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जीव ईश्वर का ही अंश है

जब पक्षीराज गरुड़ ने काकभुशुण्डि जी से पूछा, ज्ञान एवं भक्ति में क्या अन्तर है? तो भुशुण्डि जी कहते हैं-

ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
(रामचरितमानस उत्तरकांड ११७.२)
*ईस्वर अंस जीव अबिनासी* ।

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जीव ईश्वरका अंश है (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभावसे ही सुखकी राशि है।।
अक्षर(जीवात्मा) के एक तरफ क्षर (संसार) है और एक तरफ पुरुषोत्तम (परमात्मा) हैं । जीवका सम्बन्ध परमात्माके साथ है-
*’ममैवांशो जीवलोके’* (श्रीमद्भगवद्गीता १५.७)
क्योंकि जैसे परमात्मा चेतन, अविनाशी और अपरिवर्तनशील हैं, ऐसे ही जीव भी चेतन, अविनाशी और अपरिवर्तनशील है। शरीरका सम्बन्ध संसारके साथ है- *’मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’* (१५.७)
क्योंकि जैसे संसार जड़, नाशवान् और परिवर्तनशील है. ऐसे ही शरीर भी जड़, नाशवान् और परिवर्तनशील है। जीवको परमात्मासे कभी अलग नहीं कर सकते और शरीरको संसार से कभी अलग नहीं कर सकते।

भगवान् ने कहा है- ‘ममैवांशो जीवलोके’ (१५।७)।
इसका तात्पर्य है कि जीव केवल मेरा (भगवान् का) ही अंश है, इसमें अन्य किसीका मिश्रण नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि केवल भगवान् का ही अंश होनेके कारण हमारा सम्बन्ध केवल भगवानके ही साथ है**।

अविनाशि तु तद्विद्धि* (श्रीमद्भगवत गीता२.१७)
अनाशिनोऽप्रमेयस्य* (श्रीमद्भगवत गीता२.१८)
*देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत*।
(श्रीमद्भगवत गीता२.३०)
मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि स्थावर-जङ्गम सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें यह देही(जीवात्मा) नित्य अवध्य अर्थात् अविनाशी है।

चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
आप चेतन हो। चेतन किसको कहते हैं ? स्थूलरीति से अपने में जो प्राण हैं, उनके होनेसे चेतन कहते हैं । परन्तु प्राण चेतनका लक्षण नहीं है; क्योंकि प्राण वायु है, जड है। चेतनका लक्षण है-ज्ञान । आपको जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिका ज्ञान होता है तो आप चेतन हो। जाग्रत्-अवस्थाको स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्थाका ज्ञान नहीं है। स्वप्न-अवस्थाको जाग्रत् और सुषुप्ति-अवस्थाका ज्ञान नहीं है। सुषुप्ति अवस्थाको जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाका ज्ञान नहीं है। अवस्थाओंको ज्ञान नहीं है। शरीरोंको ज्ञान नहीं है, प्रत्युत आपको ज्ञान है। अतः आप ज्ञानस्वरूप हुए, चेतन हुए।

आप अमल हो। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, अनुकूलता प्रतिकूलताको लेकर जितने विकार हैं, वे सब मल हैं। जितना मल आया है, अवस्थाओंमें आया है। जाग्रत् में मल आया, स्वप्नमें मल आया, सुषुप्तिमें मल (अज्ञान) आया; परन्तु आप तो अमल ही रहे। आप तीनों अवस्थाओंको जाननेवाले रहे । आपमें दोष नहीं है। आप दोषोंके साथ मिलकर अपनेको दोषी मान लेते हो। दोष आगन्तुक हैं और आप आगन्तुक नहीं हैं-यह प्रत्यक्ष बात है। दोष निरन्तर नहीं रहते, पर आप निरन्तर रहते हैं। शोक-चिन्ता, भय-उद्वेग, राग-द्वेष, हर्ष-शोक-ये सब आने-जानेवाले हैं और अनित्य हैं-

