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राजनीति के कीचड़ में खिला हुआ कमल है मनोहर पर्रिकर

यों जन्मदिन अभिनंदन हो चुका है। 13 दिसंबर गुजर गई है। बावजूद इसके मनोहर गोपाल कृष्णा पर्रिकर के साठ वर्ष पर लिखना इसलिए जरूरी है क्योंकि भारत में ऐसे लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं जो सार्वजनिक जीवन को सहज-सामान्य याकि कॉमनमेन की तरह जीते हैं। पर्रिकर से अपना परिचय नहीं है। और अपना परिचय एके एंटनी से भी नहीं रहा तो त्रिपुरा के माणिक सरकार से भी नहीं। मगर अपन खबर रखते हैं, खबरनवीस हैं इसलिए सत्ता में होते हुए भी सादगी, सच्चाई, ईमानादरी व सहजता में इनके जीने पर पहले भी लिखा है और आज फिर लिख रहा हूं। एक वजह 19 महीनों की मोदी सरकार का अनुभव भी है। मनोहर पर्रिकर इस सरकार में रक्षा मंत्री हैं। यह मामूली पद नहीं होता। बावजूद इसके वे इस सरकार में अकेले ऐसे शख्स दिखलाई दिए हैं जिन्होंने न मोदी छाप बंडी पहनी और न बंडल मारे! वे अपने मूल चरित्र में ढले रहे। जैसे थे वैसे हैं। भाजपा और संघ के चाल, चेहरे, चरित्र के माफिक पर्रिकर ने पूरा जीवन जीया तो बतौर रक्षा मंत्री भी वैसे ही जी रहे हैं।

आप भी जरा विचार करें। मोदी सरकार में भला ऐसे कितने चेहरे हैं जिनसे सत्ता का, राजसी ठाठ का दर्प, अहंकार नहीं टपकता है!

हां, मनोहर पर्रिकर का मतलब सहजता है। साफगोई है। दलालों से दूरी है। मीडिया हेडलाइंस के मैनेजमेंट के प्रति लापरवाही है। कोई माने या नहीं माने, अपना मानना है कि मनोहर पर्रिकर से सेना का धीरे-धीरे कायाकल्प हो रहा है। इन दिनों कोई यह नहीं कहता मिलता कि रक्षा मंत्रालय में दलाल घूम रहे हैं। वैसे कांग्रेस के एके एंटनी के समय भी उनके इर्द-गिर्द दलाल नहीं फटकते थे। लेकिन एंटनी के वक्त भारत की जरूरत की हथियार खरीदारी भी नहीं हो रही थी और जो हो रही थी उसमें आलाकमान के सूत्रों की चर्चा होती थी। वह स्थिति नहीं है। पर्रिकर ने हथियार खरीद की रीति-नीति में पारदर्शिता और ईमानदारी लाने के लिए जो कुछ भी किया है वह मायने वाला है। उसे देश-दुनिया के जानकार बूझ-समझ रहे हैं।

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मनोहर पर्रिकर की कमान थी जिससे पूर्व सैनिकों के लिए वन रैंक-वन पेंशन योजना सिरे चढ़ी। यों पूर्व सैनिकों के कुछ ट्रेड यूनियन नेता अभी भी आंदोलन कर रहे हैं। हकीकत में मनोहर पर्रिकर ने हर संभव कोशिश कर, वित्त मंत्रालय और आईएएस जमात से पार पा कर जो पैकेज बनवाया है वैसा शायद ही कोई दूसरा कर पाता। यों नरेंद्र मोदी को भी श्रेय जाता है। लेकिन कल्पना करें यदि अरुण जेटली ही वित्त के साथ रक्षा मंत्री बने रहते तो आज पूर्व सैनिकों का बवाल कैसा भयावह हुआ होता।

इस सबसे बड़ी बात बतौर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का सेना में यह दम फूंकना है कि हमें मरना नहीं दुश्मन को मारना है। उन्होंने परसों इस बात को बेबाकी से बताया कि सेना को निर्देश दिया हुआ है कि हमें मरना नहीं है बल्कि दुश्मन को मारना है। इसके खुलासे में उन्होंने म्यानमार आपरेशन का हवाला दिया। बताया कि मणिपुर में अलगावादी संगठन की घात से 18 सैनिक मारे गए तो तय हुआ कि छोड़ा नहीं जाएगा। तीन घंटे की मीटिंग हुई। सैनिकों ने तीन दिन तैयारी की और आपरेशन हुआ। जब वह पूरा हो गया तो उसकी जानकारी दी गई।

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लब्बोलुआब में मनोहर पर्रिकर आज की नेताई जमात में अलग मतलब लिए हुए राजनेता हैं। इसे भाग्य कहें या पुरुषार्थ कि अपने सिस्टम, राजनीति की तमाम गड़बड़ियों के बीच भी पर्रिकर, माणिक सरकार या एके एंटनी जैसे लोग भारत में लंबा कार्यकाल पा जाते हैं। पर्रिकर देश के पहले आईआईटी शिक्षित मुख्यमंत्री बने। जिस गोवा में ईसाई और कांग्रेस राजनीति का एकाधिकार था उसमें संघ के स्वयंसेवक के नाते वे राजनीति में आए और उन्होंने भाजपा की सरकार भी बनवा दी। वे दो दफा 2000 से 2005 के बीच और फिर मार्च 2012 से नवंबर 2014 तक गोवा के मुख्यमंत्री रहे। पर्रिकर की पत्नी की सन् 2000 में कैंसर से मृत्यु हुई। उन्होंने अपने दोनों बेटों की जिम्मेवारी संभाली। उन्हें राजनीति से दूर रख सहज भाव करियर की तरफ मोड़ा। कहते हैं दिल्ली में रक्षा मंत्री के ताम-झाम और सत्ता लकदक के बावजूद पर्रिकर का खास मन नहीं लगता। वे दिल्ली के एलिट, इनसाइडर जमात के घेरे में नहीं फंसे। तभी सप्ताहांत होता है तो विमान की इकोनोमी क्लास में बैठ गोवा चले जाते हैं। उनका मन गोवा की जमीं के अपने खूंटे में ही रमा रहता है। दिल्ली में आ कर मनोहर पर्रिकर न फैशन स्टेटमेंट बने, न ब्रांड बने और न बंडलबाज और न मीडिया के जरिए राजनीति कर अपनी दुकान बनवाई। अपने को चमकाया।

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ये सब बातें लिखना इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि मोदी सरकार का आज नंबर एक संकट यही है कि उसके कोर समर्थकों के बीच धारणा है कि वह चाल, चेहरे,चरित्र में भटकी हुई है। मोहभंग की इस बात के बीच मनोहर पर्रिकर जैसे कुछ चेहरे हैं जिनसे विश्वास है कि अभी सब खत्म नहीं है। दिल्ली के दलालों को पालने-पोसने, उनके बीच रमने, उनके हित साधते हुए वैभव-प्रदर्शित करते सत्ता भोगने की जिन चेहरों से बदनामी बनी है उससे इतर भी कुछ लोग हैं जो सादगी, निष्ठा और ईमानदारी से काम कर रहे हैं। पर मैं मनोहर पर्रिकर को उस जमात का प्रतिनिधि मानता हूं जिसमें माणिक सरकार जैसी कम्युनिस्ट सादगी-सरलता है तो कांग्रेस के खांटी संस्कार वाले एके एंटनी भी हैं। इन्हीं चेहरों से तो यह विश्वास बनता है कि अपनी राजनीति में सबकुछ खराब भी नहीं है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
साभार-http://www.nayaindia.com/ से