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‘मन तड़पत हरि दर्शन को’: शकील बदायूँनी ने लिखा, नौशाद ने संगीत दिया और मो. रफ़ी ने गाया

‘चौदहवीं का चांद’ पिक्चर का पहला गाना रिकॉर्ड किया जाना था. गुरु दत्त बैचैन थे और उनसे भी ज़्यादा स्टूडियो के कोने में कुर्सी पर बैठे हुए शकील बदायूंनी. संगीतकार रविशंकर शर्मा उर्फ़ ‘रवि’ दोनों की बैचैनी को बड़ी अच्छी तरह से समझ रहे थे. दरअसल, ‘कागज़ के फूल’ फ्लॉप हो चुकी थी. गुरुदत्त और बर्मन दा की जोड़ी टूट चुकी थी और उधर शकील भी पहली बार नौशाद के प्रभाव से बाहर निकलकर किसी नए संगीतकार से जुड़े थे.

शकील: ‘भाई रवि, सब ठीक तो रहेगा?’

रवि: ‘फ़िक्र न करो. बस तुम धीरज रखो.’

गुरुदत्त ने इन दोनों की बातचीत को सुना तो घबराकर कहा : ‘अरे शोंगीत जोदि भालो न होये तहोले सिनेमा फ्लॉप कोरे जाबे. शोकील तुमी बदायूं चोले जाओ. रोबी तुमी दिल्ली चोले जाओ..आर आमि डूबे मोरी’.

रवि ने हंसकर कहा. ‘दादा, शोब भालो होबे. तुमी चिंता कोरो ना’

पिक्चर हिट हो जाती है, रवि को बेस्ट म्यूजिक कंपोजर का अवार्ड मिलता है और शकील के हिस्से में पहली कामयाबी आती है. उन्हें ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो जो भी तुम ख़ुदा की कसम लाजवाब हो..’ के शीर्षक गीत के लिए 1961 में बेस्ट गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड मिलता है. फिर इसके बाद लगातार आने वाले दो साल यानी सन ‘62 में फिल्म ‘घराना’ और सन ‘63 में फिल्म ‘बीस साल बाद’ के गानों के लिए फिल्मफेयर अवार्ड उनकी झोली में आता है.

प्रकाश पंडित ने लिखा है, ‘शकील बेहद मशहूर शायर थे. समूचे हिन्दुस्तान में उनकी शायरी ने झंडे गाड़ दिए थे. वजह थी उनका बेपनाह तरन्नुम, शेरों की बेपनाह चुस्ती, और अनुभूति की बेपनाह तीव्रता. मैंने उसे कई ऐसे मुशायरों में भी दाद पाते देखा है, जहां श्रोतागण मानो कसम लेकर आते हैं की किसी शायर को भी ‘हूट’ किये बिना न छोड़ेंगे.’

अगरचे लफ़्ज़ों की पाबंदी और पाठकों के जल्दी ऊब जाने की आदत से मैं बेख़बर होता तो उनकी ग़ज़लें तफ़सील से लिखता पर यहां उनकी इक मशहूर ग़ज़ल पेश करता हूं.

मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम, तेरे ग़म से आश्कारा (ज़ाहिर)

तेरा ग़म है दर-हक़ीक़त मुझे ज़िन्दगी से प्यारा

वो अगर बुरा न माने तो जहांने-रंग-ओ-बू में मैं

सुकून-ए-दिल की ख़ातिर कोई ढूंढ लूं सहारा

मुझे तुझसे ख़ास निस्बत (रिश्ता), मैं रहीने-मौजे-तूफां

जिन्हें ज़िन्दगी थी प्यारी इन्हें मिल गया किनारा

ये ख़ुनक-खुनक हवायें ये झुकी झुकी घटायें

वो नज़र भी क्या नज़र है जो समझ न ले इशारा

मुझे आ गया यक़ीं सा यही है मेरी मंज़िल

सर-ए-रह जब किसी ने मुझे दफ़्फ़’अतन(अचानक) पुकारा

मैं बताऊं फ़र्क़ नासेह(समझदार आदमी), जो है मुझ में और तुझ में

मेरी ज़िन्दगी तलातुम, तेरी ज़िन्दगी किनारा

मुझे गुफ़्तगू से बढ़कर ग़म-ए-इज़्न-ए-गुफ़्तगू है (कहने का निर्देश)

