Saturday, April 20, 2024
spot_img
Homeमीडिया की दुनिया सेग्रामीण और गरीब ही है भारत की ज्यादातर आबादी

ग्रामीण और गरीब ही है भारत की ज्यादातर आबादी

ऐसा नहीं है कि हमें इसके बारे में बहुत जानकारी नहीं थी लेकिन सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना 2011 के तहत जुटाए गए आंकड़ों से हमें निम्नलिखित बातें स्पष्टï हो गई हैं :

अब भी भारत का बड़ा तबका गांवों में है। भारत की कुल आबादी का करीब 73.5 फीसदी हिस्सा अब भी गांवों में बसता है। इसके विपरीत चीन की कुल आबादी का महज 47 फीसदी (2013 में) ही ग्रामीण हैं। 

ग्रामीण परिवारों में से आधे से भी कम परिवार कृषि से जुड़े हैं। भारत के कुल ग्रामीण परिवारों में से सिर्फ 30 फीसदी परिवार ही कृषि से जुड़े हैं। इसलिए ग्रामीण भारत में अभी तक सबसे बड़ा नियोक्ता रहे कृषि क्षेत्र की स्थिति व वास्तविकता बहुत बदल गई है। इस तथ्य के सामने आने के बाद आगे की चुनौती स्पष्टï हो गई है। यह चुनौती है इस आबादी के लिए कृषि क्षेत्र के अतिरिक्त पर्याप्त संख्या में रोजगार सृजन करना, सिर्फ उनके लिए नहीं जो रोजगार की दुनिया में कदम रखने वाले हैं बल्कि उनके लिए भी जो भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र से बाहर निकलना चाहते हैं। ठेके पर मजदूरी ही ग्रामीण भारत में आजीविका का मुख्य स्रोत है। ग्रामीण परिवारों में से करीब 51 फीसदी छोटे-मोटे काम कर जीविकोपार्जन करते हैं। यह काम कृषि के लिए बेहद मुफीद मौसम जैसे बुआई और कटाई के दौरान सिंचाई करना भी हो सकता है लेकिन वे कुछ और काम भी कर सकते हैं। या फिर ग्रामीण इलाकों में रोजगार की कमी के कारण ही आबादी शहरों की ओर रुख करती है। 

करीब एक-तिहाई ग्रामीण भारतीयों की आमदनी 5,000 रुपये प्रति माह से भी कम है। ग्रामीण परिवारों में से करीब 74.5 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिनमें सबसे ज्यादा कमाई करने वाले व्यक्ति की अधिकतम मासिक आय 5,000 रुपये से कम है। किसी परिवार में जीविकोपार्जन करने वाले एक से अधिक व्यक्ति हो सकते हैं और आमतौर पर परिवार की आमदनी बढ़ाने के लिए बच्चों को भी छोटे-मोटे काम में लगा दिया जाता है। लेकिन 'तीन-चौथाई' के इस मानक से हमें काफी हद तक इस बात का अंदाजा मिल जाता है कि ग्रामीण भारत में लोग कितने गरीब हैं। 

एक-तिहाई से अधिक परिवारों के पास कृषि के लिए जमीन नहीं। हम ग्रामीण भारत में गरीबी का अंदाजा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि करीब 38.3 फीसदी परिवार भूमिहीन हैं और उनकी आजीविका का बड़ा हिस्सा ठेके पर मजदूरी करने से मिलता है। इनसे ऊपर लेकिन बहुत बेहतर स्थिति में नहीं, ऐसे 30 फीसदी परिवार हैं, जिनके पास जो जमीन है, उसकी सिंचाई की सुविधा नहीं है। इन परिवारों के सदस्य भी सूखे की स्थिति में शहरों में जाकर काम करने के लिए तैयार रहते हैं।

