Friday, April 19, 2024
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क्या भारत परमाणु ऊर्जा में अपना लक्ष्य हासिल करने के क़रीब पहुंच रहा है?

अगर उम्मीद के मुताबिक़ निजी क्षेत्र से निवेश होता है, तो भारत परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने के लक्ष्य के क़रीब पहुंच सकता है.

भारत की प्राथमिक ऊर्जा में परमाणु ऊर्जा का हिस्सा लगभग 1.1 प्रतिशत है. (इसमें आम लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला जैविक ईंधन शामिल नहीं है). 2021 में देश की कुल बिजली उत्पादन क्षमता में एटमी ऊर्जा की हिस्सेदारी 1.6 प्रतिशत और कुल उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 2.8 फ़ीसद थी. देश के 22 रिएक्टर्स की परमाणु बिजली घरों की स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 6780 मेगावाट है. इसमें काकरापार परमाणु ऊर्जा प्लांट (KAPP) की 700 मेगावाट प्रेशराइज़्ड हैवी वाटर रिएक्टर (PHWR) की तीसरी इकाई की क्षमता भी शामिल है, जिसे जनवरी 2021 में ग्रिड से जोड़ा गया था. बहुत जल्द 15 ऐसी और इकाइयां भी फ्लाइट मोड में आने की उम्मीद है. इस समय 8700 मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता वाले परमाणु बिजलीघरों का निर्माण हो रहा है.

क्षमता में वृद्धि के लक्ष्य
2004 में वर्ष 2020 तक परमाणु ऊर्जा से 20 हज़ार मेगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य रखा गया था. 2007 में सरकार ने कहा कि 2008 में अमेरिका के साथ होने वाले 123 परमाणु समझौते के बाद अंतरराष्ट्रीय सहयोग का रास्ता खुलेगा, जिसके बाद परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने के इस लक्ष्य को दोगुना किया जा सकता है. 2009 में न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (NPCIL) ने बताया कि वो 2032 तक एटमी ऊर्जा से 60 हज़ार मेगावाट बिजली बनाने के लक्ष्य की तरफ़ बढ़ रही है.

परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) के विशेषज्ञ, भारत के एटमी ऊर्जा से बिजली बनाने के लक्ष्यों को आकांक्षा कहते हैं. भारत के परमाणु ऊर्जा के लक्ष्य अभी भी आकांक्षा ही क्यों बने हुए हैं, इसकी बड़ी वजहों में से एक निवेश जुटा पाने में मुश्किलें हैं.

इसमें 40 हज़ार मेगावाट बिजली प्रेशराइज़्ड वाटर रिएक्टर (PWRs) से और सात हज़ार मेगावाट बिजली प्रेशराइज़्ड हेवी वाटर रिएक्टर (PHWR) से बनाई जाएगी, जिनमें आयातित यूरेनियम का इस्तेमाल किया जाएगा. हालांकि, 2017 की ड्राफ्ट एनर्जी पॉलिसी में ये पूर्वानुमान काफ़ी कम करके 2022 तक 12 हज़ार मेगावाट और बेहद ‘महत्वाकांक्षी’ स्थिति में 2040 तक 34 हज़ार मेगावाट बिजली परमाणु ऊर्जा से बनाने की बात कही गई थी. 2021 में सरकार ने संसद को बताया कि 2031 तक देश की परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता बढ़कर 22 हज़ार 480 मेगावट पहुंच जाएगी. 2022 में भी संसद में यही आंकड़ा दोहराया गया. परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) के विशेषज्ञ, भारत के एटमी ऊर्जा से बिजली बनाने के लक्ष्यों को आकांक्षा कहते हैं. भारत के परमाणु ऊर्जा के लक्ष्य अभी भी आकांक्षा ही क्यों बने हुए हैं, इसकी बड़ी वजहों में से एक निवेश जुटा पाने में मुश्किलें हैं.

