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‘मोदी जी की बांग्लादेश यात्रा से, दोनों देशों के रिश्ते में आयी नई गर्मजोशी’

1971 के स्वतंत्रता संग्राम के 50 साल बाद शेख़ हसीना और नरेंद्र मोदी संबंधों और हालातों की उसी निरंतरता को बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं जिसकी नींव इंदिरा गांधी और मुजीबुर रहमान ने काफ़ी पहले ही रख दी थी.

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भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा का विरोध करने वाले सरकार विरोधी छात्रों के समूह और इस्लामिक तत्वों ने निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के लिए शर्मिंदगी वाले हालात पैदा कर दिए हैं. ढाका विश्वविद्यालय में पुलिस को प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए कड़े उपाय करने पड़े. मोदी के दौरे से ख़फ़ा चरमपंथी हिफ़ाज़त–ए–इस्लाम से जुड़े तत्वों के ख़िलाफ़ देश के दूसरे शहरों में और भी कड़ी कार्रवाई करने की नौबत आ गई. पुलिस की गोलीबारी में कई लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी है. हालात का फ़ायदा उठाते हुए बांग्लादेश के राजनीतिक विपक्ष ने काफ़ी हो हल्ला मचाया है. ऐसी आशंकाएं प्रकट की जाने लगी हैं कि बांग्लादेशी राजनीति में चरमपंथ का जो स्थान पहले जमात-ए-इस्लामी ने हथिया रखा था उस खाली पड़ी जगह को अब हिफ़ाज़त और उससे जुड़े लोग भर सकते हैं.

ग़ौरतलब है कि जमात से जुड़े कई शीर्ष नेताओं को 1971 के युद्ध अपराधों के मामलों में दोषी करार देकर फांसी पर लटकाया जा चुका है. पिछले कुछ सालों में धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की नाराज़गी के बावजूद सरकार ने हिफ़ाज़त से जुड़े कई लोगों के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए हैं. हालांकि, इस वक़्त सरकार को ऐसी रणनीति बनाने की ज़रूरत है जो मौजूदा हालात को ठंडा कर सकें.

2015 के बाद की ये पहली बांग्लादेश यात्रा नरेंद्र मोदी और उनके शिष्टमंडल के लिए कई मायनों में संतोषजनक रही है. पूरे दौरे में मोदी अपने रंग में नज़र आए. उन्होंने लगातार भारत और बांग्लादेश के बीच के करीबी संबंधों की चर्चा की. इस अवसर पर बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में भारत की भूमिका और 1971 के संघर्ष के दौरान भारत द्वारा मुहैया कराई गई नैतिक और आर्थिक मदद को भी याद किया गया. ढाका में मोदी और हसीना के बीच हुई बातचीत ने कई मायनों में पुरानी पीढ़ी के मन में 1970 के दशक की शुरुआत में शेख़ मुजीबुर रहमान और इंदिरा गांधी के बीच के दोस्ताना संबंधों की यादों को एक बार फिर से ताज़ा कर दिया.

ऐसी आशंकाएं प्रकट की जाने लगी हैं कि बांग्लादेशी राजनीति में चरमपंथ का जो स्थान पहले जमात-ए-इस्लामी ने हथिया रखा था उस खाली पड़ी जगह को अब हिफ़ाज़त और उससे जुड़े लोग भर सकते हैं.

