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जोगीरा समझ न पाए पीर….

सत्ता की सजी हुई बिसात और शतरंज की जमी हुईं मोहरें, दोनों ही रंग राजनीति के वर्चस्व को स्थापित करते हैं। सरयू के पानी की तासीर और राजनीति का केन्द्रीय क़द भारत भारत के वर्तमान और भविष्य को तय करते हैं। आम चुनाव के बाद जब उत्तर प्रदेश के चुनाव आते हैं तो वह भारत का भविष्य बनाते हैं। बीते आधे दशक से उत्तर प्रदेश में भगवा ही सत्ताधीश है किन्तु इसी दौरान आपदा और विपदाओं के साथ-साथ राम जन्मभूमि मुद्दा भी सुलझ गया। अब अयोध्या के राजा के तम्बू भी राजमहल में परिवर्तित होने जा रहे हैं। सरयू तो अयोध्या का चरण अभिषेक करने को आतुर रहती है और इस तरह केन्द्रीय राजनीति भी अपने भविष्य को लेकर उत्तर प्रदेश की तरफ़ अपनी उम्मीद का मुँह रखकर रणनीति और कूटनीति की बिसात जमाती है।

आगामी वर्ष में उत्तर प्रदेश में चुनाव का त्यौहार आ रहा है, इसी बीच कोरोना की भयावहता भी बरकरार रह रही है। तीसरी लहर की ललकार बनी हुई है, भयाक्रांत जनता भी सत्ता के मनोभावों को समझने के प्रयास में कुछ सुलझी-कुछ उलझी हुई सी है। एक तरफ़ योगी का सत्ता साम्राज्य है तो वहीं दूसरी तरफ़ साईकिल पर अखिलेश यादव की साईकिल यात्रा। प्रियंका और मायावती भी सत्ता को पलटने के लिए लालायित हैं। यहाँ सत्ता के साथ-साथ जनमत का परिवर्तन भी मायने रखता है। उत्तर प्रदेश का बनारस प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र बनता है और इसी के साथ, केन्द्र सरकार की निगाह भी उत्तर प्रदेश पर टिकी हुई रहती है।

कोरोना की भयावहता के प्रभाव इस बार चुनावों पर हावी रहेंगे क्योंकि ऑक्सीज़न, अस्पताल, इंजेक्शन, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में जिन्होंने अपना कोई खोया है वो ताउम्र याद रहेगा, किसानों की बदहाली, उत्तर प्रदेश की ओर पलायन करता मज़दूर, रोज़गार के अभाव में घर बैठा नौजवान, नौकरियों की तलाश में दर-दर भटकता युवा, दम तोड़ती व्यवस्थाएँ, ऑक्सीज़न की कमी से मरने वाले बच्चे आदि सब जनता याद रखेगी। इसीलिए लगता है कि वर्तमान सत्ताधीश योगी आदित्यनाथ जनता की पीड़ा शायद समझ नहीं पाये। राजनीति का योग इस बार योगी जी के विरुद्ध ही जा रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी भी कहीं न कहीं योगीजी से ख़फ़ा-ख़फ़ा से रहने लगे हैं। कहीं न कहीं ये मणिकांचन योग ही योगी जी की सत्ता परिवर्तन का कारण न बन जाए।