परमाणु ऊर्जा का अर्थशास्त्र
सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के मुताबिक़, 2021-22 में भारत में प्रेशराइज़्ड हैवी वाटर परमाणु बिजलीघर बनाने की लागत क़रीब 11.7 करोड़ रुपए प्रति मेगावाट आती थी. 2026-27 तक एक एटमी पावर प्लांट लगाने की लागत बढ़कर 14.2 करोड़ रुपए प्रति मेगावाट पहुंच जाएगी. जबकि अन्य स्रोतों से बिजली बनाने की लागत के अनुमान कहीं ज़्यादा यानी 16 से 25 करोड़ रुपए प्रति मेगावाट पहुंचने की उम्मीद है. परमाणु ऊर्जा बनाने में औसत पूंजी लागत भी लगभग उतनी ही है, जितनी किसी विशाल पनबिजली या तरल प्राकृतिक गैस (LNG) से बिजली बनाने की परियोजना में आती है. लेकिन, परमाणु बिजली घर बनाने के लिए पूंजी जुटाना काफ़ी मुश्किल होता है, क्योंकि इनमें अलग तरह के जोखिम (जिनकी संभावना तो कम होती है, मगर ख़तरे ज़्यादा होते हैं. जैसे कि प्राकृतिक आपदाएं, आतंकवादी हमले, परमाणु रिसाव वग़ैरह) होते हैं. इसके अलावा, एटमी पावर प्लांट तैयार होने में वक़्त ज़्यादा लगता है.

निर्माण के दौरान जोखिम पैदा होते हैं. काम पूरा होने में देरी और लागत बढ़ने के साथ साथ, भविष्य में परमाणु ऊर्जा से जुड़ी नीति या तकनीक में बदलाव के अंदेशे भी रहते हैं. दुनिया भर में नई परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं की बढ़ती लागत और देरी ने इस उद्योग को तबाह कर दिया है. इस उद्योग की दो बड़ी कंपनियां वेस्टिंगहाउस और अरेवा दिवालिया हो गई है. इसी वजह से कम कार्बन उत्सर्जन वाले स्रोतों जैसे कि सौर ऊर्जा के प्रति लोगों की दिलचस्पी ज़्यादा बढ़ रही है. लेकिन, सौर ऊर्जा की क्षमता के मुताबिक़ लागत (क्षमता के 25 प्रतिशत के बराबर), परमाणु ऊर्जा की लागत के मुताबिक़ क्षमता (80 प्रतिशत क्षमता के मुताबिक़), परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की लागत 25 करोड़ रुपए प्रति मेगावाट आती है. वहीं, NPCIL के मुताबिक़, सौर ऊर्जा में प्रति मेगावाट बिजली उत्पादन का ख़र्च 30 करोड़ रुपए आता है.

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) जैसे संस्थान जो कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए परमाणु ऊर्जा की वकालत करते हैं, उनका कहना है कि विकसित देशों में परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता में भारी कमी आने का अनुमान है, जिससे अरबों टन कार्बन उत्सर्जन बढ़ने का डर है.

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) भी इसी तरह का तर्क देते हुए कहती है कि 2025 में परमाणु ऊर्जा सबसे कम अपेक्षित लागत और कम कार्बन उत्सर्जन वाला ऊर्जा स्रोत बनी रहेगी. परमाणु ऊर्जा से बनी बिजली की वैल्यू एडजस्टेड लेवलाइज्ड लागत (VALCOE) सौर या पवन ऊर्जा से कहीं कम होती है, ख़ास तौर से जब बिजली बनाने की तकनीकों के बीच अधिक व्यापक पैमाने पर तुलना की जाए और एटमी बिजलीघरों की आयु बढ़ा दी जाए. रुक रुककर बिजली उत्पादन करने वाले स्रोतों जैसे कि पवन या सौर ऊर्जा से बिजली बनाने की VALCOE बढ़ जाती है. जबकि, जैसे जैसे एटमी ऊर्जा से बनी बिजली का ग्रिड में योगदान बढ़ता जाता है, तो इससे बिजली बनाने की VALCOE घटती जाती है.