पीएम की यात्रा से संबंधों में मज़बूती
बांग्लादेश के लिहाज से उसकी आज़ादी की 50वीं सालगिरह से जुड़े जश्न के मौके पर मौजूदा भारतीय नेतृत्व की ढाका में मौजूदगी ही सबसे उपयुक्त बात हो सकती थी. आधी शताब्दी पहले श्रीमती गांधी ने बांग्लादेश के पक्ष में राजनीतिक और कूटनीतिक मुहिम चलाई थी, तो वहीं आधी शताब्दी बाद मोदी ने ये भरोसा दिलाया कि दोनों देशों के बीच कई बार खड़ी होने वाली तमाम बाधाओं के बावजूद आपसी संबंध मज़बूत बने रहेंगे. स्वास्थ्य, ऊर्जा, संपर्क और विकास के मामलों में सहयोग से जुड़े पांच समझौता पत्रों (एमओयू) की शुरुआत से दोनों देशों के बीच गहरे होते द्विपक्षीय संबंधों की गंभीरता को समझा जा सकता है. इनके साथ ही आठ परियोजनाओं की शुरुआत भी की गई. इनमें शिलाइदाहा में कुठीबाड़ी का पुनर्निर्माण, बांग्लादेश के मुजीबनगर से कोलकाता के बीच पश्चिम बंगाल के नदिया के रास्ते एक स्वतंत्र सड़क का निर्माण, 1971 के युद्ध में भारत–बांग्लादेश मैत्री बल का हिस्सा रहे शहीद भारतीय सैनिकों की याद में मकबरे का निर्माण, चिलाहाटी और हल्दीबाड़ी के बीच पैसेंजर ट्रेन का उद्घाटन, भारत द्वारा बांग्लादेश को 109 एंबुलेंसों का तोहफ़ा और दोनों देशों की सीमा पर दो ग्रामीण बाज़ारों या हाटों की शुरुआत– ये कुछ ऐसे मामले हैं जिन्हें भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा की उपलब्धियों के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है.

बांग्लादेश ने रोहिंग्या शरणार्थी संकट के मुद्दे पर भारत से एक सक्रिय भूमिका निभाने की आशा जताई. बांग्लादेश चाहता है कि कि भारत समस्या के समाधान के लिए म्यांमार की हुकूमत पर अपना दबाव बढ़ाए.

तीस्ता जल बंटवारे से जुड़ी समस्या या सीमा पर भारत के सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ़) द्वारा की गई हत्याओं से जुड़ी घटनाओं के चलते बांग्लादेशियों के मन में कई बार उत्तेजना आने लगती है, लेकिन मोदी की इस यात्रा ने इस सच्चाई पर भरोसा जगाया है कि दोनों देशों के बीच के रिश्तों की बुनियाद अब भी बिना किसी रुकावट के मज़बूती से टिकी हुई है. ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश की विदेश नीति ने ख़ासकर, चीन के साथ बढ़ते संबंधों के मद्देनज़र व्यापक आयाम हासिल कर लिए हैं. भारत के मन में ढाका और बीजिंग के बीच की बढ़ती नज़दीकियों के चलते कई संदेह भरे हुए हैं. ख़ासतौर से बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) पर चीन के ज़ोर और बांग्लादेश की परियोजनाओं में चीन की बढ़ती भूमिका को इस संदर्भ में रेखांकित करना ज़रूरी हो जाता है. हालांकि, सच्चाई यही है कि ढाका की कूटनीति किसी के प्रति विद्वेष के बिना सबके साथ दोस्ती कायम करने में विश्वास रखती है. इस नीति की बुनियाद 1972 में शेख़ मुजीबुर–रहमान ने रखी थी. तबसे लेकर आजतक वहां की सभी सरकारों ने इसपर अमल सुनिश्चित किया है. अपनी सरहदों के पार बाहरी दुनिया के साथ बांग्लादेश के रिश्तों में इसी नीति की झलक मिलती है. शेख़ हसीना ने नरेंद्र मोदी को इसी बात का भरोसा दिलाया. उन्होंने ज़ोर देकर बताया कि एक ऐसे समय में जब बांग्लादेश निम्न आय वाले देश से एक मध्यम आय वाला राष्ट्र बनता जा रहा है, तब वह एक स्वतंत्र विदेश नीति के रास्ते पर चलकर उसी का पालन कर रहा है. इसके साथ ही बांग्लादेश ने रोहिंग्या शरणार्थी संकट के मुद्दे पर भारत से एक सक्रिय भूमिका निभाने की आशा जताई. बांग्लादेश चाहता है कि कि भारत समस्या के समाधान के लिए म्यांमार की हुकूमत पर अपना दबाव बढ़ाए.

