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क्या आज भी गाँधी और उनका चिंतन प्रासंगिक है?

प्रायः यह सवाल पूछा जाता है कि क्या गाँधी तेजी से बदलते वर्तमान परिदृश्य में भी प्रासंगिक हैं? यह प्रश्न और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है, जब हम समाज में इस ढ़ंग के जुमले सुनते हैं कि ”मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी! ” क्या सचमुच गाँधी मजबूर थे? सवाल उनकी नीतियों और नीयत पर भी उठाए जाते हैं और हर जागरूक एवं लोकतांत्रिक समाज में सवाल पूछने की आज़ादी होती है, होनी भी चाहिए। परंतु सवालों के मूल में ही यदि संशय, अविश्वास और पूर्वाग्रह हो तो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना ही उसकी चरम परिणति होती है।

जहाँ तक गाँधी की प्रासंगिकता का सवाल है तो उसके बरक्स अपनी ओर से कुछ कहने के बजाय कतिपय प्रसंगों-संदर्भों-आँकड़ों-घटनाओं-वक्तव्यों को जानना-समझना रोचक एवं सुखद रहेगा। एक बार बराक ओबामा से एक सभा में अमेरिकन छात्रों ने पूछा :-”यदि आपको अपने समकालीन या इतिहास में से किसी एक व्यक्ति के साथ डाइनिंग टेबल साझा करने का अवसर मिले तो आप किनके साथ भोजन करना चाहेंगे? ” उन्होंने सगर्व उत्तर दिया- ”महात्मा गाँधी।” रतन टाटा से नैनो के लॉंचिंग के अवसर पर पत्रकारों ने सवाल पूछा कि ”आपके जीवन का सबसे यादगार पल कौन-सा है?” उन्होंने उत्तर देते हुए कहा कि ”जब वे अमेरिका-प्रवास पर गए हुए थे। वहाँ एक नीग्रो गाँधी की प्रतिमा को संकेतों से दिखाते हुए अपने छोटे बच्चे से कह रहा था कि बेटा, ये महात्मा गाँधी हैं, ये हमारे लिए सम्मान एवं न्याय की लड़ाई लड़ने वाले महान नेता मार्टिन लूथर किंग के गुरु हैं, इन्हें प्रणाम करो।” रतन टाटा ने कहा कि यही उनकी ज़िंदगी का सबसे यादगार और गौरवपूर्ण क्षण था। प्रसिद्व उद्यमी नारायण मूर्त्ति से जब पूछा गया कि उन्हें इंफोसिस जैसी कंपनी की स्थापना की प्रेरणा किससे मिली तो उन्होंने तपाक से उत्तर दिया-‘गाँधी से।’ वर्गीज़ कूरियन गुजरात के आनन्द में अमूल जैसे सहकारी आंदोलनों के प्रयोग की चर्चा करते हुए गाँधी को अपनी प्रेरणा बता रहे थे| राजकुमार हिरानी अपनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म ”लगे रहो मुन्ना भाई” की सफलता का सारा श्रेय गाँधी जैसे मज़बूत ‘कंटेंट’ को देते हैं, संजय दत्त अपनी दुर्बलताओं से जूझने और उससे उबर पाने में गाँधी जी से प्रेरित-प्रभावित भूमिकाओं को एक उत्प्रेरक बताते रहे हैं। रिचर्ड एटिनबर्ग अपनी फिल्मों को मिलने वाले 7-7 ऑस्कर का सारा श्रेय गाँधी के करिश्माई व्यक्तित्व को देते हैं।

पूरी दुनिया में ऐसे कई शिखर-पुरुष रहे जो गाँधी से किसी-न-किसी स्तर पर प्रेरणा लेते रहे। आइंस्टीन का यह बहुश्रुत एवं विश्व प्रसिद्ध वक्तव्य उनके व्यक्तित्व की विशालता पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त है- ”आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।” गाँधी के विचारों को लेकर सफल आंदोलन चलाने वाले मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, आँग सान सू की, एडॉल्फो को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वयं गाँधी रेकॉर्ड 5 बार नॉबेल के लिए नामित हुए। क्या अब भी यह सवाल बचा रह जाता है कि गाँधी प्रासंगिक हैं या अप्रासंगिक?

अपितु यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि ज्यों-ज्यों दुनिया में अन्याय, अत्याचार, असमानता, निरंकुशता, आतंक, अराजकता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ बढेंगी, गाँधी के विचारों की महत्ता और भी बढ़ती जाएगी। हिंसा, कलह और आतंक से पीड़ित मानवता को गाँधी शांति, अहिंसा और सद्भाव की राह दिखाते हैं। क्या इसमें कोई दो मत होगा कि आँख के बदले आँख की राह पर चलकर एक दिन पूरी दुनिया ही अंधी हो जाएगी?

