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ज्वैल थीफः फिल्मी दुनिया के वो रिश्ते, वो हुनर और वो सुनहरे दिन

अपने समय से आगे की सोच थी 1967 में बनी फिल्म ‘ज्वैल थीफ’ में। आज भी इस फिल्म का जादू बरकरार है। इस फिल्म के निर्माण से जुड़े रोचक किस्से बता रही हैं दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ फीचर एडिटर जयंती रंगनाथन…

दिलचस्प किस्सों से शुरुआत हुई थी ‘ज्वैल थीफ’ की। सदाबहार अभिनेता देव आनंद और उनके निर्देशक भाई विजय आनंद उन दिनों सफलता के आनंद में गोते खा रहे थे। उनकी पिछली फिल्म ‘गाइड’ को हर तरह से कामयाबी मिल चुकी थी। बॉक्स ऑफिस पर खूब चली, जनता जनार्दन से भी शाबाशी मिली और बुद्धिजीवियों ने भी खूब सराहा। विजय आनंद और देव आनंद अमेरिका गए थे, यह सोच कर कि ऑस्कर अवॉर्ड के लिए गाइड को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन विजय आनंद उर्फ गोल्डी को देश आने की जल्दी थी। उनकी अगली फिल्म की कहानी तैयार थी, बस अपने वतन लौट कर उन्हें फिल्म को फ्लोर पर उतारना था।

विजय आनंद को लग रहा था कि गाइड की कामयाबी के बाद उनका काम आसान हो जाएगा। इंडस्ट्री के बड़े नाम आसानी से उनके साथ काम करने को तैयार हो जाएंगे। मुंबई आते ही उन्हें सबसे बड़ा धक्का लगा, गीतकार शैलेंद्र जी की ओर से। शैलेंद्र जी गोल्डी के प्यारे दोस्त थे और उन्होंने अपना तन-मन-धन लगा कर एक बहुत ही नायाब फिल्म बनाई थी ‘तीसरी कसम’। राज कपूर के साथ गोल्डी के ही कहने पर उन्होंने वहीदा रहमान को ‘हीरा बाई’ की भूमिका के लिए साइन किया। तीसरी कसम के गाने, संगीत, अभिनय पक्ष सब कुछ शानदार था, पर फिल्म बिलकुल नहीं चली। शैलेंद्र हर तरह से टूट गए। लाखों का कर्ज हो गया। उन्होंने गीत लिखना ही छोड़ दिया।

जबकि गोल्डी को वे पहले ही कह चुके थे कि ज्वैलथीफ के गाने वे ही लिखेंगे। रुला के गया सपना मेरा, बैठी हूं कब हो सबेरा, गाने के बोल उन्हें सुना कर एक तरह से मंत्रमुग्ध कर चुके थे।

विजय आनंद लगभग रोज शैलेंद्र जी के घर जाते, पर वे उनसे मिलने को तैयार ही नहीं होते। एक दिन विजय आनंद उनके घर के सामने ही बिलख पड़े, अपने दोस्त को इस तरह डिप्रेशन में जाते देख पाना उनके लिए बर्दाश्त से बाहर था।

उस दिन शैलेंद्र जी भी भावुक हो गए, दोस्त के गले लग गए और कहा, दोस्त शायद अब मैं कुछ रच नहीं पाऊंगा। तेरे भले के लिए कह रहा हूं, किसी और को साइन कर ले।

शैलेंद्र जी ने ही गोल्डी को मजरूह सुल्तानपुरी का नाम सुझाया। गीतकार के बाद उनकी गाड़ी रुकी संगीतकार सचिन देव बर्मन के घर पर। दादा उन दिनों इस बात पर खीझे हुए थे कि गाइड में उनका कंपोजीशन वर्ल्ड क्लास था, पर उन्हें फिल्मफेअर अवॉर्ड नहीं मिला। दादा मुंह बना कर बैठे थे कि अच्छे काम की इंडस्ट्री में कद्र ही नहीं है। स्थिति को संभाला दादा के होनहार और युवा बेटे राहुल उर्फ पंचम ने। राहुल देव बर्मन उन दिनों अपने बाबा के साथ काम करने लगे थे और गुरुदत्त की आखिरी फिल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ के लिए एक गाना कंपोज किया था, ये दिल जो ना होता बेचारा, जो उस फिल्म में इस्तेमाल नहीं हुआ। गाना सुन कर गोल्डी उछल गए, पंचम की धुन में नयापन और युवा खिलंदड़पन था। वही तो चाहिए था गोल्डी को। राहुल देव बर्मन ने वादा किया कि ‘ज्वैलथीफ’ के हर गाने में नयापन होगा।