वही बात पूछ्ते हैं जो न कह सकूं दोबारा

कोई ऐ शकील देखे ये जुनूं नहीं तो क्या है

कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा’

दिल्ली में शकील ने अंग्रेजी साहित्य के ‘फ्री वर्स’ और ‘ब्लैंक वर्स’ के उर्दू में इस्तेमाल को समझा. इन दोनों का मतलब है कि वो कविता जिनमें शब्दों को मीटर और तरन्नुम में बांधकर नहीं लिखा जाता. दिल्ली में रहते हुए शकील ने लगभग पूरे हिंदुस्तान के अलग-अलग शहरों में होने वाले मुशायरों में शिरकत की और उन्हें समझ आया कि मशहूर होने लिए सुखन के साथ साथ अंदाज़े बयान भी चुस्त होना चाहिए. तिस पर अलफ़ाज़ अगर सादे हों और सरल भाषा में लिखे जाएं तो सोने पर सुहागा है. मुंबई आकर उन्होंने सादे अंदाज़ में ग़ज़ल कहना और मुकम्मल कर लिया था उन्होंने. इसकी बानगी एक उनकी फ़िल्मी ग़ज़ल के चंद आशार पेश हैं.

‘तस्वीर बनाता हूं तेरी ख़ून–ए-जिगर से

देखा है तुझे मैंने मुहब्बत की नज़र से

जितने भी मिले रंग वो सब भर दिए तुझमें

इक रंग-ए-वफ़ा और है लाऊं वो किधर से’

शकील को उनके समकालीन शायरों ने सिर्फ मुहब्बत के अफ़साने लिखने वाले शायर का तमगा दे दिया था. इससे चिढ़कर उन्होंने कुछ शेर गढ़े जैसे:

क्या शै है माताअ-ए-ग़म-औ-राहत न समझना

जीना है तो जीने की हक़ीक़त न समझना

और

‘नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है

ये सहर भी रफ्ता-रफ्ता कहीं शाम तक न पंहुचे’

‘नई सुबह’ का जुमला प्रगतिशील (कम्युनिस्ट) शायरों का होता था.

सरदार जाफ़री ने उनके लिए कहा है; शकील ग़ज़ल कहना भी जानते हैं और गाना भी. मैं अपनी अदबी ज़िन्दगी में उनसे दूर रहा हूं लेकिन उनकी ग़ज़ल से हमेशा कुर्बत महसूस की है.’ याद दिला दूं कि जाफ़री साहब कम्युनिस्ट शायर थे. और साहिर लुधयानवी के ख़याल में तो: ‘जिगर और फ़िराक के बाद आने वाली पीढ़ी में शकील एकमात्र शायर हैं जिन्होंने अपनी कला के लिए ग़ज़ल का क्षेत्र चुना है…’

बात शुरू शकील के फ़िल्मी गानों से हुई थी लिहाज़ा अब उस पर भी एक नज़र डाल लेते हैं. पहला ब्रेक 1947 में आयी ‘दर्द’ पिक्चर में मिला. नौशाद साहब की धुन में लिखे गाने ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का आंखों में रंग भरके तेरे इंतज़ार का…’काफी हिट हुआ. नौशाद साहब के साथ उन्होंने 20 साल से भी ज्यादा काम किया था. जो बॉलीवुड में किसी भी जोड़ी से ज्यादा था. 1951 में ‘दीदार’ पिक्चर में नौशाद-शकील की जोड़ी जम गयी थी. ‘बचपन के दिन भुला न देना, आज हंसे कल रुला न देना…’ गाने ने धूम मचा दी थी.

