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ये लिव इन है या व्यभिचार

श्रद्धा वाकर के 35 टुकड़ों में आफताब द्वारा शव को काटकर फेंकने की वीभत्स घटना से पूरा राष्ट्र रोष में है। जनमानस कठोर से कठोर सजा देने की मांग कर रहा है। हमारे समाज में लिव इन को लेकर दो पक्ष है। एक पक्ष इसे सामाजिक रूप से गलत बताता है। दूसरा पक्ष इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रूप में अपराध नहीं मानता। पूर्व पक्ष हमारे समाज की वो है जो प्राचीन नियमों और संस्कारों के अनुकूल समाज में आचरण की पक्षधर है। विपरीत पक्ष पश्चिमी मान्यता से प्रभावित है। पूर्व पक्ष में सामान्य जनता है जबकि विपरीत पक्ष में अपने आपको लिबरल, प्रगतिशील, सिविल सोसाइटी, मानव अधिकार कर्ता आदि स्वयंभू उपाधियों देने वाली जमात है। यह जमात लिव इन रूपी व्यभिचार को लेकर कुतर्क देती है। जैसे कि प्राचीन काल में राजा लोग वेश्या वृति में लिप्त थे। हमारे यहाँ पर कामसूत्र एवं खजुराओ कि मूर्तियां हैं, जोकि हमारी संस्कृति का भाग है। वेश्या वृति को सरकारी मान्यता देने से AIDS, STD, ILLEGAL TRAFFICKING आदि कि रोकथाम होगी। पंजाब की नेता प्रोफेसर लक्ष्मीकांता चावला जी ने लिव को अपराध घोषित करने का आवाहन किया है। जो निश्चित रूप से लागु होना चाहिए।

इनके कुतर्कों का उत्तर यह है कि जो राजा लोग वेश्या-वृति में लिप्त थे वे कोई आदर्श नहीं थे। हमारे आदर्श तो श्री राम है जिन्होंने चरित्रहीन शूर्पनखा का प्रस्ताव अस्वीकार किया।

कुछ लोगों द्वारा खजुराओ की नग्न मूर्तियाँ अथवा वात्सायन का कामसूत्र को भारतीय संस्कृति और परम्परा का नाम दिया जा रहा है। जबकि सत्य यह है कि भारतीय संस्कृति का मूल सन्देश वेदों में वर्णित संयम विज्ञान पर आधारित शुद्ध आस्तिक विचारधारा है।

भौतिकवाद अर्थ और काम पर ज्यादा बल देता है जबकि अध्यात्म धर्म और मुक्ति पर ज्यादा बल देता है । वैदिक जीवन में दोनों का समन्वय हैं। एक ओर वेदों में पवित्र धनार्जन करने का उपदेश हैं दूसरी ओर उसे श्रेष्ठ कार्यों में दान देने का उपदेश हैं । एक ओर वेद में भोग केवल और केवल संतान उत्पत्ति के लिए हैं दूसरी तरफ संयम से जीवन को पवित्र बनाये रखने की कामना हैं । एक ओर वेद में बुद्धि की शांति के लिए धर्म की और दूसरी ओर आत्मा की शांति के लिए मोक्ष (मुक्ति) की कामना हैं। धर्म का मूल सदाचार हैं। अत: कहाँ गया हैं आचार परमो धर्म: अर्थात सदाचार परम धर्म हैं। आचारहीन न पुनन्ति वेदा: अर्थात दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। अत: वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रह्मचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया हैं जैसे-

यजुर्वेद ४/२८ – हे ज्ञान स्वरुप प्रभु मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो।
ऋग्वेद ८/४८/५-६ – वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दे।
यजुर्वेद ३/४५- ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं।
यजुर्वेद २०/१५-१६- दिन, रात्रि, जागृत और स्वपन में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान, धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाए।
ऋग्वेद १०/५/६- ऋषियों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं. उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी हैं. चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।
अथर्ववेद ६/४५/१- हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटो। मैं तुझे नहीं चाहता।
अथर्ववेद ११/५/१०- ब्रह्मचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता हैं।
अथर्ववेद११/५/१९- देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रह्मचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) का नष्ट कर दिया हैं।
ऋग्वेद ७/२१/५- दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता।

इस प्रकार अनेक वेद मन्त्रों में संयम और सदाचार का उपदेश है।

खजुराओ आदि की व्यभिचार को प्रदर्शित करने वाली मूर्तियाँ ,वात्सायन आदि के अश्लील ग्रन्थ एक समय में भारत वर्ष में प्रचलित हुए वाम मार्ग का परिणाम हैं जिसके अनुसार मांसाहार, मदिरा एवं व्यभिचार से ईश्वर प्राप्ति हैं। कालांतर में वेदों का फिर से प्रचार होने से यह मत समाप्त हो गया पर अभी भी भोगवाद के रूप में हमारे सामने आता रहता है।

यह एक कुतर्क है कि वेश्या वृति को सरकारी मान्यता देने से AIDS आदि बीमारियां कम होगी। एक उदाहरण लीजिये एक विवाहित व्यक्ति सुबह से शाम तक मजदूरी कर पैसे कमाता हैं , मेहनत करता हैं, पसीना बहाता है। अब कल्पना कीजिये वेश्या वृति को मान्यता मिलने पर वह अपनी बीवी से धंधा करवाएगा और आराम से बैठ कर खायेगा। अब सरकारी कानून के कारण वह ऐसा नहीं कर सकता। एक शराबी बाप अपनी बेटी से अपनी नशे की आवश्यकता को पूरा करने के लिए धंधा करवाएगा। कल्पना करो बाद में समाज में इससे कितना व्यभिचार फैलेगा। एक काल में उत्तरांचल की पहाड़ी जातियों में अनेक परिवारों में ऐसी कुप्रथा थी। परिवार की महिलाओं से धंधा करवाया जाता था। लाला लाजपतराय जैसे समाज सुधारकों ने उस रुकवाया था। आज आप सामाजिक प्रगति के नाम पर फिर से समाज को उसी गर्त में क्यों धकेलना चाहते है?

HIV आदि की रोकथाम ने नाम पर विदेशी शक्तियां हमारे देश को भोगवाद के रूप में मानसिक गुलाम बनाना चाहती हैं जिससे उनके लिए भारत एक बड़े उपभोक्ता बाजार के रूप में बना रहे एवं यहाँ के लोग आर्थिक, मानसिक, सामाजिक गुलाम बनकर सदा पीड़ित रहे। वैदिक विचारधारा इस गुलामी की सबसे बड़ी शत्रु है। इसीलिए एक सुनियोजित षड़यंत्र के तहत उसे मिटाने का यह एक कुत्सित प्रयास हैं।

समाज हमारी परम्परा और संस्कृति चरित्र हीनता नहीं अपितु ब्रह्मचर्य एवं संयम है।