Friday, March 29, 2024
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क्या कश्मीरी हिन्दुओं की किस्मत में तारीख पे तारीख़ तारीख़ पे तारीख़ ही बची है ?

जिस प्रकार से जम्मू कश्मीर की सरकार के मुख्य मंत्री और ऊपमुख्यमंत्री टूरिस्ट को कश्मीर घाटी में आने का निमंत्रण देने के लिए देश में भ्रमण करने निकाले थे क्या अच्छा नहीं होता कि अगर बे इस प्रकार से कश्मीरी विस्थापितों के बीच जा कर उन का विश्वास जीतने की कोशिश करते। पर एसा नहीं किया जाता यह एक बड़ी विडम्बना है। क्या सरकार में बैठे लोग इस बात का उत्तर देंगे कि अगर कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित जो बहाँ के सामाजिक दांचे को अच्छी तरह समझता है और जिस के बिना सभी कहते हैं कि कश्मीर का मुस्लिम समाज भी अधूरा है, कश्मीर घाटी में सुरक्षित नहीं महसूस करता है तो फिर जिस टूरिस्ट को न्योता दिया जा रहा है बे बहाँ कैसे सुरक्षित है ?

एक समय था जब विधान सभा में कहे जाने बाले एक एक शब्द पर सरकार और समाज चिंतन करने लग जाता था। पर आज के दिन विधान सभा में कहे गए शब्द कई बार पक्ष विपक्ष के विवाद में खो जाते हैं जब कि उन में से कुछ बातों पर चिंतन करना तो हमें कई दुविधाओं और समस्याओं से भी बाहर निकाल सकता है। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहमद सईद जी ने 9 अप्रैल के दिन विधान सभा में जो कहा जिस में उन्होंने कश्मीरी समिति (KPS) का भी हवाला दिया; उस पर भारत सरकार को खास तोर पर ध्यान देना चाहिए था। पर लगता है मुफ़्ती जी द्वारा की गई टिपण्णी को मोदी सरकार ने भी कांग्रेस सरकार की तरह हलके से लिया है। मुफ़्ती जी ने कहा था  “कि मेरी होम मिनिस्टर ऑफ़ इंडिया से बात हुई मैंने उन को कह दिया यह अल्ग नहीं रह सकते .. अगर होगा तो इकठ्ठे रहेंगें ..  तो  मैं  यह यहाँ कहना चाहता हूँ, हाउस से, यह हमारी एक डाइवर्सिटी का नमूना हैं, बल्कि जिस तरह से इस में शोर किया गया है, कोई प्लान  नहीं…. कोई execution नहीं,  हवा बना के कह दिया गया के भई  इन का  अलग  कोई होम लैंड बनाएया जाएगा …. that is not possible, इस ने कह दिया अगर आ भी जाएंगे… KPS एस्टिमेट्स given all the facilities provided by the government only 10 to 15 % of kashmiri would  choose to return और बे कहते हैं कि अगर बनाएंगे भी तो बे seasonal आएंगे ….   …. They are highly placed …”।

हर उस व्यक्ति को जो जम्मू कश्मीर में सुख शान्ति की कामना करता है, सोचना चाहिए कि अगर एक मुख्यमंत्री यह कह रहा है कि उस की सूचना के अनुसार सिर्फ 10-15% कश्मीरी पंडित माईग्रेंट्स ही अल्ग टाउनशिप बनने पर भी कश्मीरी घाटी में रहने के लिए जाएंगे तो केंद्र सरकार को अभी तक किए गए घर बापसी के प्रयासों पर हुए समय और पैसे पर एक प्रशासनिक ऑडिट नहीं बिठा देना चाहिए था? मुफ़्ती जी की ओर से दी गई इतने महत्व की सलाह को इतने हलके से लेना क्या ठीक है?