किसी एटमी पावर प्लांट की आयु 60 साल से अधिक (100 वर्ष के आस–पास) होती है. जबकि सौर ऊर्जा से बिजली बनाने वाले प्लांट की उम्र लगभग 20 साल ही होती है, जिससे परमाणु बिजलीघरों की आर्थिक क़ीमत बढ़ जाती है. इसके अलावा परमाणु बिजली घरों को बाक़ी व्यवस्था से जोड़ने की लागत दो डॉलर प्रति मेगावाट प्रति घंटे (MwH) आती है. वहीं, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों से बनी बिजली को ग्रिड से जोड़ने की लागत 43 डॉलर प्रति मेगावाट प्रति घंटे (MwH) आती है. अन्य स्रोतों से बनी बिजली की तुलना अगर परमाणु ऊर्जा से बनी बिजली से करें, तो तुलनात्मक रूप से ज़्यादा फ़ायदेमंद होती है.

सच तो ये है कि देश के सबसे पुराने एटमी पावर प्लांट तारापुर परमाणु बिजलीघर (TAPS 1&2) से टैरिफ फॉर फर्म (डिस्पेचेबल) लगभग 2 रुपए प्रति किलोवाट घंटे है. ये सौर ऊर्जा की लागत से भी काफ़ी कम है. जबकि सौर ऊर्जा की आपूर्ति तो रुक रुक कर होती है. कुदनकुलम जैसे नए परमाणु बिजलीघरों से बनी बिजली की लागत 4 से 6 रुपए प्रति किलोवाट घंटे (kwh) है, जो कई कोयले वाले बिजलीघरों से भी कम है और हाइब्रिड यानी कोयला और सौर ऊर्जा को मिलाकर की जाने वाली बिजली आपूर्ति से भी कम है. 2020-21 में भारत में स्पेसिफिक जनरेशन जो बिजली बनाने की आर्थिक लागत (एक मेगावाट क्षमता से कितनी गीगावाट घंटे बिजली बनती है) की कुशलता के मामले में परमाणु ऊर्जा 6.35 थी, जबकि 4.74 के साथ कोयले से बने बिजली घर दूसरे नंबर पर आते थे. परमाणु ऊर्जा की स्पेसिफिक जनरेशन पिछले दो दशकों के औसत स्पेसिफिक जेनरेशन से लगातार ज़्यादा रहे हैं.

कार्बन उत्सर्जन में कमी
NPCIL के मुताबिक़, एटमी पावर प्लांट, सौर ऊर्जा के बिजलीघर से कम से कम 20 गुना कम ज़मीन इस्तेमाल करते हैं. सौर ऊर्जा के पावर प्लांट की औसत लाइफ साइकिल के दौरा ग्रीनहाउस गैसों (GHG) का उत्सर्जन लगभग 50 ग्राम प्रति किलोवाट घंटे (kWh) होता है, जबकि परमाणु ऊर्जा का 14 ग्राम प्रति किलोवाट घंटे (kWh) होता है. दुनिया भर में पिछले 50 वर्षों के दौरान परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन लगभग 60 गीगाटन कम हुआ है, या लगभग दो साल के बराबर घटा है. परमाणु ऊर्जा के बग़ैर बिजली बनाने से अब की तुलना में लगभग 20 प्रतिशत अधिक उत्सर्जन हुआ होता. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) जैसे संस्थान जो कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए परमाणु ऊर्जा की वकालत करते हैं,

