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फ़िल्मी दुनिया में एकाधिकार, भाई भतीजा वाद, अवसरवादिता और अवसाद

पुरानी कहावत है कि जँहा गुड़ होता है वंही चीटियां आती हैं। फ़िल्मी दुनिया पर भी यही बात लागू होती है। नाम, पैसा, शोहरत , ऊंची सोसाइटी में पहुँच और बहुत कुछ मिल जाता है अगर आप इस दुनिया में नाम बनाने में सफल हो गए। अक्षय कुमार ने खुद बताया कि जब पहली बार मॉडलिंग किया और दो घंटे की शूटिंग के उन्हें १० हज़ार रुपये मिले तो उसी समय उन्होंने एक्टर बनने का फैसला किया क्यों कि इतनी कम मेहनत और कम समय में इतना पैसा इस क्षेत्र में ही मिल सकता है। सच भी है कि पिछले साल उनकी कमाई फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुसार ३६५ करोड़ रही , लगभग १ करोड़ रोज की।ऐसे ही बहुत सारे सितारे हैं जो करोड़ों रुपये रोज़ का लेते हैं बाकी सब सुविधाएँ अलग से।

यही कारण है कि लगभग हर बड़े स्टार अपने बेटा या बेटी को इस क्षेत्र में लाना चाहता है भले ही वह लायक हो या न हो। अगर किस्मत अच्छी हुई तो बड़ा स्टार बन जाएगा नहीं तो दो चार फ्लॉप फिल्में करने के बाद भी ५-१० लाख रुपये फीता काटने , उदघाटन करने या शादी व्याह में शामिल होने के मिल ही जायेंगे। कोई पढाई की ज़रुरत नहीं , कोई नौकरी करने की ज़रुरत नहीं बस घर बैठे शक़्ल दिखाओ पैसे कमाओ। कुछ और करने का मन करे तो अवार्ड फंक्शन , रियलिटी शो या फिर बिग बॉस टाइप के शो हैं टाइम पास करने के लिए। आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिये ऐसे बहुत सारे चेहरे आपको टीवी, स्टेज पर या सोशल मीडिया पर यह सब करते मिल जाएंगे। अब आप कितने भी टैलेंटेड एक्टर हो आपको शायद काम भी न मिले लेकिन यह तथाकथित स्टार जिनमे से ज्यादातर ८ वीं और दसवीं फेल , अंडर ग्रेजुएट हैं और जिनका सामान्य ज्ञान राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री में भेद भी नहीं जानता वो हमें और आपको दुनिया के हर विषय पर ज्ञान बांटते हैं और शेखी बघारते हैं।बस यहीं से शुरू होता है एकाधिकारवाद और वंशवाद/भाईभतीजा वाद (नेपोटिस्म) फ़िल्मी दुनिया का, यानि सुनहरे परदे की काली सच्चाई।
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यह कोई नयी बात नहीं है कि वंशवाद/भाईभतीजा वाद (नेपोटिस्म) आपको दुनिया के हर क्षेत्र में मिलेगा लेकिन फ़िल्मी दुनिया में यह सबको ज्यादा नज़र आता है क्योंकि यह हमेशा मीडिया की नज़र में रहता है , इस पर गॉसिप लिखे जाते हैं , कई चैनल , अखबार और वेबसाइट इस के भरोसे ही चलते हैं जैसे कि फलां स्टार के बेटे ने आज पोट्टी नहीं की , या फलानी हेरोइन का किस किस के साथ चक्कर चल रहा है या इस हीरो हेरोइन के ऐसे कपडे पहनते ही फैशन का भूचाल आ गया।

