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शिक्षा का कोरियाई मॉडल और सरकारी स्कूलों की जमीनी हकीकत

मप्र की कमलनाथ सरकार प्रदेश में शालेय शिक्षा को कौशल विकास के साथ जोड़ने के लिये दक्षिण कोरिया का मॉडल अपनाना चाहती है ।इसके लिये मप्र के चुनिंदा 35 अफसरों और शिक्षकों का एक दल इन दिनों दक्षिण कोरिया के दौरे पर गया है जो वहां “स्टीम एजुकेशन” सिस्टम का अध्ययन करेगा और मप्र में इसे कैसे लागू किया जा सकता है इसे लेकर एक रिपोर्ट सरकार को सौपेगा।स्टीम सिस्टम का आशय “साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, आर्ट्स औऱ मैथ्स “बेस्ड शिक्षा प्रणाली से है इसका मूल उद्देश्य किताबी ज्ञान को कौशल विकास के साथ जोड़ने से है। कोरिया में यह सिस्टम बेहद सफल साबित हुआ है इसी सिस्टम को अपनाकर इस छोटे से देश ने तकनीकी के मामले में वैश्विक पहचान अर्जित की है। आज कोरिया इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से लेकर सूचना तकनीकी और प्रोधोगिकी के मामले में अव्वल बना हुआ है।भारत से महज दो साल पहले औपनिवेशिक शासन से आजाद हुआ यह देश आज परिणामोन्मुखी शिक्षा के जरिये आर्थिक औऱ तकनीकी महाशक्ति बनने के मामले में एक मिसाल है।

कमलनाथ सरकार का यह नवाचार सिद्धांतय तो स्वागत योग्य ही है लेकिन कोरिया और भारत की सामाजिक आर्थिक सरंचना में बड़ा बुनियादी अंतर है यह हमें नही भूलना चाहिए।यही नही राजनीतिक रूप से शिक्षा कोरियाई शासकों के लिये वोट बैंक का स्रोत नही है इसलिये यह कहना जल्दबाजी ही होगा की कोरियन मॉडल को अपनाकर मप्र में ढर्रे से उतरी स्कूली शिक्षा का कुछ भला हो सकेगा।

असल में कमलनाथ जिस मॉडल को अपनाने की सोच रहे है उसे सख्त प्रशासन ,दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति औऱ नागरिक बोध के साथ ही हांसिल किया जा सकता है।भारत के हिंदी भाषी राज्यों में यह सभी कारक आज भी बेहद कमजोर है।जिन बीमारू राज्यों के लिये आजादी के बाद से ही शिक्षा उच्च प्राथमिकता पर लिए जाने की जरूरत थी वहां यह विषय कभी भी सरकारों के लिये चिंता का मामला नही रहा है। मप्र ,उप्र, बिहार,राजस्थान जैसे राज्यों में शिक्षा तंत्र पूरी तरह से अफसरशाही के हवाले है।मप्र में पिछले 25 बर्षो से जिस तरह के प्रयोग किये गए है उसने इस प्रदेश को एक प्रयोगशाला बनाकर रख दिया है।शिक्षा संविधान में राज्य सूची का विषय होने के कारण कोई एकीकृत नीति आज तक प्रदेशों में लागू नही हो सकी है।यही कारण है कि देश भर में अनगिनत शिक्षक पदनाम प्रचलित है।

मप्र में शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक,गुरुजी,सहायक शिक्षक,उच्च शिक्षक,व्याख्याता, औपचारिकेतर शिक्षक,निम्न श्रेणी शिक्षक,सहायक अध्यापक, वरिष्ठ अध्यापक,अतिथि शिक्षक जैसे शिक्षक सिस्टम का हिस्सा है।

