Thursday, April 25, 2024
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अमेरिका में वामपंथी अराजकता

अमेरिकी पुलिस भेद-भाव करने के लिए बदनाम नहीं है। किसी काले अपराधी पर काले पुलिसमैन तो गोली चलाते हैं, मगर गोरे इस से बचते हैं। यह रिकॉर्ड है। वैसे भी, काफी समय से पश्चिम ‘रेसिज्म’ के प्रति संवेदनशील होता गया है। लोग दैनिक व्यवहार में भी यह ध्यान रखते हैं। इसलिए, अमेरिका में पुलिस वाले के हाथों एक काले आरोपी की मृत्यु नियमित रुख का उदाहरण नहीं था। तब ऐसा हंगामा कैसे हुआ, जिसमें लोगों को मारने, दुकान लूटने, सड़कों-चौराहों पर कब्जे, मूर्तियों-स्मारकों को गिराने, यहाँ तक कि पुराने महान लेखकों की क्लासिक पुस्तकों तक को निशाना बनाया जा रहा है।

ऐसा अभूतपूर्व परिणाम किसी एक घटना का नहीं हो सकता। फिर इस के दबाव में लगभग सब कहीं प्रशासन ने फौरन घुटने टेक दिए। अतः मामला काले-गोरे के भेद-भाव से बहुत भिन्न है। वस्तुतः, लंबे समय से बन रही मानसिकता ने एक बहाने से अपनी ताकत दिखाई है। यह उच्च शिक्षा संस्थानों में वामपंथी मतवाद के वर्चस्व और उच्च वर्ग की आरामपसंद नैतिक काहिली की कहानी है। फलतः अनेक विषैले विचार मीडिया, प्रशासन, न्यायपालिका, आदि हर क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो गये। अभी ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ से शुरू हुआ आंदोलन पचास वर्ष पहले पश्चिम के छात्र-विद्रोह जैसा है। वह यथास्थिति के विरुद्ध था। उस में भी कोई साफ चीज नहीं थी। द्वितीय विश्व-युद्ध में फासिज्म की हार के बाद यूरोप में काफी नवनिर्माण हुआ था। दर्जनों देश औपनिवेशिक जुए से स्वतंत्र हुए। प्रायः दो दशक से दुनिया में शान्ति थी।

मगर 1965 ई. के बाद एकाएक पश्चिमी युवाओं में ‘हिप्पी’ आंदोलन शुरू हुआ। उस के विचार भी वामपंथी थे। जैसे, पश्चिम की समृद्धि अपने परिश्रम, प्रतिभा और सुव्यवस्था नहीं, बल्कि दुनिया में माल बेच कर मुनाफा से हुई है। उसी दौरान अमेरिका ने वियतनाम के गृहयुद्ध में आधे-अधूरे हस्तक्षेप किया। फिर सारी दुनिया में वामपंथियों ने ‘वियतनाम’ का नारा बरसों गुँजाया। उन्हें वियतनाम के यथार्थ से मतलब न था, केवल अमेरिका को नीचा दिखाना था। तब इस ‘नस्लवाद’ पर किसी की नजर नहीं गई, जो वास्तव में जारी था! अमेरिका में काले लोगों को समान नागरिकता हासिल नहीं थी। वे देश में हर कहीं आ-जा नहीं सकते थे। लेकिन उस पर कोई वामपंथी विद्रोह नहीं हुआ! अमेरिकी समाज में ही धीरे-धीरे पूर्ण समानता का विचार उठा जिस से अंततः काले लोगों को पूरे अधिकार मिले।

बहरहाल, 1960 का दशक बीतते हार्वर्ड समेत सभी प्रसिद्ध अमेरिकी विश्वविद्यालयों में वामपंथी मतवाद जमने लगा। पर तब वह समाज पर प्रभावी नहीं हो सका था। एक तो, वियतनाम में अमेरिकी पराजय (1975) के बाद उधर बड़ी क्रूर कम्युनिस्ट सत्ताएं बनी। फिर, अफगानिस्तान में हस्क्षेप के बाद सोवियत कम्युनिज्म में संकट शुरू हुआ। अंततः 1991 ई. में उस का अंत ही हो गया। इन कारणों से पश्चिम में वामपंथी राजनीति सूख गई।