लगभग १०० साल पहले जब भारतीय फिल्म की शुरुआत हुई तब से मूक, बोलने वाली, काली सफ़ेद , रंगीन और सिनेमास्कोप से ७० एम एम तक का एक लंबा सफर है। पहले फ़िल्में धार्मिक विषयों पर बनानी शुरू हुई फिर सामाजिक , ऐतिहासिक ,पारिवारिक , रहस्य रोमांच , मार धाड़ , संगीतमय और सत्य घटनाओं से होती हुई आज यंहा तक पहुंची लेकिन आज भी सफल लोगों की गिनती कम और असफल ज्यादा मिलेंगे कारण वही वंशवाद , एकाधिकारवाद , लालच और धोखाधड़ी। एक सफल आदमी को देख कर हज़ारों लोग वैसी ही सफलता पाने के लिए दौड़े चले आते हैं उनमे से कुछ रुक पाते हैं कुछ हवा में उड़ जाते हैं, कुछ आसमान छू जाते हैं कुछ मौत को गले लगा लेते हैं। इस दुनिया में बहुत सफल लोगों को भी सब कुछ लुटा कर सड़क पर आते देखा गया है और लोगों को फुटपाथ से महलों में जाते भी देखा गया है। इसी का नाम माया नगरी है। यह दुनिया फंतासी भी है ,छलावा भी है , भूल भुलैया भी है और जुआ भी है। दांव चल गया तो राजा नहीं तो रंक।
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जब भारत में “राजा हरिश्चंद्र” (१९१३) से इस विधा की शुरुआत दादा साहेब फाल्के ने की तो उन्होंने भी अपना सब कुछ दांव पर लगा कर एक जूनून की तरह इस विधा को जिया , पाला पोसा और लोगों में इसके प्रति लगाव पैदा किया। बहुत से लोग इस क्षेत्र में आये उन्होंने इसकी बुनियाद मजबूत बनायी , स्टूडियो बनाये , लोगों को रोजगार दिया, धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई और लोगों तक पहुंचाई , जिसने आज़ादी की लड़ाई से लेकर सामाजिक जनजागरण में काफी सहयोग दिया।

इनमे ज्यादातर मराठी, बंगाली और पारसी निर्माता, निर्देशक रहे जैसे व्ही शांताराम , हिमांशु रॉय , बिमल रॉय , अर्देशिर ईरानी , शशधर मुख़र्जी , सोहराब मोदी और भी बहुत सारे गुनी प्रतिभावान लोग जिन्होंने इस क्षेत्र में जूनून की हद तक काम किया और बहुत सारे प्रतिभावान लोगों को मौका भी दिया। क्या कभी बॉम्बे टॉकीज़ में काम करने वाला एक लैब तकनीशियन हीरो बनने की सोच सकता था लेकिन हिमांशु रॉय ने कुमुद लाल गांगुली को अशोक कुमार जैसा नायाब हीरो बनाया। ऐसे बहुत ही किस्से मिलेंगे जंहा लोग सफलता की ऊंचाई पर पहुंचे सिर्फ अपनी प्रतिभा के दम पर लेकिन पारखी नज़रें भी ऐसी थीं की कला और कलाकार को पहचान लेती थीं। उस समय गुजराती , मारवाड़ी , सिंधी और पारसी व्यापारी स्टूडियो से लेकर फिल्मों में पैसे लगाते थे और मुनाफा कमाते थे लेकिन रचनात्मक और कला के विषय में हस्तक्षेप नहीं करते थे।

आज़ादी के बाद बदली फ़िल्मी दुनिया

आज़ादी के बाद पचास के दशक में लाहौर , कोलकता से बहुत से लोग मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में आये और संघर्ष शुरू किया। इनमे पंजाबियों और सिंधियों की संख्या काफी थी। कुछ बँटवारे की त्रासदियों के शिकार भी थे तो कुछ अपनी किस्मत यहीं आजमाना चाहते थे जाहिर है लोगों का ग्रुप भी बनना शुरू हुआ। एक तरफ जंहा बंगाली और मराठी निर्माता निर्देशकों का दबदबा था वंही पंजाबी और मुस्लिम लॉबी भी सक्रिय हुई। अभी तक जो स्टूडियो सिस्टम था यानी हर कलाकार और तकनीशियन को एक फिक्स सैलरी मिलती थी वह धीरे धीरे स्टार सिस्टम में बदलने लगा। दिलीप कुमार , देव आनंद और राज कपूर जैसे सितारों का दौर आया और यह राज करने लगे। स्टूडियो सिस्टम ख़तम होने लगा था और व्यक्ति पूजा का दौर शुरू हो रहा था यानी स्टार को निर्माता और निर्देशक से ज्यादा तवज्जो मिलने लगी थी। अब फ़िल्में भी धीरे धीरे बदलने लगी थी। रंगीन फिल्मों का दौर शुरू होने लगा था। गीत संगीत लोगों की पसंद के बनने लगे थे।