प्राथमिक शिक्षा के लिये निगरानी तंत्र अलग है मिडिल तक के लिये अलग फिर मिडिल से इंटरमीडिएट तक की निगरानी के लिये अलग सिस्टम है। मप्र में राज्य का अपना शिक्षक कैडर है वही स्थानीय निकायों के शिक्षक अलग है।एक सँचालनलाय शिक्षा विभाग का है दूसरा राज्य शिक्षा केन्द्र है।दोनों के लिये अलग अलग सेटअप है अलग आईएएस अफसर डायरेक्टर है।केंद्र सरकार राज्यों के लिये सर्व शिक्षा मिशन औऱ आरटीई के तहत जो धन भेजती है उसे खर्च करने के लिये अलग लोग है और राज्य की निधि से जो धन शालेय शिक्षा को आबंटित होता है उसके लिये अलग आयुक्त है।

एक नया मिशन कक्षा 8 से 12 के लिये “राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा मिशन” भी केंद्र सरकार चलाती है इसके लिये एक तीसरा दफ्तर भी मप्र में स्थापित है
।समझा जा सकता है कि किस बेतरतीबी के साथ मप्र में शिक्षा व्यवस्था की निगरानी का सरकारी सिस्टम का बना हुआ है।हाल ही में सरकार ने निकायों के शिक्षकों को शिक्षा विभाग में संविलियन किया है लेकिन इसके बाबजूद प्रदेश में में नियमित औऱ इन एक लाख से अधिक शिक्षकों के बीच वेतन से लेकर सेवा शर्तों को लेकर बीसियों विसंगतियां मौजूद है लगातार ये शिक्षक धरना,आंदोलन, प्रदर्शन करते रहते है।मप्र में सरकारी शिक्षकों की भर्ती के लिए भी समय समय पर नियम बदलते रहे है पहले बगैर डीएड, बीएड किये लोगों को सीधी भर्ती कर नोकरी पर रख लिया गया फिर अब उन्हें सरकारी खर्च पर प्रशिक्षित किया जा रहा है।इसके बाबजूद प्रदेश में हजारों अयोग्य शिक्षक सिस्टम का हिस्सा बने हुए है हाल ही में ये शिक्षक सरकार द्वारा आयोजित दक्षता संवर्धन परीक्षा में किताब सामने रखकर शुद्ध नकल भी नही कर पाए।

प्रदेश में शिक्षकों के तबादलों की कोई मानक नीति नही है हाल ही में कमलनाथ सरकार ने ऑनलाइन सॉफ्टवेयर के जरिये हजारों शिक्षकों के ट्रांसफर किये जिससे हर जिले में सैंकड़ो स्कूल शिक्षक विहीन हो गए।सरकार के स्तर से भी ऐसी नीतियां बनाई गई है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई या कौशल विकास के लिये कोई माहौल ही न बन पाएं।सरकारी शिक्षक राज्य सरकार की अधिकतर योजनाओं का सर्वे करते है।पिछले एक दशक से एक ब्लाक के लगभग चार सौ सरकारी शिक्षक तो निर्वाचन आयोग के अधीन बीएलओ के रूप में काम करते रहते है क्योंकि निर्वाचन बूथ के नजदीकी स्कूल का एक शिक्षक स्थाई रूप से बीएलओ के रूप से काम कर रहा है।जनगणना से लेकर तमाम तरह के सर्वेक्षण भी सरकारी शिक्षकों से कराए जाते है।

सरकार ने स्कूलों में जो लोकप्रिय प्रयोग किये है उनकी जिम्मेदारी भी शिक्षकों पर डाल रखी है मसलन मध्यान्ह भोजन को बनबाने से लेकर वितरण,साफ सफाई से लेकर साइकिल वितरण, छात्रवृत्ति, निःशुल्क गणवेश औऱ पाठ्यपुस्तक,सभी काम शिक्षकों की अग्रणी भागीदारी से ही पूर्ण हो पाते है।सरकारी स्कूलों के लिये सर्व शिक्षा अभियान से इमारतें तो बड़ी संख्या में बना दी गई लेकिन इनमें से 80 फीसदी ग्रामीण शालाओं में न बिजली कनेक्शन है न पेयजल की सुविधा।न साफ सफाई के लिये चपरासी औऱ न रोजाना की जानकारियां भेजने बनाने के लिये कोई बाबू।समझा जा सकता है कि सरकारी स्कूलों में मास्टर जी को क्या क्या करना पड़ता है।जबकि छोटे से छोटे प्राइवेट स्कूल में भी इस बात का ख्याल रखा जाता है कि टीचर सिर्फ पढ़ाने पर ध्यान लगाए ताकि उसके स्कूल का रिकॉर्ड बेहतर हो सके।सरकारी स्कूलों में इससे ठीक उलट कहानी है सरकारी अफसर जो जानकारी मांग रहे है वह समय पर जाए ,दोपहर का भोजन,गणवेश, साइकिल ,किताबें बगैर व्यवधान के बंट जाएं इस ध्येय को आगे रखकर लोग काम करते है।जाहिर है स्कूल शिक्षा की गुणवत्ता के लिये कोई मनोविज्ञान न सरकार के स्तर पर काम करता है न शिक्षक वर्ग का।

