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मनोहर पर्रिकर, तरबूज और बीज

स्व. मनोहर पर्रिकर ने एक बार अपने मित्रों को ये किस्सा सुनाया था।

“मैं गोआ के एक गाँव “पर्रा” से हूँ, इसलिये हम “पर्रिकर” कहे जाते हैं। मेरा गाँव अपने तरबूजों के लिये प्रसिद्ध है। जब मैं बच्चा था, वहाँ फसल कटाई के बाद मई में किसान एक ‘तरबूज खाओ प्रतियोगिता’ आयोजित करते थे। सभी बच्चों को बुलाया जाता था और उन्हें जितने चाहो उतने तरबूज खाने को कहा जाता था।

कई साल बाद, मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिये आईआईटी मुम्बई चला गया। फिर ६ – ७ साल बाद अपने गाँव वापस आया। मैं तरबूज ढूंढने बाजार गया। पर वो गायब थे। जो वहाँ मिले भी वे बहुत छोटे-छोटे थे।

मैं उस किसान से मिलने गया जो ‘तरबूज खाओ प्रतियोगिता’ आयोजित करता था। अब उसकी जगह उसके बेटे ने ले ली थी। वह प्रतियोगिता आयोजित करता था पर एक अंतर था। जब वो बूढ़ा किसान हमें तरबूज खाने को देता था, वह हमें एक कटोरे में बीज थूक देने को कहता। हमें बीज चबाने की मनाही थी। वह अगली फसल के लिये बीज इकट्ठा कर रहा था।

हम अवैतनिक बाल मजदूर थे, असल में ।

वह प्रतियोगिता के लिये अपने बेहतरीन तरबूज रखता था जिनसे वह सबसे अच्छे बीज प्राप्त करता था जिनसे अगले साल और भी बड़े तरबूज पैदा होते थे। जब उसका बेटा आ गया, तो उसने सोचा कि बड़े वाले तरबूजों के बाजार में ज्यादा दाम मिलेंगे सो उसने बड़े वाले तो बेचने शुरू किये और प्रतियोगिता के लिये छोटे तरबूज रखने लगा। अगले साल, तरबूज छोटे हुए, और अगले साल उनसे भी छोटे। तरबूजों की पीढ़ी एक साल की होती है।

सात सालों में, पर्रा के बेहतरीन तरबूजों का सफाया हो गया। मनुष्यों में, 25 साल पर पीढ़ी बदल जाती है। हमें 200 सालों में यह पता चलेगा कि हम अपने बच्चों को पढ़ाने में क्या त्रुटियाँ कर रहे थे।
अगर हम अगली पीढ़ी को तैयार करने में अपना सर्वश्रेष्ठ दाँव पर नहीं लगाएंगे, तो यही हमारे साथ भी हो सकता है।
हमें शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अच्छी प्रतिभाओं को लगाना चाहिये।”

(हमे नई पीढ़ी को, इस औपनिवेशिक व वामपंथी शिक्षा से मुक्ति दिलाकर, मूल्य आधारित नैतिक शिक्षा देनी ही होगी)