Saturday, April 20, 2024
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परेशान कर रहा है जयंत करंजवकर का जाना….

जयंत करंजवकर अब हम सबके बीच नहीं रहे। महाराष्ट्र की राजनीति के चलता-फिरते जानकार स्थाई रूप से सबको छोड़कर चले गए। आरंभिक काल में मैं उन्हें साहेब कहता था, पर बाद में वे कब जयंत काका हो गए, यह पता ही नहीं चला। उनके जैसा दिलदार, सहज बर्ताव करने वाला, कोई नशा न करने वाले तथा दोस्तों की मदद करने के लिए सदैव तत्पर रहने वाला व्यक्ति हम सबके बीच से चला गया, इसे पचा पाना मुश्किल ही है। वैसे देखें तो कोई यहां कोई अमर नहीं है। ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु’, यहीं यहां का नियम है, लेकिन जीवन भर नीति का पालन करने वाले जयंत काका को जाते समय समय अनीति ग्रसित करे, इस बात से बहुत परेशानी हो रही है।

दो अगस्त को वे ‘रुटीन चेकअप’ के लिए अस्पताल गए थे। वैसे उन्हें कुछ परेशानी नहीं थी, फिर भी फैमिली डॉक्टर तथा क्षीरसागर अस्पताल की डॉ. प्रसिता क्षीरसागर के आग्रह पर उन्होंने कोरोना रैपिड एटिजेन डिटेक्शन टेस्ट करवाया था। इस टेस्ट की रिपोर्ट पॉजिटिव आयी, इसलिए उन्हें अस्पताल में भर्ती होने के लिए कहा गया। उन्होंने सरकारी अस्पताल में भर्ती होने का निर्णय लिया।

वरिष्ठ पत्रकार तथा मिलनसार स्वभाव के कारण उनके सभी से अच्छे संबंध थे। मुंबई मनपा उपायुक्त संदीप मालवी ने भी सहयोग करने की हामी भरी, पर मनपा अस्पताल में आपका इलाज अच्छी तरह से नहीं किया जाएगा, वहां आवश्यक उपकरण नहीं हैं, इस तरह के कारण बताकर डॉ. क्षीरसागर ने उन्हें अपने स्वयं के ‘आर्थिक हितों से जुड़े ‘वेल्लम अस्पताल तथा डायग्नोस्टिक, गांधीनगर, ठाणे में भर्ती करने के लिए मजबूर कर दिया।

अस्पताल में भर्ती होने की जानकारी मुझे उन्होंने स्वयं फोन दी। । ‘सर्दी-बुखार हुआ है, जितनी सहजता से अब तक बताया जाता रहा है, उनती ही सहजता से किसी को ‘कोरोना हुआ है, यह बात अब सहजता से कहीं जाने लगी है। जयंत काका लगातार 15-20 मिनट मुझसे अलग अलग विषयों पर बोलते रहे, उनका बोलना पहले की तरह ही रौबदार था, उन्हें किसी भी तरह की कोई शिकायत नहीं थी, मैंने उन्हें अपनी रिपोर्ट के बारे में उत्पन्न संदेह व्यक्त किया।

उनके और उनके लड़के अक्षय के मन में भी इसी तरह की शंका थी, लेकिन फैमिली डॉक्टर ने बताया है तो फिर रिस्क क्यों ली जाए यह भी प्रश्न था, इसके अलावा ‘आपने समय बर्बाद किया तो कुछ भी हो सकता है, ऐसा डॉक्टरों द्वारा मन में पैदा किये गए भय के कारण कुछ भी करना संभव नहीं था।

पहले दो दिन उनमें कुछ भी लक्षण नहीं थे। ऑक्सिजन लेवल भी ठीक था, लेकिन वे जिस विश्वास से अस्पताल में भर्ती हुए थे, उनका विश्वास अब टूट चुका था।

रैपिड टेस्ट वैसे कम विश्वसनीय है। सभी लोगों का टेस्ट करना संभव नहीं है। इस टेस्ट की रिपोर्ट आने के बाद RT-PCR टेस्ट की जाती है। अस्पताल में भर्ती होते समय हम यहीं आपकी अगली टेस्ट करेंगे, ऐसा आश्वासन दिया गया, लेकिन प्रत्यक्ष में अंत तक उस तरह का कोई टेस्ट हुआ ही नहीं, फिर भी अक्षय के पास फार्मसी के रोज के 15- 20 हजार रुपए की मांगें की जाने लगी यानि लक्षण कुछ नहीं, बीमारी है या नहीं मालूम नहीं, लेकिन दवाईयों का मीटर चालू रखा गया। सवाल पैसे का नहीं था, लेकिन इन पैसों से वास्तव में कौन सी दवा लायी जा रही है, इसका प्रिस्क्रिप्शन भी नहीं दिया जाता था।