मटुआ समुदाय से मुलाक़ात
भारत के प्रधानमंत्री की बंगबंधु शेख़ मुजीबुर रहमान के मज़ार की यात्रा उनके बांग्लादेश दौरे की एक अहम घटना थी. किसी विदेशी सत्ता या राष्ट्र के प्रधान द्वारा शेख़ साहब के पैतृक गांव तुंगीपाड़ा का ये पहला दौरा था. अगस्त 1975 में हुए तख्तापलट के दौरान बांग्लादेश के संस्थापक की हत्या के बाद उन्हें इसी गांव में दफ़नाया गया था. मुजीबुर रहमान को मरणोपरांत गांधी शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया. भारत सरकार बांग्लादेश को आज़ादी दिलाने वाले इस नेता को कितना सम्मान देती है, ये पुरस्कार इसी बात का परिचायक है.

मोदी की बांग्लादेश यात्रा का एक और महत्वपूर्ण चरण था सतखीरा और गोपालगंज के मंदिरों का दौरा. मंदिरों की उनकी ये यात्रा बांग्लादेश के हिंदू समुदाय के लिए भरोसा जगाने वाली थी. बहरहाल, गोपालगंज के ओराकांडी में मटुआ समुदाय के साथ उनके संवाद पर पश्चिम बंगाल के चुनावों के मद्देनज़र सवाल भी खड़े किए गए. पश्चिम बंगाल में मटुआ समुदाय के लोगों की अच्छी–ख़ासी आबादी रहती है, ऐसे में सवाल उठे कि क्या मटुआ समुदाय के साथ भारतीय नेता की मुलाक़ात पश्चिम बंगाल के वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश तो नहीं है. ममता बनर्जी ने मोदी के ख़िलाफ़ ऐसे ही आरोप लगाए हैं. जहां तक बांग्लादेश के लोगों का सवाल है तो निश्चित तौर पर वो पश्चिम बंगाल में जारी चुनावी अभियान पर अपनी पैनी नज़र बनाए हुए हैं और आख़िरकार चुनावों के क्या नतीजे आते हैं उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं.

बांग्लादेश द्वारा आज़ादी की घोषणा की 50वीं सालगिरह के साथ भारत-बांग्लादेश संबंधों की आधी शताब्दी भी पूरी हुई. इतना ही नहीं ये मौका शेख़ मुजीबुर रहमान के जन्म शताब्दी वर्ष का भी रहा. ऐसे मौके पर भारतीय प्रधानमंत्री के दौरे से दोनों देशों के रिश्तों में एक नई गर्मजोशी आई है

बांग्लादेश द्वारा आज़ादी की घोषणा की 50वीं सालगिरह के साथ भारत–बांग्लादेश संबंधों की आधी शताब्दी भी पूरी हुई. इतना ही नहीं ये मौका शेख़ मुजीबुर रहमान के जन्म शताब्दी वर्ष का भी रहा. ऐसे मौके पर भारतीय प्रधानमंत्री के दौरे से दोनों देशों के रिश्तों में एक नई गर्मजोशी आई है. इस दौरे से एक बार फिर ये साबित हुआ कि 2014 के बाद से अब तक हालात कितने बदल गए हैं. 2014 में जब भारत में भारतीय जनता पार्टी चुनावों में शानदार जीत दर्ज कर सत्ता में आई थी तब बांग्लादेश के लोगों ने अटकलें लगाई थीं कि क्या ढाका में धर्मनिरपेक्ष अवामी लीग की सरकार और दिल्ली में हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के बीच के रिश्ते निर्बाध रूप से आगे बढ़ पाएंगे. ढाका और दिल्ली दोनों ने ही एक–दूसरे को निराश नहीं किया. 1971 के स्वतंत्रता संग्राम के 50 साल बाद शेख़ हसीना और नरेंद्र मोदी संबंधों और हालातों की उसी निरंतरता को बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं जिसकी नींव इंदिरा गांधी और मुजीबुर रहमान ने काफ़ी पहले ही रख दी थी. मोदी का दौरा भारत और बांग्लादेश के बीच लगातार चलते आ रहे कूटनीतिक रिश्तों में मील का पत्थर साबित हुआ है. दोनों ही देशों के लिए आपसी भरोसे का दर्जा सबसे ऊपर है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

साभार. https://www.orfonline.org/hindi/ से