किन्तु विश्वविद्यालयों में वामपंथी प्रोफेसर बने रहे। वे समाज विज्ञान व साहित्य के पठन-पाठन में चुपचाप अपना मतवाद फैलाते गए। वह बहुत बड़ा कैंसर या टाइम-बम साबित हुआ! पूरे मध्यवर्गीय समाज के बीच कम्युनिस्ट-प्रचार नियमित पहुँचने लगे। जिन्हें पता भी न था कि वे शिकार हो रहे हैं। इसे उसी दौर में यहाँ बने (1969) जेएनयू के परिणाम से समझ सकते हैं। 1980 के दशक से ही भारत की शिक्षा, विमर्श, और नीति-निर्माण में जेएनयू के वामपंथी प्रचारकों का प्रभाव है। उस का दुष्प्रभाव अभी तक उतना गहरा नहीं गया, क्योंकि बहुसंख्यक जनता ‘शिक्षा’ से ग्रस्त नहीं है। महानगरों को छोड़कर अभी भी यहाँ पारंपरिक ज्ञान-परंपरा का आदर है। मगर शासकों की कृपा से स्थिति तेजी से बिगड़ रही है।

लेकिन अमेरिका में ऐसी ‘गँवार’ जनता का बफर उतना बड़ा नहीं। इसीलिए, वहाँ विश्वविद्यालयों में वामपंथी वैचारिक दबदबे ने दो-तीन पीढियों में समाज को काफी विषाक्त कर दिया। उसी का परिणाम अभी दिख रहा है।इस वामपंथ की मूल मानसिकता मार्क्सवाद जैसी ही है। क्लासिक मार्क्सवाद जरूर टूट गया। लेकिन उस की मनोवृत्ति ने नए नारे बना लिए। जो उस हिंसक वर्गीय प्रवृत्ति को संतुष्ट करता था, जो मार्क्सवाद की बुनियाद है। किसी न किसी प्रकार का अनम्य विरोध खड़ा करना, जिस में किसी वर्ग को बुरा-भला कहते हुए उसे मिटा देना मुख्य लक्ष्य हो। पश्चिमी विश्वविद्यालयों में वामपंथ ने अपना नवीकरण किया। मार्क्सवाद के बदले ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ आ गया। मार्क्स-लेनिन के बदले मार्क्यूज-ग्रामशी प्रमुख चिंतक हो गए। इन के लेखन में सांस्कृतिक लफ्फाजी पर जोर था। उन से वामपंथियों को नए हथियार मिले।

पूँजीपति की जगह ‘गोरों’ या ‘अमेरिका’ को शोषक कहा गया। ‘वर्गीय शोषण’ के बदले ‘उत्पीड़क सहिष्णुता’ (रिप्रेसिव टॉलेरेन्स) मुहावरा बना, कि आप सहिष्णु होकर भी उत्पीड़क हैं! मजदूरों के बदले मायनोरिटी, जेंडर, जातीयता, आदि को लड़ाकू धार दी गई। साम्राज्यवाद-विरोध ‘नस्लवाद-विरोध’ हो गया। भारत में वही ‘सांप्रदायिकता’-विरोध या हिन्दू-विरोध बन गया। वियतनाम के बदले फिलीस्तीन उत्पीड़ित देश हो गया, जिस के लिए लड़ना था। तीसरी दुनिया के स्थान पर मुस्लिम-आव्रजक शोषित कहे जाने लगे। निक्सन के बदले ट्रंप शैतान हो गए। रॉक-एन-रोल छोड़ पहचान-परेड (‘आइडेंटिटी’) होने लगी। बँधे मुक्के का प्रतीक बदल कर काला फीता लगाना, या घुटना-टेक प्रदर्शन हो गया है, आदि।