ऐसे समय में भी एकाधिकार, अवसरवादिता और अवसाद फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो चुके थे। उस समय के सबसे मशहूर गीतकार शैलेन्द्र जब निर्माता बने और अपने दोस्त राज कपूर को हीरो लेकर तीसरी कसम (१९६६) फिल्म बनायी। फिल्म बनाते बनाते उनका बँगला बिक गया मगर फिल्म बिकी नहीं , क़र्ज़ और अवसाद के तले दबकर फिल्म की रिलीज़ के पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी। ऐसे ही न जाने कितने अनगिनत छोटे बड़े निर्माता ,निर्देशक , अभिनेता अभिनेत्री रहे जो असफलता को झेल नहीं पाए , कुछ गुमनाम हो गए , कुछ दिवालिया हो गए , कुछ ने मौत को गले लगा लिए और कुछ कंगाली और बदहाली में आखरी वक्त का इंतज़ार करते रह गए। भारत भूषण , भगवान दादा , मुबारक बेगम , विमी , गुरुदत्त , ए के हंगल और भी न जाने कितने अनगिनत और गुमनाम नाम हैं। अब तक फिल्म में फाइनेंस ज्यादातर सिंधी , मारवाड़ी और गुजराती व्यापारी करते थे और अपने पैसे की वसूली के लिए हर तरह के तरीके अपनाते थे।

दिलीप कुमार के बाद राजेंद्र कुमार , राजेश खन्ना ,धर्मेंद्र , अमिताभ बच्चन , जीतेन्द्र , मिथुन , विनोद खन्ना का दौर शुरू हुआ। अब तो हीरो ही भगवान होता था। राजेश खन्ना के साथ के लोग कहते ही थे की ऊपर आका और नीचे काका (राजेश खन्ना ) बस यही दो हैं इस संसार में। धीरे धीरे बंगाली और मराठी ग्रुप पिछड़ रहा था और पंजाबी , सिंधी और मुस्लिम ग्रुप ने फ़िल्मी दुनिया में अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी थी। हालांकि गाहे बेगाहे माफिया गिरोह का भी इस दुनिया पर असर होने लगा था। करीम लाला , हाजी मस्तान , मटका किंग रतन खत्री और भी बहुत से लोग अपने किसी प्यादे के जरिये या फिर सीधे ही फिल्मों में पैसा लगाते रहते थे। आज़ादी के बाद आयी हुई पंजाबी सिंधी लॉबी ने अब अपने दोस्तों , रिश्तेदारों को धीरे धीरे इस दुनिया में लाना शुरू कर दिया था कभी तो किसी भी कीमत पर उन्हें सफल बनाने की कोशिश भी होती रही।

अस्सी के बाद के सालों में हर तरह की और कभी कभी बिना सर पैर की फिल्में बनने लगीं। संगीत के नाम पर शोर भी सुनाया जाने लगा , कहानी के नाम पर फार्मूला भी दिखाया जाने लगा। सितारों को माफिया अपनी महफिलों में बुलाने लगे , उनके साथ सम्बन्ध रखने वालों को ज्यादा इज्जत मिलने लगी। माफिया का पैसा फिल्मों में घूमने लगा। स्टार की डेट्स वह अपने हिसाब से बांटने लगे और कुछ स्टार उनके हाथों की कठपुतली हो गए। वह वही फिल्म करते जो उन्हें वंहा से कही जाती। निर्माता निर्देशकों पर हफ्ता देने का दबाव बनाया जाने लगा और जो न देता उसके ऊपर हमले होने लगे। राकेश रोशन , राजीव राय , मुकेश दुग्गल , गुलशन कुमार और भी बहुत से नाम हैं जिन पर हमले हुए या जिनकी जान चली गयी।अभिनेता मिथुन ने माफिया के डर से अपना ठिकाना दक्षिण के शहर ऊटी में बना लिया।

