Thursday, March 28, 2024
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केदारनाथ सिंहः हिन्दी कविता के एक युग का अंत

हिन्दी की समकालीन कविता और आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर और अज्ञेय के तीसरा तार सप्तक के प्रमुख कवि डॉ. केदारनाथ सिंह का सोमवार को दिल्ली में निधन हो गया। केदारनाथ सिंह चर्चित कविता संकलन ‘तीसरा सप्तक’ के सहयोगी कवियों में से एक थे। इनकी कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं। केदारनाथ सिंह ने कविता पाठ के लिए दुनिया के अनेक देशों की यात्राएं की थी।

पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि डॉ. केदारनाथ सिंह को करीब डेढ़ माह पहले कोलकाता में निमोनिया हो गया था। इसके बाद से वह बीमार चल रहे थे। उनका सोमवार रात करीब साढ़े आठ बजे एम्स में निधन हो गया। वह 84 वर्ष के थे। उनके परिवार में एक पुत्र और पांच पुत्रियां हैं।

उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार और व्यास सम्मान सहित कई सम्मानों से पुरस्कृत किया गया था। उनके प्रमुख कविता संग्रहों में ‘अभी बिलकुल अभी, जमीन पक रही है, यहां से देखो, बाघ, अकाल में सारस और उत्तर कबीर शामिल हैं। आलोचना संग्रहों में ‘कल्पना और छायावाद, मेरे समय के शब्द प्रमुख हैं।

भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष 2013 में 49 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। केदारनाथ सिंह यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के 10 वें लेखक थे।

केदारनाथ सिंह का जन्म नवंबर 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में हुआ था। उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से 1956 में हिन्दी में एमए और 1964 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। उन्होंने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में बतौर आचार्य और अध्यक्ष पद पर भी सेवा दी थी।

स्व. केदारनाथ सिंह की कविताएँ

हिंदी मेरा देश है
भोजपुरी मेरा घर
….मैं दोनों को प्यार करता हूं
और देखिए न मेरी मुश्किल
पिछले साठ बरसों से
दोनों को दोनों में
खोज रहा हूं।

——————————–

बिना कहे भी जानती है मेरी जिह्वा
कि उसकी पीठ पर भूली हुई चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई क्रियाओं को
रात-रात भर
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण।

कि राज नहीं-भाषा
भाषा-भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को
अरबी-तुर्की बांग्‍ला तेलुगू
यहां तक कि एक पत्‍ती के हिलने की आवाज भी
मैं सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिन्‍दी.

—————————————-
जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते

कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते

कविता संग्रह : अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहां से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, तालस्ताय और साइकिल

आलोचना : कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार

संपादन : ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)

सम्मान ः मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान

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