शीर्ष पर बहुत ही कम लोग हैं। अगर हम उन परिवारों की गणना करें, जिनमें सदस्यों के पास सरकारी, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में नौकरी है, साथ ही उन्हें भी शामिल कर लिया जाए, जो गैर-कृषि कारोबार चलाते हैं और सरकार के पास पंजीकृत हैं, तो यह कुल आंकड़ा महज 12.6 फीसदी होता है। ग्रामीण भारत में करीब 8.3 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जहां सबसे ज्यादा कमाने वाले सदस्य को प्रति माह 10,000 रुपये मिलते हैं। तो क्या सिर्फ 10 फीसदी ग्रामीण भारतीय ही गरीब नहीं हैं? अगर हम यह मान लें कि एक ग्रामीण परिवार में पांच सदस्य हैं (ज्यादातर परिवारों में सदस्यों की संख्या इससे अधिक ही होगी) और उसकी पारिवारिक आय सबसे अधिक कमाने वाले व्यक्ति से अधिक है तो उसका प्रति व्यक्ति व्यय- मसलन मकान का किराया इत्यादि के बाद बचत 2,000 रुपये प्रति माह से कम होगी और इसमें से उन्हें भोजन व कपड़े पर खर्च करना है बल्कि शिक्षा व दवाओं पर भी। सिर्फ उन्हीं परिवारों को गरीब नहीं माना जा सकता, जिनकी आय 10,000 रुपये प्रति माह से अधिक होती है। दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों में 17 फीसदी परिवारों के पास दोपहिया वाहन है और 11 फीसदी के पास रेफ्रिजरेटर भी। इसलिए गैर-गरीब ग्रामीण परिवारों का अनुपात 10 फीसदी से ज्यादा भी हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि 68 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिनमें से ज्यादातर गरीब तो हैं लेकिन उनके पास मोबाइल फोन है। अगर इसका उचित ढंग से फायदा उठाया गया तो यह व्यक्ति की आर्थिक दक्षता को भी सुधार सकता है और सरकार की विकास की कोशिशों का दायरा भी बढ़ सकता है। 

सरकार ने कहा है कि वह अपने विभिन्न कार्यक्रमों में इन आंकड़ों का इस्तेमाल करेगी और विशेष तौर पर गरीबी कम करने के लिए इनका उपयोग करेगी। नवीनतम अनुभव यह है कि वर्ष 2007 के बाद वास्तविक ग्रामीण वेतन में जबरदस्त इजाफा हुआ है और इसकी वजह श्रम बाजार में मजदूरों की किल्लत, देश भर में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और निर्माण गतिविधियों में आई तेजी है। लेकिन हाल में इस चलन में बदलाव दर्ज किया गया है। तुरंत और लंबी अवधि में अगर गरीबी को कम करना है तो यह बहुत जरूरी है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर व्यय का स्तर बढ़ाया जाए और साथ ही इसके खर्च करने के तरीके में भी सुधार किया जाए। 

स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च और किसी गरीब द्वारा निजी शिक्षा पर खर्च करने से गरीबी पर त्वरित प्रभाव पड़ता है। समय के साथ एक बेहतर शिक्षित और स्वस्थ कार्यबल देश को अधिक वृद्घि दर हासिल करने में मदद कर सकता है। देश के आर्थिक विकास में वृद्घि होने पर सामाजिक  क्षेत्र पर व्यय में और इजाफा किया जा सकता है लेकिन अहम चुनौती खर्च होने वाली रकम का सही प्रबंधन है।  दो क्षेत्रों में सरकार की कोशिशों का प्रभाव तुरंत दिख सकता है। बुनियादी ढांचागत क्षेत्र विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क निर्माण से ग्रामीण वेतन पर खासा असर पड़ सकता है। जलागम का बेहतर प्रबंधन और जल संरक्षण के जरिये कृषि उत्पादन को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी और इससे उन 30 फीसदी ग्रामीण परिवारों को बहुत फायदा हो सकता है, जिनके पास ऐसी जमीन है, जिसकी सिंचाई का कोई इंतजाम नहीं है।

साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड से 

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार