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जानिये हमारी ज्ञान परंपरा के मर्म कोः कुछ शब्द उनके संदर्भ, व्युत्पत्ति, स्पष्टीकरण और कुछ इतिहास!

वट क्या है और अवट क्या है! वेद में अवत शब्द प्राप्त होता है। अवट भी प्राप्त होता है।
पहले वट को देखें, पञ्चवटी नाम प्रसिद्ध है। वटु या वटुक वटवृक्ष के नीचे अध्ययन करने से या वट की स्तम्भ मूल का स्वतन्त्र वृक्ष बन जाने से वटुओं की संज्ञा हुई।

नारद पुराण के अनुसार ‘मघा’ से वट की उत्पत्ति हुई। वैदिकी पूजा में पञ्चपल्लव – आम्र, अश्वत्थ, वट, पर्कटी, उदुंबर – के ग्राह्य हैं।

न्यग्रोधाकृतिकं विष्णुं अर्थात् विष्णु की आकृति न्यग्रोधवत् बताई जाती है। न्यग्रोध परिमण्डल की विशेषता यह कही गई है कि ऊँचाई के बराबर ही विस्तार भी होता है। ऐसा वट/बड़ और रबड़ के वृक्षों में दिखता है। वस्तुतः ऊर्ध्वमूलम् अधः शाखः का लक्षण अश्वत्थ कुल के वृक्षों में ही होता है और इन्हीं वृक्षों का न्यग्रोध परिमण्डल होता है।

वट को न्यग्रोध कहा गया है,
वट Y आकृति के विपरीत आकृति अवट है – π , Λ , λ जैसी आकृति का गर्त्त या कूप ‘अवट’ है। मुख पर सँकरा और गहराई में चौड़ा। जिसे स्वाति संस्थान भी कहा
जाता है। श्रावण नक्षत्र की संज्ञा #अश्वत्थ तथा देवता विष्णु काठक संहिता ३५.१५ में कहे गये हैं। इसकी संभावना है कि अभिजित् के लिये यह कथन हो। तब नारदपुराण के कथन, “मघा नक्षत्र से वट की उत्पत्ति” की संगति हो जायेगी। उस काल में अभिजित् का भोगांश ३०५° रहा होगा।

काशकृत्स्न धातुकोशे –
वट वेष्टने १.८९
वट अवयवे १.१०७
वट भट परिभाषणे (व्यक्त भाषणे) १.५९६
भट वट ग्रन्थे (प्रारम्भकरणे)- ९.१९७
वट विभाजने (हस्तशिल्पे)- ९.२४८ (अवटम्-गहनम्)
वटि विभाजने – १.१२७

अत्र वट धातोः एकमर्थं व्यक्तभाषणमस्ति।
वटस्य द्वितीयं पक्षम् अवटमस्ति।।
★अवत = पु० अव–अटच् वेदे पृ० टस्य तः।
अवटरूपे कूपादौ निरु० “सिक्तमवतम्” ऋ० १, १३०, २ “अवतमवटमिति” भा० “अवते न कोशम्” ऋ० ४, १७,१६। (वाचस्पत्यम्)

अर्थात् प्रत्येक वृक्ष को वट नहीं कहा जा सकता है और न ही प्रत्येक गड्ढा अवट है।
Geometry का मामला है।
चित्र में न्यग्रोधाकृति न्यग्रोध वृक्ष की ही है। न्यग्रोध माने rubber tree.

*मणि-मोती*

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम्।।

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने।।

साहित्य में मणि मुक्ता की उपमा और इनका वर्णन प्रचुरता में उपलब्ध है। नाग मणि का भी उल्लेख आता है। यह नागमणि क्या है?
इस पर मुझे गज और नाग का साम्य ही एकमात्र समाधान सूझता है।

शोणरत्नं लोहितकः पम्द्मरागोऽथ मौक्तिकम्।
मुक्ताथ विद्रुमः पुंसि प्रबालं पुं-नपुंसकम्।
रत्नं मणिर्द्वयोर् अश्मजातौ मुक्तादिकेऽपि च। (अमरकोश)

गज मुक्ता {बृहत्संहिता के अनुसार} पुष्य या श्रवण नक्षत्र में, रविवार या सोमवार के दिन, सूर्य के उत्तरायण में, सूर्य या चंद्रमा के ग्रहण के दिन, ऎरावत कुल में उत्पन्न जिन हाथियों का जन्म होता है उनके दाँतों में बड़े-बड़े और अनेक प्रकार के चमकीले मोती निकलते हैं। इनमें छिद्र नहीं किए जाते। वराहमिहिर कहते हैं कि इन मोतियों को धारण करने से पुत्र, आरोग्य और विजय की प्राप्ति होती है।

नाग (सर्प) मणि वराहमिहिर ने सर्प मणि को लेकर एक श्लोक लिखा है-
भ्रमरशिखिकण्ठवर्णो दीपशिखासप्रभो भुजङ्गानाम्।
भवति मणि: किल मूर्धनि योऽनर्घ्येय: स विज्ञेय:।।
(वराहमिहिर)

अर्थात भ्रमर या मयूर के कण्ठ के समान वर्ण वाली, दीपशिखा के समान कांति वाली अमूल्य मणि सर्पों के
सिर पर होती है। सर्पमुक्ता को मणि की संज्ञा दी गई है। मणियों को सामान्य रत्नों से भी ज्यादा शुभ और अमूल्य माना गया है। जो राजा या महान् व्यक्ति मणि धारण करते हैं उनको विष संबंधी रोग-दोष नहीं होते और सदा विजयी होते हैं।

“किल” का प्रयोग Kill की भाँति समझना क्या भूल होगी? किल का प्रयोग सम्भवत: तभी करते हैं, जब वक्ता या ग्रन्थकार स्वयं ही आश्वस्त नहीं होते हैं! संस्कृत भाषा में नाग और गज पर्यायवाची भी हैं। सर्पमणि किसी ने देखी भी नहीं है। हाथी से मुक्ता मिलने की बात सच है। यह सुन्दर नहीं होता है।

अब एक विशेष तथ्य पर सबका ध्यानाकर्षित होना आवश्यक है.. (निरुक्त २.२.११) स्यमंतक मणि से संबंधित कथा का निर्देश यास्क के निरुक्त में प्राप्त है, जहाँ अक्रूर मणि धारण करता है (अक्रूरो ददते मणिम्), इस वाक्य प्रयोग का निर्देश Present tense वर्तमान काल, में दिया गया है [नि. २.२ .११ ]। इस निर्देश से स्यमंतक मणि के संबंधित कथा की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता स्पष्टरूप से प्रतिपादित होती है। साथ ही यह भी सुनिश्चित होता है कि यास्क अक्रूर के समकालिक थे अर्थात् महाभारत के काल में यास्काचार्य का होना सिद्ध होता है।

‘शिवताण्डवस्तोत्रम्’ के १२वें श्लोक में भगवान् सदाशिव के अनुराग में आप्लावित रावण का अंतःकरण कहता है कि पत्थर और रंग-बिरंगी शय्या में, सर्पमाल तथा मोतियों की माला में, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के ढ़ेले में, मित्र और रिपु-पक्ष में, तृण व कमलनयनी कामिनी में, प्रजा व महाराजाधिराज में समान भाव रखता हुआ न जाने कब मैं सदाशिव की आराधना करूंगा!….
दृषद्+विचित्रतल्पयोः …।

जिस पत्थर की सिल द्वारा धान्य का पेषण किया जाता है, उसे यज्ञ की भाषा में दृषद् कहते हैं तथा बट्टे को उपल कहते हैं। दृषद् के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.२.१.१५ आदि में कहा गया है कि दृषद् पर्वती धिषणा है और उपल पार्वतेयी धिषणा है।

कौटिल्य बता गये हैं कि
यंत्र गोष्पण मुष्टि पाषाण रोचनी दृषदश्चाश्म आयुधानि ।। ०२.१८.१५॥
यंत्रपाषाण, गोष्फणपाषाण, मुष्टिपाषाण, रोचनी और दृषद्—अश्म, ये सब आयुध कहलाते हैं।

पहले तीर्थों से यही बटोर बटोर कर लाकर पूजास्थल, मन्दिर में रख दिया करते थे, घर में जब बहुत भगवान् हो गये और हर दिन स्नान कराने, तिलक आदि करने में बहुत समय लगने लगा तो एक दिन कहा कि अम्मा इन्हें गंगा जी में सिरा आते हैं।

कुम्भ – अर्थात् जिसमें जल भरा हो, जलपूरित घट की कुम्भ संज्ञा होती है। सातवें मण्डल के तेतीसवें सूक्त की दो ऋचायें द्रष्टव्य हैं –

विद्युतो ज्योतिः परि संजिहानं मित्रावरुणा यदपश्यतां त्वा।
तत्ते जन्मोतैकं वसिष्ठागस्त्यो यत्त्वा विश आजभार॥

२. सत्रे ह जाताविषिता नमोभिः कुम्भे रेतः सिषिचतुः समानम्।
ततो ह मान उदियाय मध्यात्ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥

इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है-
ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव।
तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥

इस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ। मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुञ्जीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ।