इस पर भी कोई दिल्ली का समर्थक कह सकता है कि दिल्ली  की सरकार ने मुफ़्ती जी की सलाह को हलके से नहीं लिया है क्योंकी अगर हलके से लिया होता तो श्री हरीभाई पराथिभई चौधरी जी गृह राज्यमंत्री लोक सभा में 5 मई को यह नहीं कहते कि अभी तक किए गए प्रयासों के बाबजूद सिर्फ एक ही परिवार कश्मीर घाटी को बापिस गया है, जिस ने घर बनाने के लिए 7.5 लाख का अनुदान लिया है और 1 मई 2015 से कश्मीरी विस्थापितों को मासिक रिलीफ 6600 से बढाकर 10000 किया जा रहा है।

कश्मीरी माईग्रंट्स ( कश्मीरी पंडित) के कुछ प्रतीनिधी  कहते हैं कि जिस प्रकार के हालात हैं उन को देखते हुए बे तब तक कश्मीर घाटी में सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे, जब तक सरकार कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित के लिए चिन्हित अल्ग जोन या कॉलोनी बनाने का फैसला नहीं करती. दूसरी ओर जम्मू कश्मीर सरकार और भारत सरकार ने साफ़ शब्दों में कहा है सरकार कश्मीरी पंडित के लिए अलग जोन या टाउनशिप या कॉलोनी बनाने का कोई इरादा या प्लान नहीं रखती है।

कश्मीरी विस्थापितों को घाटी से बाहर निकले हुए 25 साल गुजर चुके हैं। इसलिए इन हालात में, ऐसी सोच के होते हुए, क्या विस्थापितों की घाटी बापसी की आशा की जा सकती है?

इस प्रकार के बिगड़े हुए वातावरण में क्या बीजेपी–पीडीपी सरकार को बजाए इस के कि मीडिया का सहारा लेकर टूरिस्ट को कश्मीर घाटी में गर्मी का मौसम काटने के लिए यह कहा जाए कि घाटी में उन के लिए सुरक्षित और लुभाबना बातावरण है, सरकार को कश्मीरी पंडितों के बीच जा कर उन को सरकार की योजना नहीं समझनी चाहिए? क्या सरकार को जमीनी स्तर पर आम कश्मीरी पंडित तक यह सन्देश पहुँचाने का पुरज़ोर अभियान नहीं चलाना चाहिए की घाटी में उनको आत्म सम्मान से जीने का वातावरण सरकार देने में सक्षम है?

अगर जम्मू कश्मीर में शांति और सद्भावनापूर्ण वातावरण पैदा करना है तो आज जरूरत प्यार और एकता के सेतु बनाने की है न कि रेत और सीमेंट के भाबनाओं से रहित ढांचे खड़े करने की। जिस प्रकार की नीतिंयां अभी तक अपनाई गई हैं उन से दरारें और भी गहरी हुई हैं। इस लिए अब मोदी जी के नेतृत्व बाली सरकार को तो कम से कम अपनी  प्राथमिकताएं पिछली सरकारों से कुछ हट कर चिन्हित करनी होंगी, नहीं तो कश्मीरी पंडितों के कारवाँ को जवाहर टनल के पार जाने के लिए हरी झंडी दिखा पाना एक सपना ही रहेगा।

साल 1947 से पहले जैसे कुछ कश्मीरी नेताओं ने डोगरा राज के विरोध में आन्दोलन शुरू करके और उस का कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने साथ दे कर जम्मू कश्मीर रियासत की स्थिति को बिगाड़ दिया था बैसे ही भारत के विरुद्ध कुछ प्रथिक्ताबादी तत्बोँ द्वारा किए गए आन्दोलन को दिल्ली द्वारा मुख्यधारा के कहे जाने बाले नेताओं की सत्ता में बने रहने की लालसा पर अंकुश न लगाने से 1947 के बाद भी कश्मीर घाटी में  भारत की नियत और जम्मू कश्मीर के लोगों की राष्ट्रियता  पर प्रश्न प्रशन खड़े करना २०१५ में भी एक आम बात बनती दिख सकती है इस बात को नजरअंदाज करना घातक सिद्ध होगा।

(श्री दया सागर जी जम्मू कश्मीर के विस्थापितों के हितों के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं -संपर्क-  [email protected])

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