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इस्लामिक एजेंडा और हिंदुत्व की बाधाएँ

सीरिया से दीन-हीन शरणार्थी बनके वहाँ के मुसलमान सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात जैसे बगल के बीसियों इस्लामी देशों में जाने के बजाय कई गुना दूर न्यूजीलैंड (नौ गुना दूर), यूरोप के अनेक देशों यथा जर्मनी, इटली आदि पहुँच गए। 56 इस्लामी देशों की छिपी सहमति। अपने यहाँ शरण दे सकते थे। पर इन्हें तो पूरी दुनिया में इस्लाम को स्थापित करना है—पहले दीन-हीन शरणार्थी के तौर पर घुसो और फिर आगे अपना वैश्विक संकल्प कार्यक्रम। भारत में रोहिङ्ग्या मुसलमानों के प्रवेश का प्रयास भी इस संकल्प का अनुगमन है।

अब सोचिए। दुनियाभर में इस्लाम को फैलाने का मुसलमानों का संकल्प इतना प्रबल है कि वे घर-परिवार, नाते-बिरादरी, संपत्ति-देश का मोह छोड़ कहीं भी पैगाम ले जाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। जातीय वर्चस्व, रीति-रिवाजों, संयुक्त परिवार, देवी-देवताओं के मोह में पड़े मूर्तिपूजक हिन्दूओं में इतनी बुद्धि आ सकती है क्या! हिन्दू तो मानकर चलता रहा है कि उसका देश दुनिया में सबसे सुखकर, सबसे अच्छा, सबसे पवित्र है, देवभूमि है। इसे छोड़कर कहीं नहीं जाना। इसी प्रवृत्ति के चलते हिंदुओं का देश केवल भारत ही बचा है किसी तरह। ‘वसुधईव कुटुम्बकम’ तो हमेशा उपेक्षित रहा। राष्ट्रमोह और राष्ट्रवाद जो ऊपरी तौर पर बड़ा आकर्षक लगता है, वास्तव में हिंदुत्व की आत्महत्या का संकल्प है ।

त्याग हिन्दू भी करना जानते हैं, पर यहाँ त्याग सन्यासियों का पेशा बना दिया गया। गृहियों का काम तो दायित्वों के बहाने संकीर्णताओं का संरक्षण का रहा है। यही दशा रही तो लाख दावों-पैरोकारों के बावजूद हिन्दुत्व तीस साल से ज्यादा बच ही नहीं सकता।

आज दुनिया इसाइयत और इस्लाम की गलाकाट प्रतिद्वंद्विता में पिस रही है। भारत भी इस विनाश से अछूता नहीं रह सकता।

यदि हिन्दुत्व को बचना है तो जातीय पहिचान की बैशाखी के बिना चलना सीखना होगा, जाति भेद समाप्त करना होगा। लेबल का मोह छोड़ मानव धर्म का परचम लहराना होगा। वही मानव धर्म जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भागवत धर्म कहा था। उस समय आज की तरह मानवता हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि में बंटी नहीं थी। अतः सम्पूर्ण मानव जाति को भगवत्ता की ओर उन्नयन का आह्वान हुआ था। वही भागवत धर्म आज की बंटी मानवता के लिए ‘मानव धर्म’ है। धर्मों और मत-मतांतरों का इस लिहाज से समभाव के साथ स्वीकारा जाता रहा है कि इससे विविधता और बहुरसता आति है। पर यह देखा गया है कि इन्होंने विविधता और बहुरसता से कहीं ज्यादा मारकाट और रक्तपात मचाया है पूरी दुनिया में नस्ल और जातिवाद के साथ मिलकर सदियों से।

क्या हुआ यदि आर्य भारत के बाहर से आए, कालांतर में मुसलमान और ईसाई भी! जितना अधिक सांस्कृतिक विमिश्रण हो उतना ही अनुभव और विविधता बढ़ती है। अच्छी बात नहीं है यदि कोई दावा करे कि सभ्यता के आदिकाल से, हजारों-लाखों वर्षों से हम एक ही स्थान के निवासी बने रहे हैं, कूप मंडूक रहे हैं। बात केवल सांस्कृतिक विमिश्रण और अनुभव-ज्ञान वृद्धि की ओर उन्मुख हो तो कोई समस्या नहीं। पर इन धर्ममतों के मूल में ही कुछ ऐसी समस्या रही है कि ये विभिन्न धर्ममत अपनी श्रेष्ठता और पूर्णता के अहंकार में चूर हो अपने अलावा दूसरे किसी के अस्तित्व को अन्तर्मन से स्वीकार नहीं कर पाते और कठमुल्लों की मेहरबानी से सभ्यताओं में टकराव और मारकाट बढ़ता रहा है।