इस वैदिक आख्यान की व्याख्या इतिहास-पुराणों में अनेकत्र प्राप्त होती है। पुराणों की कथाओं में समयानुसार अन्य तथ्यों का समावेश हुआ। इस प्रकार मित्रावरुण, जिन्हें वेद मंत्रों में वृष्टि का अधिपति कहा गया, वे अगस्त्य वर्षा के अन्त के सूचक मान लिये गये। अरब देशों में अगस्त्योदय को ग्रीष्म ऋतु के अन्त से जोड़कर देखा जाता है। मित्र और वरुण जिनका पृथक्-पृथक् तथा समवेत उल्लेख प्राप्त होता है, इसमें मित्र शुक्ल/उत्तर के तथा वरुण कृष्ण/दक्षिण से सम्बद्ध हैं।

‘मित्रावरुण’ का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि आकाश में #कुम्भ_राशि में ही उत्तरायण/दक्षिणायन विभाग था तथा इससे सटी हुई #मीन_राशि का भी सम्बन्ध वर्षा-ऋतु (दो मास) से था। #उर्वशी “उरु वशे यस्याः” अर्थात् जिसके वश में उरु/उडु हैं वह उर्वशी। उर्वशी अप्सरा है.. आप् अर्थात् जल के आश्रय से जिसका सरण अर्थात् संचार होता है वह अप् सरः है (अप्सु सरति)।
द्वितीय मंत्र में आया हुआ रेतः का अर्थ उदक या जल ही है।
अर्थात् मित्रावरुण द्वारा उर्वशी (उडु-नक्षत्र को बाँधने वाला क्रान्तिवृत्त का वह बिन्दु) को देखे जाने पर कुम्भ तथा मीनराशिगत सूर्य के होने पर जल वर्षण होता था।

कुम्भ राशि में दक्षिणायनारम्भ की स्थिति का प्रकटन उपर्युक्त ऋचा में है। इसी समय दक्षिणी आकाश में ‘अगस्त्योदय’ हुआ करता था। खगोलीय गणित से यह स्थिति आज से प्रायः १७००० वर्ष पूर्व की निश्चित होती है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि सत्रह हजार वर्ष पूर्व उक्त सूक्त/ऋचाओं का दर्शन ऋषियों ने किया था।

⏩ कुम्भ से अगस्त्य, स्थल में वसिष्ठ तथा जल में मत्स्य का जन्म हुआ। उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।

यह वह काल था जब उत्तर में अभिजित् (Vega) ध्रुव पद को सुशोभित कर रहे थे। इस स्थिति को Sky map में लागू कर सप्तर्षि मण्डल के वसिष्ठ तारे की स्थिति को भी समझ लेंगे कि वे कहाँ पर दृश्यगत होते थे।

तथ्यों के प्रकटन हेतु अवयवों का मानवीकरण कर उन्हें कथासूत्र में पिरोकर प्रस्तुत करना एक रोचक शैली है तथा कठिन विषय भी इस विधि से आसानी से स्मरण में बने रहते हैं तथा उसका लोकप्रवाह भी यथावत रहता है।

एक आख्यान है कि अगस्त्य ने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा- “जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रुके रहो।” इसका सम्बन्ध पृथ्वी की अक्षनति से है, जिसके कारण ही सूर्य की उत्तरायण दक्षिणायन प्रवृत्ति हुआ करती है। यदि हमारी पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी हुई न होती तो निश्चित रूप से ऐसी कथा भी न होती।

विन्ध्य की मर्यादा का स्थान उज्जयिनी/अवन्ती को माना गया है और इसका अक्षांश हमारी पृथ्वी के अक्षीय झुकाव के बराबर ही है।

जब यह कथा लिखी गई थी उस काल तक उज्जयिनी से दक्षिणी भूभागों में ही अगस्त्य (Canopus) की दृश्यता थी, उत्तर में नहीं।

गत पाँच हजार वर्षों में पृथ्वी की स्थिति के परिवर्तनस्वरूप अब भारत के उत्तरी स्थानों में भी सितम्बर से मई माह के मध्य अगस्त्य दर्शन होते हैं।
वर्षाकाल बीत जाने पर ही अगस्त्योदय होने से बाबा तुलसीदास ने लिखा,
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा।
जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥

अर्थात, अगस्त्य ने उदित होकर मार्ग के जल को सोख लिया जिस प्रकार लोभ सन्तोष को सोखकर नष्ट कर देता है।