चलिए, यहां तो बात बन गई। गोल्डी ने पहले मन बनाया कि नायिका की भूमिका के लिए अपनी गाइड की हीरोइन वहीदा रहमान को ही लेंगे। लेकिन निर्माता और नायक देव आनंद को उनके दोस्त राजकपूर ने सलाह दी कि वे ‘संगम’ की हीरोइन वैजयंती बाला को लें। उन दिनों नर्गिस से राज कपूर की अनबन हो चुकी थी और फिल्मी गलियारों में राज साहब और वैजयंती के अफेयर की खबरें फैली हुई थी और खबर यह भी थी कि इस अफेयर की भनक से राज कपूर की पत्नी कृष्णा इतनी खफा हो गई हैं कि अपने बच्चों के साथ घर छोड़ कर नटराज होटल में रहने चली गई हैं।

खैर, देव के कहने पर गोल्डी ने वैजयंती बाला को साइन कर लिया। उस समय के डेशिंग हीरो राजकुमार गोल्डी से गाइड के दिनों में कह चुके थे कि वे उनके साथ काम करना चाहते हैं। गोल्डी जब खलनायक की भूमिका लेकर राजकुमार को साइन करने गए, तो राजकुमार ने यह कह कर मना कर दिया कि तुम्हारा भाई अगर नायक है तो मैं खलनायक नहीं बन सकता। देव को फिल्म से निकालो और मुझे साइन करो।

गोल्डी को इस परेशानी से बाहर निकाला दादा मुनि यानी अशोक कुमार ने। वैसे भी अशोक कुमार उन दिनों चरित्र भूमिकाएं करने लगे थे। बाद में गोल्डी ने यह कहा भी कि अशोक कुमार से बेहतर यह भूमिका और कोई नहीं कर सकता।

ज्वैल थीफ की कहानी सस्पेंस थ्रिलर थी। नायक अमर एक हुनरमंद सुनार है, और उसका बहुरुपिया प्रिंस एक चोर। जबकि प्रिंस तो है ही नहीं। अशोक कुमार किस तरह नायक को जाल में फंसाता है और यह स्थापित करता है कि उसकी शक्ल का एक आदमी है, जो गलत काम कर रहा है। इस फिल्म में वैजयंती माला के अलावा एक खूबसूरत भूमिका में युवा और चंचलता से लबरेज तनुजा भी है, जो नायक पर मोहित है। तनुजा का गाना रात अकेली है, बुझ गए दिए जोश और मस्ती से भरपूर है।

इस फिल्म में अंत तक सस्पेंस बना रहता है। खलनायक के जाल में फंसी नायिका, उसका भाई और उन पर पल-पल डर का साया। फिल्म के लगभग क्लाइमैक्स में एक सशक्त डांस नंबर होंठों पे ऐ सी बात, के फिल्माने के पीछे भी एक वाकया है।

देव आनंद मान रहे थे कि क्लाइमैक्स में डांस नंबर नहीं चलेगा, पर गोल्डी यह प्रयोग करना चाह रहे थे। डांस मास्टर सोहन लाल ने गोल्डी की मंशा समझ ली। वैजयंती माला नामी भरतनाट्यम डांसर थी। उनकी भी यह इच्छा रहती थी कि हर फिल्म में उन्हें किसी एक गाने पर नाचने का मौका मिले। सोहन लाल ने वैजयंती माला से कहा था कि वे भरतनाट्यम भूल जाए और लोक नृत्य का अभ्यास करे। वैजयंती माला ने भी इसे चुनौती की तरह लिया। आज भी इस गाने की कोरियोग्राफी को लोग याद करते हैं।

फिल्म बन कर तैयार हुई और 27 अक्तूबर 1967 को पूरे देश में रिलीज हुई। गोल्डी बहुत तनाव में थे। उन्होंने पहली बार थ्रिलर बनाया था। लेकिन पहले ही दिन से उन्हें अच्छी प्रतिक्रिया मिलनी शुरू हुई।

गोल्डी मानते थे कि ज्वैलथीफ की कामयाबी इसलिए भी बहुत बड़ी थी, क्योंकि यह आसान फिल्म नहीं थी। इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़े। वैजयंती माला ने इसके साल भर बाद शादी कर ली, एक तरह से यह फिल्म उनके करिअर की आखिरी बड़ी हिट फिल्म थी।

इस फिल्म को बेशक खास अवॉर्ड नहीं मिला, पर देव आनंद, विजय आनंद और नवकेतन फिल्म्स के लिए मील का पत्थर साबित हुई। आज पचास सालों बाद भी टेलिविजन, यू ट्यूब में इस फिल्म को देखा, सराहा और याद किया जाता है।

(साभार: दैनिक हिन्दुस्तान फुरसत सप्लिमेंट एवं http://samachar4media.com से )