इस फ़िल्मी दुनिया को पैसे और शोहरत कमाने का आसान जरिया समझ कर जमे जमाये लोगों ने अपने बेटे ,बेटियों रिश्तेदारों को लांच करना शुरू कर दिया था। जिसकी लाठी उसकी ही भैंस ऐसा ही दिखने लगा था। पहले लोग टैलेंट हंट में जीत कर अपनी प्रतिभा दिखाते थे और जो काबिल होते थे वही टिक पाते थे अब तो थाली में सजा कर बच्चों को फ़िल्में पकड़ा दी जाती थीं। इंडस्ट्री पर चंद लोगों का कब्ज़ा हो गया था उनमे से माफिया भी एक था। नब्बे के दशक में शाहरुख़ खान ही एक ऐसा नाम थे जो टीवी सीरियल करके फिल्मों में चमक पाए थे बिना किसी फ़िल्मी बैकग्राउंड के। इस समय भी कुछ ज्यादा नहीं बदला था बस शैलेन्द्र की जगह मशहूर अभिनेता विनोद मेहरा ने निर्माता बनने की सोची फिल्म शुरू की “गुरु देव ” (ऋषि कपूर, अनिल कपूर , श्री देवी ) लेकिन तारीखों और क़र्ज़ मैं ऐसा उलझे कि फिल्म पूरी होने के पहले ही अवसाद और तनाव की वजह से ह्रदय गति रुक गयी।

आज से चालीस पचास साल पहले जो परिवार या लोग बाहर से इस दुनिया में नाम बनाने आये थे अब वही लोग अपने बेटे बेटियों को लांच करने लगे। पहले कुछ फिल्मों में काम कराओ नहीं तो फिर प्रोडक्शन हाउस खोल दो। कहीं फीता काटने के लिए नहीं किसी टीवी रियलिटी शो में जज बनने के लिए या फिर टीवी सीरियल का निर्माता बनने के लायक बैकग्राउंड तो बन ही गया है। वास्तव में यह सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वालों के लिए एकाधिकार ही तो है। किसी भी बाहरी आदमी को घुसने मत दो नहीं तो वह तुम्हारा काम छीन लेगा। अगर वह टैलेंटेड निकल गया तो तुम बेकार हो जाओगे। ऐसी बातें मन में लेकर परिवारवाद और अवसरवाद का नया गेम शुरू हो गया।

अच्छा चलिए मान लीजिये की आप बहुत टैलेंटेड हैं और आपने अपने लिए या अपने किसी के लिए कोई फिल्म खुद ही बना दी , आप रिलीज़ करने के लिए फिर इन्हीं के ग्रुप के किसी आदमी के पास जाओगे तो फिल्म को रिलीज़ नहीं होने देगा , रिलीज़ अगर हो गयी तो चलने नहीं देगा , अगर कुछ चल गयी तो किसी अवार्ड में शामिल नहीं होने देगा और न ही अवार्ड मिलेगा , फिर आप धीरे से साइड लाइन कर दिए जाओगे। फ़िल्मी दुनिया के लोग धुरंधर धीरे से आ कर कहेंगे की यंहा इंडस्ट्री में अब या तो शाहरुख़ बिकता है या फिर सेक्स इसीलिए महेश भट्ट ने सी ग्रेड सेक्स को ए ग्रेड में बना कर बेचना शुरू कर दिया। अब लोग सनी देओल नहीं सनी लेओनी के पीछे पड़ गए हैं।

यहीं पर अब धीरे धीरे कॉर्पोरेट स्टूडियोज की शुरुआत होती है और इनका ध्यान इसी पर था कि अपनी बॉन्ड इक्विटी कैसे बढ़ाएं। फिर क्या था बड़े बड़े स्टार और नामों को बड़े बड़े दाम पर साइन कर लिया गया। जो निर्माता किसी स्टार को अगर एक करोड़ देता था इन्होने उसे दस करोड़ में साइन कर किया। धीरे धीरे जितने भी निर्माता थे उन्हें फिल्म बनाने के लिए आर्टिस्ट या स्टार मिलने बंद हो गए और ले दे कर वही चार पांच बड़े बैनर बचे जो अपनी फिल्म बना कॉर्पोरेट्स और स्टूडियोज को बेचने लगे। इन कॉर्पोरेट्स ने सिर्फ नाम पर पैसे देकर ऐसी ऐसी फिल्में बनवायीं कुछ फ्लॉप हो गयीं और कुछ जो अपनी पोस्टर बैनर का भी खर्च बमुश्किल निकल पायीं जैसे बॉम्बे वेलवेट , जोकर , जानेमन , बेशरम, राम गोपाल वर्मा की आग, किडनैप और भी बहुत सारी। एकाधिकार और अवसरवाद का यह सबसे सही उदहारण है। इन स्टूडियोज का ज्यादातर पैसा इन स्टार्स ने खींच लिया , पांच छह बड़े बैनर ने हजम कर लिया इस वजह से कई सारे कॉर्पोरेट्स लम्बे घाटे में चले गए और लगभग बंद से हो गए।