आप *सहजसुखराशि* हो । सुषुप्तिमें कोई आफत नहीं रहती, दुःख नहीं रहता। आप रुपयोंके बिना रह सकते हैं, आप भूखे-प्यासे रह सकते हैं, आप सांसारिक भोगोंके बिना रह सकते हैं, पर नींदके बिना नहीं रह सकते।नींदके बिना तो आप पागल हो जाओगे इसलिये वैद्यजीसे, डाक्टरसे कहते हो कि गोली दे दो, ताकि नींद आ जाय। नींदमें क्या मिलता है ? संसारके अभावका सुख मिलता है। यदि जाग्रत्-अवस्थामें संसारके अभावका ज्ञान हो जाय, संसारसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाय तो जाग्रत्-अवस्थामें ही दुःख मिट जाय; और परमात्मामें स्थिति हो जाय तो आनन्द मिल जाय ! इसको ही मुक्ति कहते।

दुःख किसका है ? दुःख संसारके सम्बन्धका है। अतः आप सुखराशि हो। अगर सुखराशि नहीं हो तो नींद क्यों चाहते हो? विश्राम क्यों चाहते हो ? काम-धंधा करो आठों पहर ! नींदमें शरीरको विश्राम मिलता है, मन-बुद्धि-इन्द्रियोंको विश्राम मिलता है। संसार को भूल जाने से आनन्द मिलता है। अगर संसारका त्याग कर दो तो बड़ा भारी आनन्द मिलेगा और स्वरूपमें स्थिति हो जायगी। स्वरूपमें आपकी स्थिति स्वतः -स्वाभाविक है और स्वरूपमें महान् आनन्द है ।

असत्यका जिससे बोध होता है, वही सत्य है। कोई पूछे कि सब कुछ दीखता है, पर आँख नहीं दीखती ? तो जिससे सब कुछ दीखता है, वही आँख है। आँखको कैसे देखा जाय कि यह आँख है ? दर्पणमें देखनेपर भी देखनेकी शक्ति नहीं दीखती, वह शक्ति जिसमें है, केवल वह स्थान दीखता है। तो सुनने, पढ़ने, विचार करनेसे जो आपको ज्ञान होता है, वह ज्ञान जिससे होता है, वही सत्य है। वही सबका प्रकाशक और आधार है। वही चेतनस्वरूप है, वही ज्ञानस्वरूप है,वही आनन्दस्वरूप है।

आप अविनाशी, चेतन,अमल और सहजसुखराशि हैं
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तमहमेवेति निश्चयी।
निर्विकल्पः शुचिः शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिवृतः॥

अष्टावक्र कहते हैं कि जिस ज्ञानी को ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है कि मैं आत्मा हूं और ब्रह्म से लेकर चींटो तक मेरा ही (आत्मा का ही) विस्तार है। मैं एक और अविभाजित हूं, यह सृष्टि (संसार) मेरी नहीं बल्कि मैं ही संसार हूं, मेरे से अलग कुछ है हो नहीं। ऐसा व्यक्ति ही शांत और स्वच्छ हो जाता है शुद्ध स्वर्ण (सोना) हो जाता है। जितने दोष थे, मिलावट थी सब समाप्त हो जाती है। ऐसा व्यक्ति ही कह सकता है कि “सब कुछ मेरा है या मेरा कुछ भी नहीं है। यही ज्ञानी की स्थिति है।” यही मोक्ष है।

आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदंक्रियः।
यह आत्मा चैतन्य है। यह संसार इसी चैतन्य की अभिव्यक्ति है, इसी का विस्तार है। यही चेतना विविध रूपों में दिखाई देता है।

आनन्दपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर।
तूं आत्मा है जो आत्मा परमानन्द का भी आनन्द है फिर तेरे में दु:ख, डर आदि कैसे समा सकता है। तू ज्ञानी ही नहीं है, स्वयं ज्ञान है, बोध है। इसलिए तू सुख के साथ विचरण कर।
(अष्टावक्र गीता)

(लेखक बीकानेर निवासी हैं और अध्यात्मिक विषयों पर लिखते हैं)