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युवाओं का मार्गदर्शन करती कृति- ‘जीना इसी का नाम है’

वर्तमान में बाल साहित्य उन्नयन के लिए एक नाम देशभर में जाना पहचाना है, वह है श्री राजकुमार जैन राजन का, जो कि तन-मन और धन तीनों तरह से बाल साहित्य के लेखन, प्रकाशन और निःशुल्क वितरण के क्षेत्र में अपना अहम योगदान दे रहे हैं। बाल साहित्य के अलावा भी उनका अध्ययन और लेखन अन्य विषयों पर भी बहुत गहन रहा है, तीन दशक से भी अधिक समय से राजन जी संपादन के कार्य से जुड़े हुए हैं, कई सामाजिक, साहित्यिक पत्रिकाओं का अपने स्तर पर संपादन कर चुके हैं साथ ही कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों का संपादन भी आपने किया है। राजन जी के बाल साहित्य से इतर हुए रचनात्मक और प्रभावी लेखन का एक संकलन हाल ही में अयन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है जीना इसी का नाम है ।

यह संकलन उनके द्वारा लिखे हुए संपादकीय लेखों का संकलन है।यह संकलन उनके अनुभव का पुलिंदा है जिसमें केवल नवनीत है। छाछ जैसा कुछ भी नहीं। इस कृति में उनके लिखे 29 लेख शामिल है, जो कि प्रकाशन के समय तो पाठकों की पसंद रहे ही है। लेकिन आज भी उनकी प्रासंगिकता कम नहीं होती है, पुस्तक का पहला लेख अपने आप में महत्वपूर्ण है पहले स्वयं का निर्माण करें शीर्षक से लिखे इस लेख में वे लिखते हैं- वर्तमान युग नैतिक दुर्भिक्ष का युग है जीवन में नैतिक और चारित्रिक मूल्य बिखरते जा रहे हैं, नष्ट होते जा रहे हैं, स्वार्थपरायणता और लोभवृत्ति ने मानव को इतना निकृष्ट बना दिया है कि नीति, सत्य, प्रामाणिकता, ईमानदारी, सदाचरण जैसे गुण छुटते जा रहे हैं।

वही दो अनुच्छेदों के बाद इसी लेख में वे लिखते हैं कि- आज राष्ट्र में चारों ओर आध्यात्मिक जागृति और नैतिक उत्थान के साथ समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण की चर्चा है निर्माण भले ही किसी भी स्तर पर क्यों न हो वह स्वागत योग्य है। जो कि अनैतिकता के बीच नैतिक संस्कारों की पैरवी है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का एक सफल प्रयास है। प्रकृति के माध्यम से भी इस लेख में उन्होंने बहुत कुछ कहा है।

जीवन कितना है यह हम सब जानते हैं, पर कैसा हो यह नहीं शायद इसीलिए राजनजी लिखते हैं जीवन की समग्रता के बारे में सोचें इस लेख में बहुत कुछ वह लिखा गया है जो आज जेएनयू में घटित हो रहा है- इतनी शिक्षा के बावजूद आज समाज में हिंसा और अशांति बढ़ती जा रही है। उग्रवाद और आतंकवाद बढ़ रहा है इसका कारण क्यों नहीं खोजा जाता? उनकी चिंता सही भी है। आगे वे लिखते है- अतीत में भी अच्छाइयां और बुराइयां थी, लेकिन वह अच्छाइयों पर हावी नहीं थी। बुरे लोग कृष्ण के समय में भी थे और महावीर के समय में भी थे लेकिन इसका अनुपात में असंतुलन में नहीं था, जैसे-जैसे उपभोक्तावाद बढ़ा तो बुराई के रूप में हिंसा और अपराध भी बढ़े। भ्रष्टाचार जैसी बुराई भी इसी उपभोक्तावाद की देन है

जिस समय यह लेख लिखा गया था उस समय से आज की स्थिति और बद्तर है।

इस पुस्तक के अच्छे लेखों में नारी ने विकास के नए आयाम छुआ है को मानता हूँ। जिस तरह पौराणिक नारी और वर्तमान की नारी पर अच्छी कलम राजनजी ने चलाई है वे लिखते है- नारी के विकास के लिए चार तत्व होते हैं शिक्षा, दृढ़ इच्छाशक्ति अर्थात संभल होना,शक्ति अर्थात सबल होना,स्वावलंबी और स्वतंत्रता अर्थात छोटे-छोटे निर्णय लेने की क्षमता। इन चारों तत्वों से परिपूर्ण नारी परिवार का ही नहीं स्वच्छ समाज का भी निर्माण कर सकेगी।

पारिवारिक विघटन के दौर में लेख रिश्तो को डिस्पोजल होने से बचाएं भी प्रासंगिक बन पड़ा है। अन्य लेख जैसे व्यर्थ को दे अर्थ, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, समस्या की मिट्टी में समाधान का अंकुर फूटता है, व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं वास्तु शिल्पी है मोटिवेशन करते है। अधिकांश लेख इसी शैली के है। जो कि समय की मांग के साथ अनिवार्य भी है। अन्य लेखों में पुस्तक पढ़ने और संरक्षण के उपर दो लेख तथा राष्ट्रीयता पर केन्द्रीत तीन लेख, मातृभाषा पर एक लेख के साथ ही अन्य विषयों पर है जो आदर्श समाज के लिए और हमारी नई पौध के लिए बेहद जरुरी है।

पुस्तक का प्रकाशन आकर्षक है वहीं सजा-सज्जा भी सुंदर है लेकिन एक बात की कमी इस कृति में खलती है। जो लेख राजन जी ने लगभग 2 से 3 दशक पूर्व लिखे है वह तब से लेकर आजतक भी प्रासंगिक हैं, इसलिए उन लेखों के अंत में पत्रिका का नाम और प्रकाशन वर्ष भी दिया जाता तो ज्यादा अच्छा रहता ताकि पता चल सके कि जो समस्याएं या जो स्थितियां दो-तीन दशक पूर्व समाज में थी आज भी है और भविष्य उनके निराकरण की राह देख रहा है। साथ ही प्रुफ पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाना जरुरी था।

चूंकि राजनजी बाल साहित्य के सृजन और प्रकाशन के विशेष पक्षधर है ऐसे में उनकी यह कृति बच्चे से युवा होते देश के भविष्य के मार्गदर्शन का काम करेंगी। एक अच्छी पुस्तक समाज को देने के लिए राजनजी बधाई के पात्र है।

*कृति- जीना इसी का नाम है
*लेखक- राजकुमार जैन राजन
*प्रकाशक- अयन प्रकाशन दिल्ली
*पृष्ठ-104 (सजील्द)
*मूल्य-200/-

समीक्षक
-संदीप सृजन
संपादक- शाश्वत सृजन

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