गाँधी ने कार्ल मार्क्स की तरह सर्वत्र संघर्ष और कोलाहल नहीं देखा, रक्तरंजित क्रांति की बात नहीं की, धर्म को अफ़ीम की गोली नहीं माना; उन्होंने आत्मा के रूपांतरण की बात की, धर्म को आंतरिक उन्नयन का मार्ग बताया। उन्होंने सर्वत्र समन्वय और सहयोग देखा और यही भारत की सनातन जीवन-पद्धत्ति से निकला हुआ संतुलित-सुविचारित निष्कर्ष है। क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि आज छोटी-छोटी बातों पर समाज में जैसा उबाल देखने को मिलता है, जैसा क्षोभ एवं आक्रोश दृष्टिगोचर होता है, उसे शांत करने का मार्ग गाँधी सुझाते हैं। गुस्से उत्तेजना और उतावलेपन का जैसा विस्फोटक रूप हर कहीं, हर दिन सामने आ रहा है, क्या उसमें गाँधी के विचार एक उपचारात्मक समाधान की तरह नहीं हैं? सांस्कृतिक संगठनों को यदि इस परिधि से बाहर रखें तो क्या आज कोई ऐसा राजनीतिक नेतृत्व है जो अपने अनुयायियों को हिंसक, उच्छृंखल या अराजक होने से रोक पाने का मज़बूत माद्दा रखता हो? आंदोलन का आह्वान करने वालों को स्वयं नहीं पता होता कि अंततः उसके आंदोलन की दिशा और दशा क्या और कैसी रहेगी? प्रायः आहूत आंदोलन ध्येय से भटक जाता है या राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ जाता है। यह गाँधी का नैतिक प्रभाव एवं आचरणगत अनुशासन ही था कि वे अपने आंदोलन को हिंसक, उग्र या अराजक नहीं होने देते थे।

साध्य को साधने के क्रम में साधन की शुचिता उनके दृष्टिपटल से कभी ओझल न होने पाती थी। क्रिया की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, परंतु विवेकशील प्राणी प्रतिक्रिया से पूर्व सौ बार सोचता है। गाली के बदले गाली, थप्पड़ के बदले थप्पड़, हिंसा के बदले हिंसा में कौन-सी बहादुरी एवं विशेषता है? सभ्य, संयमी एवं अनुशासित समाज हमेशा धैर्य और विवेक से काम लेता है। फिर गाँधी मज़बूरी के पर्याय कैसे हुए?

सुराज, राम-राज्य, स्वच्छता, स्वाबलंबन, ग्राम-स्वराज, व्रत-उपवास-प्रार्थना-परोपकार, श्रम की महिमा व गरिमा आदि आज भी अपनी महत्ता रखते हैं। उनके सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आज भी प्रासंगिक हैं? क्या कोई पिता आज के इस मिथ्यावादी दौर में भी अपने बच्चे को असत्य-भाषण की सलाह देता है, लोभी और स्वार्थी बनने की प्रेरणा देता है, उन्हें अपने आत्मीयों-स्वजनों एवं परिचितों के साथ हिंसक व्यवहार के लिए उकसाता है? जब तक माता-पिता अपनी संततियों को सत्य, अहिंसा, प्रेम, अपरिग्रह के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहेंगे, तब तक गाँधी प्रासंगिक हैं। लोभ न करना ही तो अपरिग्रह है, हम जो सोचते हैं, वहीं बोलें और जो बोलते हैं वहीं करें, यही तो सत्य है; मन-वाणी और कर्म से किसी का बुरा न करना, ईर्ष्या न रखना ही तो अहिंसा है; संपूर्ण चराचर में एक ही परम सत्य के दर्शन करते हुए सबमें एक और एक में सबको देखना ही तो प्रेम है। क्या आज इन मूल्यों की महत्ता कम हो गई? हो सकता है कि अपने संत स्वभाव के कारण गाँधी से राजनीतिक निर्णयों में कुछ भूल हुई हो, उनकी नीतियों में अतिशय उदारता और भावुक आदर्शवादिता का पुट हो, पर उससे उनकी नीयत पर तो सवाल नहीं खड़े होते? क्या उनके जैसी ईमानदारी आज के नेताओं में या हमारे अपने चरित्र में दिखती है?

