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वामपंथियों का ‘असली इतिहास’ पढ़ाया जाएगा जेएनयू में

जेएनयू की अकादमिक परिषद ने हाल ही में एक प्रस्ताव को निर्विरोध पारित करवाया है। इसके अंतर्गत जेएनयू में Counter terrorism course भी पढ़ाया जाएगा, जिसके अंतर्गत इस्लामिक आतंकवाद और कम्युनिज़्म के बीच के संबंधों पर भी प्रकाश डाला गया है।

जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथियों और कट्टरपंथी मुसलमानों का बोलबाला रहता था। जिस जेएनयू में स्टालिन और लेनिन की जय-जयकार होती थी, अब उसी जेएनयू में जल्द ही ये पढ़ाया जाएगा कि कैसे कम्युनिस्ट सत्ता/विचारधारा इस्लामिक आतंकवाद को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देती आई है। इसके अलावा ये भी बताया जाएगा कि कैसे जिहादी अथवा इस्लामिक आतंकवाद, आतंकवाद का सबसे मूलभूत रूप है।

द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार, इस कोर्स के अंतर्गत ये संबंध स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि कैसे जिहादी आतंकवाद यानी इस्लामिक आतंकवाद, आतंकवाद का मूलभूत आधार है और चीन और सोवियत संघ जैसे कम्युनिस्ट देश इसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में बढ़ावा देते आए हैं।

हालांकि द टेलीग्राफ की रिपोर्ट में ‘अन्य पंथों’ के ‘आतंकवाद’ का उल्लेख ‘न करने’ की कुंठा स्पष्ट दिख रही है, परंतु इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि इस्लामिक आतंकवाद और वामपंथ के बीच चोली-दामन का नाता रहा है। कुछ नहीं तो आप तालिबान के उदाहरण से ही समझ सकते हैं, जहां कम्युनिस्ट खुलेआम तालिबान का समर्थन करने में जुटे हुए हैं, और उनका ऐसा बचाव कर रहे हैं, मानो वे उनके निजी रिश्तेदार हों।

सोवियत संघ कहने को भले ही अफगानिस्तान में मुजाहिदीनों से ‘युद्ध’ लड़ रहा था, परंतु वह भी कोई दूध का धुला नहीं था। वह अप्रत्यक्ष रूप से चरमपंथी मुसलमानों को बढ़ावा दे रहा था। हालांकि वह इतना मुखर नहीं था, जितना इस विषय पर चीन है। वह न केवल आतंकियों की खुलेआम पैरवी करता है, बल्कि उनके शासन को मान्यता भी देता है, जैसे वह अभी तालिबान के शासन को दे रहा है। मसूद अज़हर पर अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई में भारत के लिए यदि कोई सबसे बड़ी बाधा है, तो वह कम्युनिस्ट चीन ही है।

वैसे ऐतिहासिक तौर पर भी कट्टरपंथी मुसलमानों और कम्युनिस्टों का गठजोड़ भारत में देखने को मिला है। बहुत कम लोग इस बात को जानते है, परंतु जो कम्युनिस्ट आज वीर सावरकर के शौर्य और उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाते हैं, यही लोग कभी निजाम शाही की चापलूसी करते थे। इसको लेकर फिल्मकार केतन मेहता ने 1993 में सरदार पटेल पर बनी फिल्म ‘सरदार’ में थोड़ा प्रकाश भी डाला था।

इसमें ये भी बताया गया है कि कैसे कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध हटते ही उन्होंने 1945 में प्रारंभ अपना ‘कृषि विद्रोह’ के बहाने निज़ाम शाही की ‘सेवा’ शुरू कर दी। ‘सरदार’ में तो एक संवाद भी है, ‘मुझे तो लगता है कि हैदराबाद में दिन में रजाकार राज करते हैं और रात को कम्युनिस्ट!’।

यदि ऐसा नहीं होता, तो ‘ऑपरेशन पोलो’ के अंतर्गत हैदराबाद की स्वतंत्रता के लिए जो भारतीय सेना हैदराबाद आई, उसकी सहायता करने के बजाए उस पर मुसलमानों के ‘नरसंहार’ का झूठा और भद्दा आरोप कम्युनिस्ट भला क्यों लगाते?

अब तक कम्युनिस्ट और कट्टरपंथी मुसलमानों के इस प्रकार के गठजोड़ चाहे वो किसी भी प्रकार के रहे हों, हमेशा छुपाये जाते रहे हैं। परंतु अब कम्युनिस्ट के ही गढ़ जेएनयू में सेंध लग चुकी है और अब वहाँ पर कम्युनिस्ट को उन्ही के काले इतिहास से परिचित कराया जाएगा और उन्हे बताया जाएगा कि कैसे दुनिया को दहलाने में उनकी विचारधारा का विशेष योगदान रहा है।