी बार उन्हें एक मजबूत नीम के पेड़ पर लटकाया गया| इस तीसरी बार अंग्रेज बड़ी कठिनाई से उन्हें फांसी देने में सफल हो पाया| अब अंग्रेज ने पुन: जन सामान्य को भयभीत करने के लिए शव को नीम के पेड़ से उतारने के स्थान पर इसे वहीँ लटकने दिया और यह शव तीन दिन तक उस पेड़ पर ही लटकता रहा| इस शव को देख लोग मन ही मन अंग्रेज की बर्बरता पर आंसू बहाते रहे|

सर्राफा बाजार में स्थित जिस नीम के पेड़ पर सेठ अमरचन्द बाँठिया जी को फाँसी दी गयी थी, उसके निकट ही आज सेठ जी की प्रतिमा स्थापित की गई है। प्रति वर्ष 22 जून को वहाँ बड़ी संख्या में आकर लोग देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने तथा अपनी एकमात्र संतान के प्राण देने वाले उस अमर हुतात्मा को श्रद्धाँजलि अर्पित करते हैं।

डॉ.अशोक आर्य
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