उनका कहना है कि विकसित देशों में परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता में भारी कमी आने का अनुमान है, जिससे अरबों टन कार्बन उत्सर्जन बढ़ने का डर है. IEA के मुताबिक़ नए परमाणु बिजलीघरों के बिना, हरित ऊर्जा की तरफ़ परिवर्तन अधिक मुश्किल और महंगा हो जाएगा. लेकिन, परमाणु उर्जा को लेकर आशंका जताने वाले अमेरिका के थ्री माइल्स द्वीप, रूस में चेरनोबिल और जापान के फुकुशिमा एटमी प्लांट में हुए हादसों का हवाला देते हुए इस विकल्प के ख़तरों की तरफ़ संकेत करते हैं. न्यूक्लियर रिएक्टर से जो रेडियोएक्टिव कचरा पैदा होता है, वो सैकड़ों से हज़ारों सालों तक ख़तरनाक बना रहता है. परमाणु कचरे के सुरक्षित निष्पादन के लिए ज़मीन की गहराई में कचरा रखने के पहले सुविधा केंद्र की योजना अभी भी काग़ज़ों में ही है.

छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर
2019 में इतिहास में पहली बार ग़ैर पनबिजली वाले नवीनीकरण योग्य स्रोतों जैसे कि सौर, पवन और जैविक ईंधन से दुनिया भर में परमाणु ऊर्जा की तुलना में कहीं ज़्यादा बिजली पैदा की गई. परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता 2006 में शीर्ष पर पहुंच गई थी. तीस साल पहले की तुलना में 2021 में दुनिया में कहीं कम परमाणु रिएक्टर काम कर रहे थे. यहां तक कि चीन में भी, जहां कई एटमी पावर प्लांट बनाए जा रहे हैं, वहां भी 2021 में नवीनीकरण योग्य स्रोतों से परमाणु ऊर्जा से दोगुनी बिजली बनाई जा रही थी. आम तौर पर सोच यही है कि बड़े एटमी रिएक्टर बहुत महंगे और बेहद ख़तरनाक होते हैं. इसी वजह से पूरी दुनिया के साथ साथ भारत में भी छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर (SMRs) के प्रति समर्थन बढ़ रहा है.

1950 के दशक में जब परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता स्थापित हुई थी, जब से रिएक्टर का आकार 60 मेगावाट से बढ़कर 1600 मेगावाट तक पहुंच गया है. इससे विशाल रिएक्टर से बिजली बनाना सस्ता पड़ता है. लेकिन, SMR से आम तौर पर 300 मेगावाट या इससे कम बिजली उत्पादन हो सकता है और इन्हें मॉड्यूल फैक्ट्री फैब्रिकेशन की मॉड्यूलर तकनीक से बनाया जाता है. जिसमें सिलसिलेवार उत्पादन होता है और निर्माण में भी कम वक़्त लगता है. नौसेना का इस्तेमाल के लिए (190 मेगावाट थर्मल तक के) सैकड़ों छोटे रिएक्टर बनाए गए हैं और न्यूट्रॉन के स्रोत के तौर पर छोटी इकाइयां बनाने में बड़े स्तर की विशेषज्ञता लगती है.

भारत के 22 एटमी ऊर्जा रिएक्टर में से 18 की क्षमता 300 मेगावाट (MWe) से कम है. इसका मतलब है कि ज़्यादातर रिएक्टर ‘छोटे’ हैं. ज़्यादातर रिएक्टर के छोटे होने के कारण, भारत में इतनी संख्या में परमाणु रिएक्टर होने के बावजूद, देश की कुल परमाणु ऊर्जा क्षमता कम है.

छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर के गर्म हो जाने की आशंका इसलिए भी कम होती है क्योंकि उनके छोटे कोर में बड़े रिएक्टर की तुलना में कहीं कम गर्मी पैदा होती है. SMR तकनीक में नए नए आविष्कारों से इंजीनियरिंग के दूसरे जोखिम, जैसे कूलैंट पंप फेल होना भी कम हो सकते हैं. पारंपरिक रिएक्टर की तुलना में छोटे रिएक्टर में घूमने वाले कल–पुर्ज़े भी कम होते हैं इससे उनकी नाकामी का डर भी कम होता है, जिससे हादसों की आशंका भी कम हो जाती है. छोटे रिएक्टर के निर्माण से बड़े पैमाने पर उत्पादन की भी उम्मीद है, जिससे लागत घटेगी और बिजली घर तैयार होने में भी कम वक़्त लगेगा. भारत के परमाणु उद्योग में ज़्यादातर छोटे रिएक्टर ही लगे हैं. हालांकि इनसे लागत भी कम हुई हो, ऐसा हमेशा नहीं हुआ.