पहले दो दिन तो रोज एक बॉक्स (पचास जोड़ियां) हैण्ड ग्लोव्स लिखकर दिए। तीसरे दिन अक्षय ने प्रश्न किया तो बताया गया कि गलती से लिख दिए, ऐसा बताकर खुद को बचाने की कोशिश की। कोरोना मरीज से मुलाकात नहीं हो सकती है, यह स्वीकार्य है, लेकिन उन पर फोन से बोलने की भी पाबंदी लगा दी गई। कोरोना की वैसे भी अब तक कोई दवा नहीं आई है, खुद को संभालना यही एकमात्र उपाय है, लेकिन यहां तो लगातार सतत लोगों के बीच रहने वाले, अच्छे खासे लोगों को बिना कारण बीमार बता कर उसे लूटा जा रहा है। आराम मिले, इसलिए मिलने और लोगों के फोन बंद किए गए, यह बात समझी जा सकती है, लेकिन अक्षय को भी उनसे बोलने नहीं दिया जाता था। बहुत ज्यादा आग्रह करने पर नर्स की उपस्थिति में एक मिनट बोलने दिया गया। दूसरी स्थिति में काउंटर पर हजार रुपए रिश्वत के तौरपर देकर अक्षय अपने पिता से बातचीत कर लेता था। अक्षय के पिता ने खाना भी अच्छी तरह से न मिलने की शिकायत की थी, उस वजह से भी अक्षय बहुत परेशान हो गया था।

4 अगस्त को रात अक्षय को फोन आया, उस समय तक जयंत काका को ऑक्सीजन की नली में जकड़ कर रखा गया। अस्पताल में पिता के साथ ‘क्या हो रहा है, इस बात की कोई खबर अक्षय समेत परिवार के अन्य लोगों को पता ही नहीं चल रही थी। पैसे की कोई बात नहीं थी, सांसद गजानन कीर्तिकर ने कहा था कि पैसे जितने लग रहे हैं मैं देने के लिए तैयार हूं। म्हाडा के पूर्व अध्यक्ष मधु चव्हाण की ओर से भी मदद मिली। विधायक प्रताप सरनाईक, नीलम गोऱ्हे सभी के फोन आए। स्थानीय नगरसेवक भी मदद दे रहे थे, लेकिन डॉक्टर क्या इलाज कर रहे थे, यही पता नहीं चल रहा था। वे किसी भी तरह की जानकारी नहीं देते।

“आज ही पिंक फार्मसी, मुलुंड से रेमडेसिवीर नामक औषधि लाने को कहा, यह दवा यहां नहीं मिलती, ब्लैक में महंगी पड़ेगी, ऐसा कहा जाता है, उसके लिए आधार कार्ड जरूरी होता है। 27 हजार रुपए के पांच इंजेक्शन्स लाए, वगैरह- वगैरह वह बताता रहा। अब ‘ब्लैक में दवा मंगाने पर भी आधार कार्ड क्यों लगेगा, यह बहुत बड़ा सवाल है। सरकारी मान्यता प्राप्त कोरोना सेंटर की ओर से ब्लैक में मरीजों को दवा देनी चाहिए क्या ? उसके गुणवत्ता की जिम्मेदारी कौन लेगा? रेमडेसिवीर का साइड इफेक्टस भी बहुत अधिक है। उम्र के हिसाब से काका को वह दवा सूट होगी क्या ? अभी कोरोना कन्फर्म हुआ ही नहीं है, फिर भी दवा मरीज को देनी चाहिए क्या?” इस तरह के बहुत से प्रश्न थे, ऐसी हालत में मरीजों को देखने के लिए डॉक्टर भी नहीं आ रहे थे, इस वजह से अक्षय परेशान हो गया था। अस्पताल प्रशासन के कहे अनुसार उसने पैसे दिए, लेकिन कुछ गलत हो रहा है, इस बात का एहसास भी हो रहा था।

उस रात 2.30 बजे तक हम लोग एक-दूसरे के संपर्क में थे। मालवी मदद करेंगे, इसका पूरा भरोसा था। सुबह उनको फोन किया जाता था और नितीन तोरसकर, दिलीप इनकर समेत कुछ अन्य पत्रकार मित्र मिलकर वेल्लम अस्पताल की ओर रूख करते थे। वहां से डिस्चार्ज लेकर काका को सरकारी अस्पताल में भर्ती करने का निर्णय लिया गया। कुछ कॉम्प्लिकेशन्स न हो, इसलिए साथ में एक विश्वासपात्र डॉक्टर को साथ में रखने का विचार भी किया गया था। दीपक कैतके ने ‘ जेजे में भर्ती करने की बात कही, लेकिन दूसरे दिन सुबह अस्पताल के कर्मचारियों ने अक्षय को बहुत ज्यादा भयभीत कर दिया। यहां से बाहर निकलने के बाद दूसरे अस्पताल में जाने तक कुछ भी हो सकता है, इस तरह का भय अक्षय के मन में भर दिया गया। इससे अक्षय का धैर्य जवाब दे गया और जयंत काका को सरकारी अस्पताल में भर्ती करने का इरादा उसने त्याग दिया।