लेकिन इस नए वामपंथ में कोई भविष्य का सपना नहीं। यह केवल नाराजगी व क्षोभ का अतिरेक है। जो किसी नशे जैसा तरह-तरह के झूठे-सच्चे उत्पीड़न के दुःस्वप्न में जीता है। इसीलिए, जॉर्ज फायड की मौत पर प्रदर्शन के बाद अनेक निर्दोष लोगों को खुद मार डालने पर आंदोलनकारियों ने ध्यान तक नहीं दिया! उन में केवल चालू व्यवस्था तोड़ने, दूसरों को झुकाने, मिटाने की जिद भर है।

दुर्भाग्यवश, इस वामपंथ की पहुँच पश्चिमी समाजों में गहरी लगती है। पहले लोकतांत्रिक दल वामंपथियों का विरोध करते थे। अब वे उन से मेल बनाने में लगे हैं। पहले स्कूल, कॉलेज, मीडिया, आदि हर कहीं विभिन्न विचारों के लिए जगह थी। आज वह असंभव है! जेंडर, मायनोरिटी, इमिग्रेंट, अदि किसी विषय़ पर वामपंथियों से भिन्न बोलने की इजाजत नहीं। ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के एक प्रतिष्ठित सह-संपादक की नौकरी इसलिए चली गई, क्योंकि उस ने किसी का भिन्न विचार वाला लेख भी छापा था। ऐसी दंडात्मक कार्रवाइयाँ फेसबुक, गूगल, ट्विटर, जैसे अन्य बड़े संस्थानों में भी हुई हैं।

ऐसी असहिष्णुता पहले न थी। लोग भिन्न विचार रख सकते थे। अब वामपंथी दबदबा ऐसा है कि जो उन्हें नामंजूर, वह कोई नहीं बोल सकता। ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के सामने ‘ऑल लाइव्स मैटर’ का पोस्टर लेकर खड़े होना मुश्किल है। अब ‘कैंसिल कल्चर’ है। असहमत व्यक्ति को खारिज, अपदस्थ करो, बोलने छपने न दो। मानो विरोधी विचार वाले को खत्म कर डालना हो! इस की तुलना में पारंपरिक उदारवादी शिक्षा, विचार कमजोर हो गए हैं। ऐसे अराजक आंदोलन के विरुद्ध बोलने का नैतिक साहस किसी हिस्से से नहीं दिख रहा है।

इन पाँच दशकों में, इतिहास, साहित्य, समाजशास्त्र, आदि में मुख्यतः भेद-भाव और अत्याचार पाठ पढ़ने-पढ़ाने का चलन बढ़ा। अलग-अलग समूहों, समुदायों के संकीर्ण (मायनोरिटी, जेंडर, मिड्ल ईस्ट, आदि) ‘अध्ययन’ विभाग बनने लगे। वहाँ विद्वान के बदले एक्टिवस्ट तैयार हुए। उन्हें सचाई से अधिक नारेबाजी मिली। वैसे लोग धीरे-धीरे प्रशासन, मीडिया, स्कूल, कला केंद्र, न्यायालय, कारपोरेट, आदि हर कहीं पहुँचे। इस तरह वामपंथी मतवाद की ताकत बढ़ी है। उन्हें संतुलित करने उदारवादी, तथ्य-परक, सामाजिक ज्ञान देने की चिंता शासकों या समाज को नहीं हुई। उन्होंने अपने उदार मूल्यों को फॉर-ग्रांटेड लिया। यह बहुत बड़ी भूल थी! हर पीढ़ी को नए सिरे से पूरी शिक्षा देनी होती है। वरना कुशिक्षा हावी होना तय है। इस अमेरिकी घटनाक्रम में हमारे देश के लिए बड़ी चेतावनी है! मगर क्या हमारे राजाओं-सूबेदारों को यह दिख भी रहा है?

(लेखक राष्ट्रवादी चिंतक हैं)

साभार- https://www.nayaindia.com/ से

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