भारत के 22 एटमी ऊर्जा रिएक्टर में से 18 की क्षमता 300 मेगावाट (MWe) से कम है. इसका मतलब है कि ज़्यादातर रिएक्टर ‘छोटे’ हैं. ज़्यादातर रिएक्टर के छोटे होने के कारण, भारत में इतनी संख्या में परमाणु रिएक्टर होने के बावजूद, देश की कुल परमाणु ऊर्जा क्षमता कम है. चीन के दस सबसे बड़े परमाणु ऊर्जा केंद्रों में 43 रिएक्टर लगें हैं, इनकी कुल बिजली उत्पादन क्षमता 45 हज़ार 600 मेगावाट है. इन परमाणु बिजली घरों में लगे सभी रिएक्टर्स की क्षमता एक हज़ार मेगावाट की है, सिवा सबसे पुराने रिएक्टर के जिसकी क्षमता 600 मेगावाट है.

भारत की तुलना में दो गुना रिएक्टर वाले चीन की परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की क्षमता, भारत से छह गुना अधिक है. दक्षिण कोरिया के पास 24 न्यूक्लियर रिएक्टर हैं, यानी भारत से केवल दो ज़्यादा. लेकिन, उसकी कुल परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षमता 23 हजार 150 गीगावाट है, जो भारत से तीन गुना अधिक है. भारत के रिएक्टर छोटे ज़रूर हैं. मगर इसका मतलब ये नहीं है कि इनकी लागत कम है. न ही इन्हें चलाने के लिए तुलनात्मक रूप से कम विशेषज्ञ रखने का फ़ायदा ही मिला है. बल्कि, इसके उलट देश के कुल बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा का योगदान बहुत कम रहा है, और इसके कारण परमाणु ऊर्जा क्षेत्र कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दे पाया है. छोटे रिएक्टर के कारण परमाणु ऊर्जा से बनी बिजली की दर भी बढ़ गई है, क्योंकि बड़ी क्षमता में निवेश से लागत कम होने का फ़ायदा भी नहीं मिल सकता है. कम से कम 2022 तक तो इस सोच का इम्तिहान होना बाक़ी था कि छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर्स (SMRs) से अधिक बिजली उत्पादन करके लागत की तुलना में मुनाफ़े का अर्थशास्त्र साधा जा सकता है. क्योंकि अब तक SMR के बड़े पैमाने पर ऑर्डर नहीं देखे गए हैं. कुल मिलाकर भारत छोटे रिएक्टर के बूते पर परमाणु ऊर्जा का महत्वाकांक्षी लक्ष्य नहीं हासिल कर सकता है.

मीडिया की ख़बरों के मुताबिक़, नीति आयोग ने 1962 के परमाणु ऊर्जा क़ानून में बदलाव के सुझाव दिए हैं, जिससे एटमी ऊर्जा उद्योग में विदेशी निवेश को इजाज़त दी जा सके और घरेलू निजी कंपनियों की भागीदारी भी बढ़ाई जा सके. अगर, इस उद्योग में निजी निवेश आता है, तो हो सकता है कि भारत परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने के अपने लक्ष्य के क़रीब पहुंच जाए. हालांकि, अभी ये देखना बाक़ी है कि भारत के सिविल लायबिलिटी क़ानून और अंतरराष्ट्रीय संधियों के बीच के बुनियादी अंतर को कैसे ख़त्म किया जाएगा.

(ये लेख https://www.orfonline.org/hindi/ की सीरीज़, कॉम्प्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया ऐंड दि वर्ल्ड का एक हिस्सा है.)

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