अतः विविधता और बहुरसता बनाए रखने हेतु प्राकृतिक व भूसांस्कृतिक भिन्नताओं को महत्व, मान्यता व पहिचान देना उचित है जातियों, नस्लभेदों और मत-मतांतरों के स्थान पर; जबकि मजहबी पहिचान को भूसांस्कृतिक विविधताओं में मिलाकर इनका अस्तित्व ही खत्म करने कीआवश्यकता है। प्रउत का समाज आंदोलन इन्हीं प्राकृतिक व भूसांस्कृतिक भिन्नताओं को महत्व, मान्यता व पहिचान देने पर केन्द्रित है, पहिचान के कृत्रिम व बलात आरोपण के बजाय।

हिन्दुत्व की सबसे बड़ी कमजोरी जाति व्यवस्था है जिसके दुष्प्रभाव जातिवाद, जातिभेद और जातीय-संघर्ष हैं। आरक्षण जाति व्यवस्था के दुष्प्रभावों से क्षतिपूर्ति का उपाय है। जैसे अनेक विचारक मानते हैं जाति होनी चाहिए पर जातीय-संघर्ष नहीं बल्कि जातीय समरसता बने। दीनदयाल उपाध्याय जी लिखते हैं:
“अपने यहाँ भी जातियां बनीं किन्तु एक जाति व दूसरी जाति में संघर्ष है, जनका यह भूलभूत विचार हमने नहीं माना। हमारे वर्णों की कल्पना भी विरापुरुष के चारों अंगों से की है ।” (एकात्म मानववाद, पृ0 49)
ऐसे विचारक जाति को हिन्दुत्व के अस्तित्व और पहचान का आवश्यक तत्व समझते हैं। वर्ण-व्यस्था को भी निहित स्वार्थी जाति को बरकरार रखने का परोक्ष साधन बना लेते हैं। ऐसे लोग जाति-व्यस्था का उन्मूलन अनावश्यक व असंभव मानते हैं।

सवर्णवादी आरक्षण को हटाने की बात करते हैं जबकि आरक्षण के समर्थक ‘पहले जाति तब आरक्षण हटेगा’ का आह्वान करते हैं। जाति व्यवस्था भारत की सदियों की गुलामी और कमजोरी का कारण रही है पर आज के विज्ञान और टेक्नालजी के युग में जाति-व्यवस्था का उन्मूलन कठिन नहीं है। संकल्प और युक्ति अपनानी होगी।

जबलपुर स्थित मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के वकील तथा प्राउटिस्ट समाज, प्राउटिस्ट किसान संघ,प्राउटिष्ट छात्र संघ व प्रगतिशील बघेली समाज जुड़े उदय कुमार साहू इसका स्पष्ट, साहसिक, कारगर व रोचक सुझाव देते हैं,
“जातीय विवाह प्रथा है जबतक ,
जातिवाद व आरक्षण है तबतक ।
अन्तर सम्प्रदायिक विवाह की करो शुरुआत ।
संप्रदायवाद से देश पायेगा निजात ।

‘जातीय विवाह प्रथा’ संविधान के लक्ष्य को खासकर मूल अधिकार, समाजवाद, आर्थिक आजादी, स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को प्राप्त करने में बाधक है इसलिये भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत जातीय विवाह प्रथा शून्य है ।

इस प्रथा को शून्य कराए जाने के लिये न्यायालय के शरण में जाने की जरुरत नहीं है ।

सभी जातीय या सम्प्रदायिक विवाद का मूल कारण जातीय विवाह प्रथा है जो संविधान विरोधी होने के वावजूद भी सरकारों के द्वारा दन्ड्नीय अपराध नहीं बनाया गया है ।

राष्ट्र के कल्याण के लिये सरकार को भारतीय दंड संहिता में एक नई धारा 494A जोड़ा जाना चाहिए जिसके तहत जातीय विवाह करने वालों को 10 वर्ष का जेल और 50,000 / रुपए जुर्माने का प्रावधान हो ।
जातीय विवाह करने वालो को सरकारी नौकरी से वंचित करने का प्रावधान सेवा कानून में किया जाना चाहिए ।