नतीजा हाल ही में नीति आयोग,मानव संशाधन, औऱ विश्व बैंक की एक सयुंक्त रिपोर्ट में परिलक्षित हुआ है।देश के 20 राज्यों के सरकारी एजुकेशन सिस्टम में छात्रों की समझ और सीखने की क्षमताओं को लेकर जारी रैंकिंग में मप्र 15 वे औऱ छत्तीसगढ़ 13 वे स्थान पर है।”द सक्सेस ऑफ अवर स्कूल एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स”में केरल का नम्बर पहले स्थान पर है।यानि हकीकत है कि मप्र में सरकारी स्कूलों के लाखों बच्चे कुछ भी नही सीख पा रहे है यह रिपोर्ट बताती है कि कक्षा 9 में दर्ज बच्चे गणित के जोड़ घटाव,हिंदी वर्णमाला औऱ सामान्य उच्चारण तक नही जानते है।

कमलनाथ सरकार ने जिस कोरियाई मॉडल को मप्र में अपनाने की पहल की है उसके लिये सबसे पहले प्रदेश में जमीनी कार्य संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता है।शिक्षा तंत्र को अफसरशाही के शिकंजे से बाहर निकाले बिना किसी आदर्श को अपनाया जाना उसकी विफलता की गारंटी पहले से ही घोषित करने जैसा है।राज्य और केंद्र के बीच नीतिगत स्तर पर महज धन के जारी होने का रिश्ता रहना चाहिये धन के साथ केन्द्र के मार्गदर्शी सिद्धांत लागू करने की बाध्यता भी भृष्टाचार की जड़ है।बेहतर होगा राज्य अपना एकीकृत शिक्षा मॉडल लागू करें जिसमें प्राइमरी से इंटरमीडिएट तक नीति निर्माण, पर्यवेक्षण, निगरानी, शास्ति के लिये एक ही तंत्र हो और सभी शिक्षा संवर्ग से आते हो।सरकार के स्तर पर शिक्षकों के वर्गभेद समाप्त किये जायें और यह सुनिश्चित किया जाए कि शिक्षक सिर्फ पढ़ाने के लिये है उन्हें चुनाव के अलावा अन्य कार्य से मुक्त रखा जाए। स्कूलों के नाम पर मॉडल स्कूल,एक्सीलेंस स्कूल,एकलव्य स्कूल,आदर्श स्कूल जैसे प्रयोग भी बन्द होना चाहिये क्योंकि यह भी विषमताओं को जन्म देते है।राज्यों में शिक्षा विभाग के मुखिया शिक्षको के मध्य से ही आना चाहिये और केवल प्रमुख सचिव स्तर पर ही आईएएस अफसरों की नियुक्ति का प्रावधान हो।
इन बुनियादी सुधारों के बगैर कोरियाई मॉडल को अपनाया जाना फिर एक नया प्रयोग ही साबित होगा जैसे कि दो दशकों से लगातार जारी है।क्योंकि कौशल विकास तो तभी संभव है जब बच्चे बुनियादी अक्षरज्ञान में निपुण हो जो फिलहाल इस मामले में सिफर है।

डॉ अजय खेमरिया
अध्यक्ष बाल कल्याण समिति( जेजे एक्ट) शिवपुरी/ग्वालियर
स्वतन्त्र पत्रकार
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