ज़रा सोचिए, उस व्यक्ति ने जब देखा कि मिल मालिक मजदूरों को जूते तक पहनने नहीं देते उसने खुद 1917 से जूते नहीं पहनने का प्रण ले लिया; उसने जब देखा कि उसकी पगड़ी में जितने कपड़े लगते हैं, उतने में चार मजदूरों के तन ढँक सकते हैं तो उसने पगड़ी पहननी छोड़ दी; उसने जब देखा कि लोगों के पास तन ढंकने तक की सामर्थ्य नहीं है तो उसने मुंडन करा छोटी धोती धारण कर ली, उसने जब देखा कि लोगों के पास रोटी में चपोड़ने के लिए घी नहीं तो उसने प्रार्थना में घी के दीए जलाने बंद कर दिए और ये सभी प्रण उसने 1920-21 तक ही ले लिए थे और आजीवन उसका निर्वाह करते रहे! आज है कोई संकल्प का ऐसा धनी; हम अपनों से किए वादे तो निभा नहीं पाते, देश और समाज से किए वादों की तो बात ही बेमानी है।

जो व्यक्ति औसतन रोज 18 किलोमीटर चला हो, जिसने 79 हजार किलोमीटर यात्रा में बिताए हों, जो प्रतिदिन 700 से अधिक शब्द लिखता रहा हो, जिसने एक करोड़ से भी अधिक शब्द लिखें हों, जिसके लिखे एक-एक शब्द जीवन-मंत्र बन गए हों- उसकी महत्ता पर सवाल खड़े करना बेमानी है, बेमतलब है|
जिस व्यक्ति पर 150 से अधिक मुल्कों ने 800 से अधिक डाक टिकट ज़ारी किए हों; जिस पर 45 से अधिक फिल्में और 500 से अधिक डॉक्यूमेंट्री बनी हों; जिस पर 90000 से अधिक किताबें लिखी जा चुकी हों, जिसका जीवन ही उसका संदेश बन गया हो, जिसे आइंस्टाइन जैसे महानतम व्यक्ति ने बीसवीं शताब्दी का सबसे महान व्यक्ति घोषित किया हो, जिसे टैगोर जैसे साहित्यकार ने महात्मा की उपाधि दी हो, जिसे सबसे तेजस्वी पुरुष नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने श्रद्धा से ‘राष्ट्रपिता’ कहा हो, जिसके एक संकेत पर ‘लौहपुरुष’ ने सर्वाधिक शक्तिशाली पद का परित्याग कर दिया हो- उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़े करना क्या नासमझी और बड़बोलेपन का परिचायक नहीं? क्या हम और हमारा दौर महापुरुषों का मूल्यांकन भी समग्रता से नहीं कर सकता? क्या हम भारतीय संस्कृति के मूल स्वर कृतज्ञता को भी सेलेक्टिव नज़रिए से अपने जीवन में उतारेंगे?

स्वच्छता में ईश्वर का वास होता है-यदि हमने गाँधी के केवल इस एक विचार को भी साकार कर दिखाया तो हमारा देश स्वर्ग हो उठेगा| गाँधी कहा करते थे कि ”यदि आप दूसरों पर इत्र छिड़कते हैं तो उसकी कुछ बूँदें आपके जीवन और व्यक्तित्व को भी सुवासित करेंगीं! ” वे कहते थे कि ”यदि किसी व्यक्ति की ऊँचाई देखनी हो तो यह देखो कि वह अपने से निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है।” उनका मत था कि ”हमें जीना ऐसे चाहिए,जैसे कल ही मरना हो और सबक ऐसे याद करनी चाहिए जैसे ताउम्र जीना हो।” उनका मानना था कि ”सिद्धांतों के बिना राजनीति, परिश्रम के बिना धन, अंतरात्मा के बिना आनंद, चरित्र के बिना ज्ञान, मानवता के बिना विज्ञान और त्याग के बिना पूजा व्यर्थ है।”

वे कहते थे कि ”यदि किसी काम से किसी के दिल को खुशी मिलती हो तो वह प्रार्थना में झुके हजार सिरों से श्रेष्ठ है|” क्या इन विचारों में मंत्र जैसी शक्ति नहीं है? क्या इन विचारों पर चलकर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन में वांछित बदलाव नहीं लाए जा सकते? फिर गाँधी अप्रासंगिक कैसे हुए? सच तो यह है कि गाँधी प्रासंगिक थे, हैं और रहेंगे| देश-काल और परिस्थितियों के साथ उनके विचारों में कुछ और आयाम जुड़ते जाएँगे। आज आवश्यकता महापुरुषों पर प्रहार कर उनके कद को छोटा करने की नहीं, न ही तुलना करके किसी को छोटा और किसी को बड़ा सिद्ध करने की है। सत्य यही है कि राष्ट्रीय जीवन में हरेक महापुरुष की अपनी-अपनी भूमिका होती है।देश-काल-परिस्थिति से निरपेक्ष उसका पृथक मूल्यांकन सरलीकृत निष्कर्ष का शिकार बनाता है। हम आलोचनाओं के आलोक में व्यक्तित्व का आकलन करने के लिए भले स्वतंत्र हों, पर ध्यान रहे कि आलोचनाएँ इतनी छिछली व सस्ती न हों कि सामाजिक एवं नैतिक मर्यादाओं के सभी बाँध ही ध्वस्त हो जाएँ। आस्था एवं विश्वास के केंद्रों का बचे रहना ही समाज, राष्ट्र एवं मानवता के लिए हितकारी होता है।

प्रणय कुमार
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