लेकिन इस सब के बीच जयंत काका के साथ मनमानी का दौर जारी ही रहा। जब अक्षय ने समय मांग कर अपने पिता से मुलाकात की तो पता चला कि जयंत काका ने बेड पर शौच कर दी, यह शौच सूख गई थी, उसे कोई साफ करने वाला नहीं था। अक्षय ने इस बारे में जब अस्पताल प्रशासन से पूछा कि पिता के बेड पर जो गंदगी है, उसे साफ क्यों नहीं गया तो अस्पताल प्रशासन ने कहा कि बेड साफ हो जाएगा। एक मरीज के साथ इस तरह की लापरवाही की जा रही है, जिस अस्पताल में सरकारी अस्पतालों की तरह ज्यादा मरीज नहीं होते, वहां ज्यादा भीड़ भी नहीं होती, फिर भी मरीजों की देखरेख क्यों नहीं की जाती।

शाम तक डॉक्टर नहीं आए थे, फिर भी दवाईयों के लिए 40 हजार रुपए मांगे गए। कौन सी दवाएं देनी हैं, उसके बारे में कोई डिटेल्स नहीं दिए गए। और 6 अगस्त को तड़के 4.30 बजे जयंत काका को हार्ट अटैक का झटका आया और उनका निधन हो गया। जयंत काका जब तक अस्पताल में भर्ती रहे, उस काल में जयंत करंजवकर तथा उनके परिजनों ने जो परेशानी सहन की, उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? वेल्लम अस्पताल के डॉ.सुशील साखरे तथा डॉ. प्रसिता क्षीरसागर पर क्या कार्रवाई की जाएगी?

जयंत करंजवकर का निधन 70 वर्ष की आयु में हुआ, उन्होंने अपना जीवन अच्छी तरह से जीया। अपना पूरा जीवन अच्छी तरह से जीने वाला, सभी की चिंता करने वाला वाला व्यक्ति मेडिकल व्यवसाय के दलदल में फंसकर अपने जीवन के अंतिम समय में परेशानी सहने को मजबूर हुआ। इसके साथ ही एक और डर है कि ‘जयंत करंजवकर जैसे अच्छे और प्रसिद्ध व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ है तो अन्य सामान्य लोगों की इन निजी अस्पतालों में क्या हालत हुई होगी। यह कल्पना करके मन भयभीत हो जाता है।

यहां अक्षय सदैव स्थितियों से मुकाबला कर रहा था। अनेक स्थानों पर मरीज के रिश्तेदार दवाखाने में पैर रखने की हिम्मत नहीं करते, उनकी क्या हालत होती होगी? इसके बारे में कल्पना करने की इच्छा भी नहीं होती। जयंत काका को वास्तव में कोरोना था क्या? इसका उत्तर अब नहीं मिलेगा, अगर मिला भी तो उसका कोई उपयोग नहीं है। लेकिन अब तो कोरोना के नाम पर जो डर रूपी बाजार चलाया जा रहा है, उस पर विराम लगाना बहुत जरूरी हो गया है।

युवा व्यक्ति बिना किसी लक्षण के कोरोना पॉजिटिव आते है और दवाखाने में भर्ती होने के बाद ह्दयघात ने चल बसते हैं । ऐसी घटनाएं बार- बार सुनने को मिल रही है। ये वास्तव में कोरोना के शिकार व्यक्ति हैं या फिर कोरोना के भय मात्र से अपनी जीवन लीला समाप्त करके इस दुनिया से चले गए हैं, यह शोध का विषय है? गलत दवाओं से जयंत काका की मौत हुई या फिर अस्पताल प्रबंधन के लापरवाही के वे शिकार हुए, इसकी पड़ताल करनी बहुत जरूरी है। अनीति तथा मुनाफेखोरी के रास्ते चल रहे अस्पताल प्रशासन पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है।

‘महात्मा फुले जीवनदायी स्वास्थ्य योजना’ सिर्फ कागजों पर दिखाने से कोई उपयोग नहीं होगा, उस पर अच्छी तरह से अमल किए जाने से ही योजना की सार्थकता सिद्ध होगी। निजी अस्पतालों में मरीजों के साथ क्या किया जा रहा है, इसका हिसाब किताब रखना भी बहुत जरूरी हो गया है, अगर ऐसा नहीं किया गया तो कोरोना से भी ज्यादा इस जानलेवा व्यवस्था से ज्यादा लोगों को मौत होगी।

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उन्मेष गुजराथी- (९३२२७५५०९८)
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार https://www.facebook.com/unmesh.gujarathi.1 से

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