✍? *चुंबल से चुंबक हुई !*

इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परौ… कृष्ण भक्त कवि सूरदास जी ने लोहे की स्‍थान के आधार पर पहचान की है मगर उन्‍होंने चुंबक का प्रयोग नहीं किया। चुंबक क्‍या है, ये तो बताने की जरूरत नहीं मगर ये है बहुत काम की चीज। एक कहानी इसके साथ जुडी है चुंबल या चोंबल चरवाहा की। वह भेड़-बकरियां चराते-चराते जब एक चट्टान पर चढ़ गया तो उसके पांव चिपकने लगे। उसने देखा कि बकरियां तो उस चट्टान पर आसानी से भागी जा रही हैं मगर उसके पांव चिपक रहे हैं… बहुत बाद में पता चला कि वह जिस चट्टान पर था, वह चुम्‍बकीय चट्टान थी। हमारे यहां कृष्‍णायस के नाम से काले लोहे का वैदिकों को मालूम था, वह वह लोहा था या तांबा, स्‍पष्‍ट नहीं है।

अब तक वैज्ञानिकों ने इसका जो इतिहास खोजा है, वह करीब ढ़ाई हजार साल पुराने प्रमाणों के आधार पर तय किया गया है और ये प्रमाण ग्रीस, भारत और चीन से जुटाए गए हैं। ग्रीक वालों ने इसको मैगनेट कहा है, जिसका मतलब होता है, stone from Magnesia। आज भी ये शब्‍द अंग्रेजी आदि में इसी रूप में व्‍यवहार में है, मगर भारत में इसको चुंबक कहा गया है। यह शब्द संस्‍कृत में भी है। वराहमिहिर (587 ई.) को इसके बारे में बहुत अच्छी तरह ज्ञात था। उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘पंचसिद्धांतिका’ में इसका उल्लेख किया है कि ऐसा लोहखण्‍ड जो दूसरे किसी लोहे काे अपनी ओर खींच लेता है।

बौद्धों के लङ्कावतारसूत्र के दसवें अध्याय से दो बातें – लङ्का समुद्र से घिरा भूखण्ड, भारत से जाने वाले समुद्री मार्ग से नौका या पोत से जाते रहे। सूत्रकार मरीचि से परिचित है, वह मृगमरीचिका से भी परिचित है जो मरुभूमि में दृष्टव्य होती है। समुद्र में भी मरीचिका होती है। गगन में दृश्य दिखाई देते हैं। सूत्रकार ने चुम्बक का उल्लेख किया है, चुम्बक को अयस्कान्त कहा जाता था। ऐसा मान सकते हैं कि समुद्र यात्रा में दिक्शोधन चुम्बक से होता हो।

भ्रमते गोचरे चित्तमयस्कान्ते यथायसम्॥ १४॥

सूत्रकार कहता है कि दर्पण, जल, नेत्र, भाण्ड अर्थात् चिकने चमकदार पॉलिश वाले बरतन, धातु के बरतन (मिट्टी का हर बरतन भाण्ड नहीं कहा जा सकता) और मणि में बिम्ब दिखाई देता है।

दर्पणे उदके नेत्रे भाण्डेषु च मणीषु च।
बिम्बं हि दृश्यते तेषु न च बिम्बोऽस्ति कुत्रचित्॥ १८६॥

तब कांच के दर्पण बनने ही लगे थे। पंचसिद्धांतिका में राेम आदि की खगोलीय गणनाएं भी हैं, जो संभवत: रोमक सिद्धांत हो सकता है। वराहमिहिर ने विदेशयात्रा की थी। यवनों के मतों काे आदर दिया था। बृहत्‍संहिता में उनको ऋषि के समान भी कहा। मगर, उसने चुंबक संबंधी ज्ञान कहां से लिया, यह सोचने वाली बात है। शैव सिद्धांतों का अध्‍ययन कर रहे हैं, तो शिवपुराण के इस श्‍लोक को देखें –

जगन्ति नित्‍यम्‍परितो भ्रमयन्ति यत्‍सन्निधौ चुम्‍बक लोहवत्‍तम्।
(शिवपुराण, रुद्र. सृष्टिखंड 1, 3)

इसका आशय है कि सृष्टि सर्जक अर्थात परमात्मा के चारों और जीवात्‍माएं ऐसे ही घूमती हैं जैसे चुंबक के चारों ओर लोहा। यहां चुंबक का उल्लेख बिल्‍कुल उसी तरह आया है जैसे कि आज प्रयोग वाले जानते हैं। मगर, ये संदर्भ अधिक पुराना नहीं है। यह 10वीं सदी के आसपास का ही है। इसके बाद, अन्‍य सिद्धांत गणित के ग्रंथों में भी यह उल्लेख मिल जाता है। वास्‍तु के कुछ निबंध ग्रंथों में दिक्शोधन के प्रसंग में चुंबक का वर्णन आता है.. मगर, दिशा शोधन के लिए यंत्र बनने में इतनी देरी क्‍यों लगी.. ये संदर्भ और कहां है.. यह विचारणीय है।
✍? संकलित
???‍♂️ *!! जय श्रीकृष्ण !!*