1952 में आई ‘बैजू बावरा’ का महान गीत ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज…’ न सिर्फ सिनेमा जगत में धर्म निरपेक्षता की मिसाल है बल्कि भारत की आत्मा का भी प्रतीक है. इस भजन को लिखा शकील बदायूंनी ने, संगीत दिया नौशाद ने और इसे गाया महान मुहम्मद रफ़ी साहब ने.

ठीक इसी प्रकार 1955 में आई ‘उड़न खटोला’ का गाना ‘ओ दूर के मुसाफ़िर, हमको भी साथ ले ले रे, हम रह गए अकेले…’आज भी अगर कहीं बज जाए तो मेरा दावा है आप मुहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में आवाज़ मिला देंगे.

1960 में रिलीज़ हुई ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की वो मशहूर कव्वाली याद है जिसमें ‘अनारकली’ बनी अदाकारा मधुबाला ‘अकबर’ के सामने उसके शीश महल में गाती है. उसके बोल थे;

‘तेरी महफ़िल में किस्मत आज़माकर हम भी देखेंगे/ घड़ी भर को तेरे नज़दीक आकर हम भी देखेंगे/ तेरे क़दमों पे सर अपना झुकाकर हम भी देखेंगे…’ इस कव्वाली ने यकीनन दिलीप साहब के दिल में मधुबाला के लिए जाने कितनी हूक पैदा कर दी होगी.

कुछ और शानदार यादगार फिल्मों जैसे, ‘दुलारी’, ‘गंगा जमुना’, ‘शबाब’, ‘मेरे महबूब’ में भी यह जोड़ी खूब चमकी. सन 1957 में महबूब खान साहब ने’ मदर इंडिया’ बनायी थी जो कि उनकी ही 1940 में प्रदर्शित फिल्म ‘औरत’ का रीमेक थी. स्टार कास्ट के अलावा ‘मदर इंडिया’ की टीम लगभग वही थी जो ‘औरत’ की थी. बस गीत संगीत वाली जोड़ी- अनिल बिस्वास और सफ़दर आह की जगह नौशाद और शकील की थी. शुरुआत में इसके गानों को ज़्यादा पसंद नहीं किया गया था. समालोचकों को फिल्म का गीत-संगीत कहानी के दर्ज़े का नहीं लगा. बाद में इसके गीत लोगों की जुबां पर चढ़कर बोलने लगे. शमशाद बेगम की आवाज़ में होली का गीत ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरसे बजा दे ज़रा बांसुरी…’ अब तक होली पर बने हुए अन्य गीतों की तुलना में सबसे ज़्यादा देशज मौलिकता का दर्ज़ा रखता है. इसके बाकी के गाने आज भी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर हैं. पिक्चर तो खैर हिन्दुस्तान की सबसे महान फिल्मों में से एक है.

भाग्य का खेल देखिये शकील ने जब भी नौशाद के साथ काम किया उन्हें एक भी सम्मान नहीं मिला. जैसा मैंने ऊपर लिखा था, शकील को तीन बार फिल्मफेयर पुरस्कार मिले जिनमें से दो बार रवि के साथ और एक बार हेमंत कुमार के साथ जोड़ी बनाने पर मिला. पर यारी की मिसाल भी देखिये कि जब तपेदिक के इलाज़ के लिए शकील अस्पताल में भर्ती हुए तब नौशाद उनके लिए तीन फिल्मों में गाने लिखने का कॉन्ट्रैक्ट करवाकर लाये थे और फीस भी दस गुना ज़्यादा दिलवाई थी ताकि उनका इलाज़ तसल्ली से हो सके.

शकील ने जो देखा, सोचा और समझा वही लिखा. उनके लिखे शेर से बात को अंजाम दिया जाये तो बेहतर होगा;

मैं ‘शकील’ दिल का हूं तर्जुमा, कि मुहब्बतों का हूं राज़दां,

मुझे फ़क्र है मेरी शायरी, मेरी जिंदगी से जुदा नहीं.’

चित्र साभारः mohdrafi.com से

साभार- https://satyagrah.scroll.in से