इसी समय में सिंगल स्क्रीन सिनेमा की जगह धीरे धीरे मल्टीप्लेक्स ने ले ली और स्टार्स के सेक्रेटरीज की जगह टैलेंट मैनेजमेंट एजेंसीज लेते गए। फिल्म की रिलीज़ के समय तो एजेंसी से पूंछे बिना यह स्टार्स मुस्कुराते भी नहीं हैं बस चार पांच सवाल जवाब रट लेते हैं और वही दोहराते रहते हैं।यह टैलेंट मैनेजमेंट एजेंसी कुछ ख़ास स्टार को प्रमोट करने , उनके लिए कॉर्पोरेट की दुनिया से बड़ी बड़ी डील तलाशने और कुछ नए उभरते हुए टैलेंट पर एकाधिकार रखने का पूरा इंतज़ाम है। पहले भी नए टैलेंट पर लोगों ने एकाधिकार रखने के बहुत सारे प्रयास भी किये गए हैं। धर्मेंद्र को फिल्म साइन करने के पहले अर्जुन हिंगोरानी ने कॉन्ट्रैक्ट साइन कराया की मेरी फिल्मों के अलावा भविष्य में कुछ साल तक जितनी फ़िल्में करोगे उसमे आधा पैसा मुझे मिलेगा। बाद में जब उनके दोस्तों ने उनको बहुत समझाया तो धर्मेंद्र ने कहा कि मैं तो फ़िल्में करना चाहता हूँ , फ़िल्में करता रहूँगा , यह ले जाए पैसा ,मेरी किस्मत में होगा तो और आ जायेगा। ऐसा ही हेलेन के साथ हुआ था बंधुआ मज़दूरी जैसा कॉन्ट्रैक्ट और रिश्ता जिससे उन्हें मुक्ति मिली सलीम खान से शादी के बाद । सुभाष घई ने भी माधुरी दीक्षित , मनीषा कोइराला , महिमा चौधरी और कई एक्टर्स के साथ ऐसा ही कॉन्ट्रैक्ट किया था कि हमारी तीन फिल्म या पांच साल तक बाहर जो भी काम करना है उस आमदनी का एक हिस्सा हमें देना है। इस पर महिमा चौधरी ने परदेस फिल्म के बाद विद्रोह कर दिया और बड़ा हंगामा भी हुआ।

कुछ ऐसे ही एकाधिकार वाले कॉन्ट्रैक्ट आज कल यह कास्टिंग और टैलेंट मैनेजमेंट कंपनियां भी साइन करवाती हैं नए और उभरते कलाकारों से। यही काम सीरियल्स में भी होता है कि लीड एक्टर चैनल के कॉन्ट्रैक्ट में होता है और चैनल के द्वारा ही वह कंही बाहर काम कर सकता है , चैनल हर आमदनी में अपना हिस्सा रखता है। ऐसा ही कुछ एकाधिकार म्यूजिक कंपनियां नए सिंगर और म्यूजिक डायरेक्टर के साथ कर रही हैं।

फ़िल्मी दुनिया अगर देखा जाए तो एक अवसरवादी दुनिया है। यंहा पर हर आदमी इस ताक़ में रहता है कि मैं कैसे ज्यादा से ज्यादा पैसा बटोर लूँ , क्या पता कल हो न हो। कुछ गिनती के लोगों को छोड़ कर बाकी सब एक दूसरे के सर पर पैर रख कर आगे जाना चाहते हैं। यही अवसरवादिता धीरे धीरे वंशवाद , एकाधिकारवाद और जो इन सब में सफल नहीं हो पाते उनके लिए अवसाद में परिवर्तित है। यह एक गलाकाट दुनिया है यंहा वही रह सकता है जो लड़ना जानता हो , जो अंदर से मज़बूत हो ,जो सफलता का आनंद तो ले लेकिन असफलता को भी गले लगाने तैयार रहे।