जातीय परिभाषा में सामान्य, ओबीसी, एससी, एसटी, मुस्लिम ,इसाई,बौध ,पारसी आदि को अलग-अलग जाति माना जाना चाहिए ताकि ओबीसी का विवाह ओबीसी में ना होकर किसी अन्य में हो, उसी प्रकार मुस्लिम का विवाह मुस्लिम में ना हो सके इत्यादि।”

मैं समझता हूँ कि इस देश ही नहीं दुनिया में सभ्यताओं के टकराव के समाधान की दिशा में साहू जी के पूर्वोक्त सुझाव सटीक औषधि साबित होंगे। अतः इन्हें हर कीमत पर लागू करना होगा।
प्रउत सिद्धांत से यहां कोई विरोध नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि प्रउत सिद्धांत के प्रणेता ने तो प्रउत सिद्धांत को कणिका में दिया है–Prout in Nutshell. इस सिद्धांत को विस्तार देने में तो ऐसे ही कठोर क्रांतिकारी रास्ते ही प्रभावी होंगे, लुंज-पुंज तरीकों से कुछ नहीं होना।

इन सटीक व उत्तम सुझावों को लागू कर प्राउटिस्ट में बहुत कम समय, 4 या 5 सालों में ही भारत के जाति और संप्रदाय के ताने-बाने की को पूरी तरह से ध्वस्त कर सकते हैं। पर इसमें विचारधारा व परिस्थितियों के अनुरूप कुछ जोड़-घटाना पड़ेगा।

जैसे: भारत के भीतर दो विदेशियों के बीच शादी के मामले में यह नियम लागू नहीं होगा लेकिन अगर कोई भी पार्टनर भारतीय मूल का विदेशी नागरिक है तो यह लागू रहेगा।

इस तरह के दण्डात्मक उपायों का कुछ लोग इस आधार पर विरोध करते हैं कि ऐसे मामलों में धनात्मक उपाय अपनाएं। पर लम्बे समय से समाज सुधारकों ने सकारात्मक ढंग से भारतीय समाज को जाति और सम्प्रदाय वादों से बाहर निकालने का प्रयास किया पर विफल रहे और स्थितियां और भी जटिल हुई हैं। अतः लाख विरोधों के बावजूद निषेधात्मक व दन्डकारी उपायों का कम से कम बीस वर्षों तक दृढ़ता से उपयोग ही सटीक परिणाम मिलेगा।

कुछ लोग नाम से टाइटल हटाते रहे हैं तो भी जाति-व्यवस्था यथावत है। वास्तव में यह पूर्वोक्त कानूनी उपाय के बाद ही प्रभावी हो सकता है। अगले चरण में जाति बोधक टाइटल्स को हटाने व आगे के उपयोग को भी कानूनन प्रतिबंधित करना आवश्यक होगा।

टाईटिल हटाना समाधान है क्या?

टाईटिल हटाना समाधान होता तो प्रउत दर्शन प्रणेता श्री प्रभात रंजन सरकार ऐसा कर सकते थे। सुभाष चंद्र बोस, ज्योतिबा फूले, डा भीमराव अंबेडकर, अरविंद घोष, मोहनदास करम चंद गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सरदार पटेल आदि अनेकों चर्चित नाम हैं जो बड़ी आसानी से टाईटिल हटाकर समाधान दे दिये होते। फिर महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, छ्त्रसाल, राजा सुहेलदेव के नाम के आगे टाईटिल तो नहीं है, पर क्या इनकी जातीय पहिचान खत्म हो गयी? टाईटिल हटाने से कुछ नाम भले ही (सभी नहीं) सूने या अधूरे लगें पर पूर्वकथित कठोर उपायों को लागू किए सिर्फ बिना टाईटिल हटा देने से काम नहीं चलेगा। सारे टाईटिल्स के उपयोग को पहले संवैधानिक/कानूनी तौर पर अंतरजातीय व अंतर्राष्ट्रीय बनाया जाय तथा बाद में जातिबोधक टाईटिल्स को कानूनन प्रतिबंधित किया जा सकता है। हाँ, जाति व संप्रदाय बोधक संगठनों को पहले ही प्रतिबंधित करना होगा भले ही वे जाति या समुदाय के सुधार पर बनी हों, ताकि वोट की जाति-संप्रदाय वाली राजनीति पर सीधे चोट की जा सके।

संपर्क
प्रोफेसर आर पी सिंह,
वाणिज्य विभाग,
गोरखपुर विश्वविद्यालय
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