बीते लगभग पाँच वर्षों का आँकलन किया जाए तो योगी आदित्यनाथ का अहम उस टकसाल की तरफ़ बढ़ रहा है, जिसके भीतर केन्द्रीय सत्ता का मोह निकलता है। इसी अति महत्त्वाकांक्षा के चलते राजनीति को साधने के लिए योगी जी जनता का तप भूल गए। चार सौ से अधिक विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनावों में इस बार ध्रुवीकरण भी अपना प्रभाव दिखायेगा, गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर बनने के बाद योगी आदित्यनाथ का प्रभाव गोरखपुर क्षेत्र में तो बड़ा है किन्तु इस बार अखिलेश के साथ शरद पँवार मैदान में उतर रहे हैं और मायावती भी सोशल इंजीनियरिंग कर ब्राह्मणों को साध कर राजनैतिक वनवास को ख़त्म करने के प्रयास में लगी हुई हैं। एक तरफ़ अखिलेश जाट-मुस्लिम एकता का झण्डा उठाए राजनैतिक समीकरणों में सेंध लगाने के तैयारी कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मायावती भी लगातार जातिगत वोटरों को एकजुट कर अपने पारम्परिक समीकरणों को छोड़कर राजनीति में एक नया समीकरण बना रही हैं। बीते दिनों पंचायत चुनावों में भाजपा प्रचंड बहुमत हासिल कर इसे विधानसभा चुनाव का सेमीफ़ाइनल बता रही है, उसी पंचायत चुनाव में तो उत्तर प्रदेश के 75 ज़िलों में से 22 ज़िलों के पंचायत अध्यक्ष पहले ही निर्विरोध निर्वाचित हो चुके थे, जिनमें 21 बीजेपी के और इटावा में समाजवादी पार्टी का एक उम्मीदवार ज़िला पंचायत अध्यक्ष बिना विरोध ही चुन लिया गया था। इसी के साथ जिन 53 ज़िलों में चुनाव हुए, उनमें बीजेपी ने 46 सीटें जीती हैं. समाजवादी पार्टी को कुल पाँच सीटें मिली हैं जबकि रालोद और राजा भैया की पार्टी जनसत्ता दल को एक-एक सीट पर जीत हासिल हुई है। इसके साथ मज़ेदार बात तो यह भी है कि कुछ माह पहले हुए ज़िला पंचायत सदस्यों के चुनाव में ज़िलों के कुल 3052 सदस्यों में से बीजेपी के खाते में केवल 603 सदस्य ही जीते थे जबकि समाजवादी पार्टी के सदस्यों की संख्या 842 थी। सबसे ज़्यादा सीटें निर्दलीयों ने जीती थीं और ये अलग बात है कि यही निर्दलीय सदस्य ज़िला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में बीजेपी के खेवनहार बन गए।

यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह देश में जाट समुदाय के सबसे बड़े नेता के तौर पर जाने जाते थे। उन्होंने प्रदेश और देश की सियासत में अपनी जगह बनाने, राज करने के लिए ‘अजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) और ‘मजगर’ (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) फॉर्मूला बनाया था। पश्चिम उत्तर प्रदेश में इसी समीकरण के सहारे आरएलडी हमेशा नेतृत्वकर्ता बनती रही है, लेकिन 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के बाद यह समीकरण भी पूरी तरह से टूट गया है और जाट और मुस्लिम दोनों ही आरएलडी से अलग हो गए, इसी कारण जयंत सिंह को हार का मुँह देखना पड़ा था। इस बार अखिलेश और जयंत साथ-साथ चुनाव लड़ने के लिए आमादा हैं और हो सकता है योगी और भाजपा के विरोध स्वरूप जनता इस बार अखिलेश का हाथ थाम ले। क्योंकि न योगी और न ही मोदी मिलकर उत्तर प्रदेश की जनता की पीर समझ पाए। विकास के मुद्दे पर चुनाव जीतने वाले दल भारतीय जनता पार्टी की सरकार असली विकास को धता बताकर केवल नाम परिवर्तन की राजनीति में उलझे हुए रहे, इसी कारण जनता अपना मत इस बार बदल दे और राजनीति की सभी गोटियाँ धरी की धरी रह जाएँ।

उत्तर प्रदेश में इस बार योगी आदित्यनाथ जनता की पीड़ा समझने में उतने कामयाब नहीं रहे, जितनी उनसे अपेक्षाएँ थीं और शायद यही कारण सत्ता परिवर्तन का भी हो। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि राम जी के तम्बुओं को राजमहल बनाने के अवदान के चलते भाजपा को जनता एक बार अवसर फिर दे दे किन्तु इसकी सम्भावना कम ही है। मानस में लिखा भी है कि ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’ और उत्तर प्रदेश की जातिगत विभिन्नताओं में बँटी हुई राजनैतिक जाजम इस बार फिर एक करिश्मा करेगी।

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार, स्तंभकार एवं राजनैतिक विश्लेषक
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