यँहा हर हफ्ते किसी की किस्मत चमकती है अब वह चमक आप कब तक बरकरार रख पाते हैं हैं वह आपके ऊपर है। यँहा आदमी अपने टैलेंट की वजह से शायद दो चार साल चल सकता है लेकिन अपने व्यहार और संबंधों के दम पर चालीस साल निकाल सकता है भले ही उसका टैलेंट ज्यादा हो या बहुत कम हो। जीतेन्द्र और राजेंद्र कुमार ऐसे ही उदाहरण हैं जिनका नैसर्गिक गुण भले ही कम रहा हो लेकिन अपने व्यवहार और मेहनत से उन्होंने उसे अर्जित किया और लम्बे समय तक सफल रहे। इसके साथ ही बहुत से ऐसे कलाकार मिलेंगे जो धूमकेतु की तरह आये लेकिन नाम और सफलता को संभाल नहीं सके और समय की रेत में मिट गए। एक और ख़ास बात जिसने समय को महत्व दिया उसकी इज्जत की , समय ने भी उसके साथ दिया , अमिताभ बच्चन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। जिसने समय की परवाह नहीं की तो समय भी उसे भूल गया राजेश खन्ना और गोविंदा इसके उदाहरण हैं।

अभी कुछ दिनों पहले युवा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने कथित तौर पर अवसाद की वजह से आत्महत्या कर ली। वैसे तो इसके पीछे बहुत से कारण बताये जाते हैं जिसमे उनका बड़े बैनर द्वारा बायकॉट, उनकी फिल्मे छीन लेना या फिर प्रेम प्रसंग। अब सच्चाई तो जांच के बाद ही पता चलेगी लेकिन इतना अवश्य है कि व्यवसायिक प्रतिद्वंदिता से इंकार नहीं किया जा सकता। अवसाद और निराशा की वजह से बहुत से लोगों ने आत्महत्या की है सिल्क स्मिता (जिनकी जीवनी पर द डर्टी पिक्चर बनी थी ) , मनमोहन देसाई , कुलराज रंधावा , कुशल पंजाबी ,प्रत्युषा बनर्जी , नफीसा जोसफ , जिआ खान , विवेका बाबाजी ,कुणाल सिंह आदि बहुत से नाम हैं। इनमें सफल भी हैं और असफल भी लेकिन अवसाद इन सबका दुश्मन निकला। कुछ ऐसे भी स्टार जिनकी मृत्यु भी आत्महत्या वाली मानी गयी जैसे दिव्या भारती भारती , परवीन बॉबी , जिनमे एक माफिया से जुड़ा बताया जाता है दूसरा अवसाद जैसा।

इस दुनिया में सारे खानदानी या भाई भतीजा वाद से आये सितारे सफल ही हो गए ऐसी भी बात नहीं हैं। बहुत से ऐसे भी कलाकार हैं जो बहुत प्रयास करने के बाद भी अपनी बड़ी पहचान या बड़ा नाम नहीं बना पाए जैसे पुरु राजकुमार (राजकुमार का पुत्र) , ईशा देओल (हेमा मालिनी – धर्मेंद्र की पुत्री ), उदय चोपड़ा (यश चोपड़ा के पुत्र), हरमन बवेजा (हैरी बवेजा का पुत्र ), फरदीन खान (फ़िरोज़ खान का पुत्र ), ज़ायेद खान (संजय खान का पुत्र ), शमिता शेट्टी (शिल्पा शेट्टी की बहन ), तनीषा मुख़र्जी ( काजोल की बहन ), प्रतीक बब्बर (राज बब्बर- स्मिता पाटिल का पुत्र ), रिंकी खन्ना (राजेश खन्ना – डिंपल की पुत्री ) .

इस मायानगरी में सफलता का कोई फिक्स फार्मूला नहीं है लेकिन समय की पाबंदी ,सही व्यवहार और अपने गुणों को और अर्जित करते जाना सफलता के मंत्र ज़रूर हैं। इतना ही ज़रूरी है सफलता को सर पर न लेना और असफलता को दिल पर ना लेना। आप सेंचुरी तभी बना सकते हैं जब तक आप क्रीज़ पर टिके हैं इसलिए जीवन की पिच पर टिके रहिये अगर कभी असफलता का बाउंसर आये तो झुक कर झेल लीजिये क्या पता अगली गेंद आपकी मनपसंद हो और आप उसे बॉउंड्री के बाहर भेज दें। अपने नैसर्गिक गुणों के साथ साथ अर्जित गुण भी सहेजें और अपनी पात्रता बढ़ाएं ताकि जब आपको भगवान छप्पर फाड़ के दे तो आप उसे संभालने के क़ाबिल हों।

Prabhakar Shukla
Writer & Director
Ex Member Censor Board

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