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दक्षिणी फिल्मों की चमक में मुंबइया ब्रांड पड़ रहे फीके

दक्षिण के बाहुबलियों का दबदबा: अब दक्षिण भारतीय सिनेमा के उत्तर भारत में विस्तार को रोकना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन

“एक्शन के नाम पर राष्ट्रवाद की घुट्टी और मनोरंजन के नाम पर आइटम नंबर हमेशा नहीं चल सकता, बॉलीवुड यहां चूका तो दक्षिण की फिल्मों की कहानियों, फंतासी और जिंदगी के करीब लगने वाले किरदारों ने दर्शकों को विकल्प दिए”

टेढ़े कंधे, उलझे बाल और मैले कपड़े पहने तेलुगु फिल्म स्टार अल्लु अर्जुन की फिल्म और किरदार पुष्पा की आंधी से इस वक्त बचना नामुमिकन है। जब क्रिकेट के मैदान में गैर-भारतीय क्रिकेटर जश्न मनाने के लिए पुष्पा के स्टाइल का सहारा ले रहे हैं, मीम की दुनिया में पुष्पा का राज है और सोशल मीडिया पर उसके संगीत का बोलबाला, तो मान लिया जाना चाहिए कि ये लोकप्रियता अब नंबरों में नाप लिए जाने वाली बात नहीं है। हालांकि आंकड़े बॉलीवुड के ग्लैमर भरे गलियारों में हलचल मचाने के लिए काफी हैं। भयंकर प्रचार की बैसाखी के बिना मैदान में उतरी ये फिल्म हिंदी पट्टी में ऐसा तहलका मचाएगी, इसका अनुमान नहीं था। यही नहीं, दिसंबर और जनवरी में नेटफ्लिक्स पर भी गंवई सुपरहीरो वाली फिल्म मिन्नल मुरली ने धूम मचाई, जिसके हीरो ने ही नहीं विलेन ने भी लोगों को हैरान कर रखा है। अजूबा तो ये भी है कि अगर पूछा जाए कि साल 2022 की सबसे बड़ी रिलीज कौन सी है, तो फिल्मों की दुनिया पर नजर रखने वाले आपको फौरन बता देंगे कि आरआरआर पर निगाहें टिकी हैं। अहम बात ये है कि आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा भी ट्रिपल आर के आस-पास ही रिलीज की कतार में है लेकिन चर्चा से फिलहाल बाहर। अगर इन्हें आहट माना जाए तो ये बॉलीवुड के लोकप्रिय साम्राज्य में मंदी के दौर का साफ संकेत हैं।

राजामौली ही वह निर्देशक हैं जिन्होंने बाहुबली (2015) के चौड़े कंधों पर सवार होकर बॉलीवुड के किले में सेंध लगाते हुए एक नए दौर का बिगुल बजाया। तकनीक, स्टाइल और भव्यता का ऐसा नजारा दिखाकर हिंदी बेल्ट में वह सफलता पाई जो किसी हालिया हिंदी फिल्म को नसीब नहीं हुई। इसी तरह बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी वाली कन्नड़ फिल्म केजीएफ चैप्टर 1 (2018) को भी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। इसे कोविड से पहले का दौर कहकर नकारना सच्चाई से आंखें फेरने वाली बात होगी।

उत्तर भारत में दक्षिण भारतीय फिल्मों का अभूतपूर्व प्रदर्शन उत्सुकता जगा रहा है क्योंकि ये कोई खुमार नहीं है। हम सिनेमा में नए वक्त के गवाह बन रहे हैं। 1990 के दशक से भारतीय सिनेमा का तमगा लिए इतरा रहे बॉलीवुड के लिए यह वाकई चुनौतीपूर्ण दौर है। बात सिर्फ बिजनेस की नहीं, पहचान और ताकत के ढांचे के पुनर्गठन की भी है। एक तरफ खान तिकड़ी के असर का शायद ये गुजरता लम्हा है, तो दूसरी तरफ ‘छोटे शहर के लड़के का स्टीरियोटाइप’ लिए फिल्में दर्शकों के एक बहुत बड़े तबके से संवाद स्थापित नहीं कर पा रही हैं। एक्शन के नाम पर राष्ट्रवाद की घुट्टी और मनोरंजन के नाम पर आइटम नंबर की खुराक दर्शकों को कब तक पिलाई जा सकती है। जहां बॉलीवुड चूका, वहां तमिल, तेलुगु, मलयालम फिल्मों की कहानियों, फैंटेसी और असल जिंदगी के करीब लगने वाले किरदारों ने दर्शकों को विकल्प दिए। कोविड के दौरान थियेटर बंद रहने पर ओटीटी मंचों का साथ इस पहुंच को दूर तक ले गया इसमें कोई शक नहीं, लेकिन कारण और भी हैं।

पैन-इंडिया फिल्म
आज चर्चा भले ही तमिल सिनेमा की भव्यता, तकनीकी कौशल और मलयालम फिल्मों की देसी-जमीनी कहानियों की हो रही है लेकिन पैन-इंडिया फिल्म का रास्ता निकला तेलुगु सिनेमा से है। राजामौली के शाहकार बाहुबली को श्रेय देना होगा पैन-इंडिया फिल्म की राह दिखाने और बॉलीवुड के साथ साझेदारी में आगे बढ़ने के रास्ते तलाश करने के लिए। इसी व्यावसायिक रास्ते पर चलते हुए केजीएफ चैप्टर 1 ने भी भाषाई भेद की दीवार को ब्रांड और मार्केटिंग का सहारा लेते हुए ढहाया। आने वाली आरआरआर के अलावा तेलुगु और हिंदी में बनी लाइगर और प्रभास के अभिनय वाली राधेश्याम को भी पैन-इंडिया कह कर ही प्रचारित किया जा रहा है। यानी व्यावसायिक हितों के मद्देनजर हो रही साझेदारियों के साथ दक्षिण का सिनेमा उत्तर के दर्शक के दिलो-दिमाग में उतरने में कोई कमी नहीं रख रहा।

पैन इंडिया फिल्म को एक खास तरह का रणनीतिक फैसला कह सकते हैं जिसमें न सिर्फ कहानी ऐसी हो जो भाषा और भूगोल के अंतर को धुंधला दे, बल्कि उत्तर-दक्षिण भेद को पाटने के दूसरे कलात्मक तरीके और व्यावसायिक साथी भी ढूंढे जाएं। यानी हिंदी, तेलुगु, तमिल या मलयालम के सांस्कृतिक दायरे को पीछे छोड़ते हुए फिल्म को इस तरह से व्यावसायिक शक्ल दी जाए कि वह समूचे भारत के दर्शकों को रिझाए। इसके कई तरीके हो सकते हैं। आरआरआर में अगर दक्षिण के लिए एनटीआर जूनियर और रामचरन हैं तो इसमें हिंदी सिनेमा के हिट सितारों अजय देवगन और आलिया भट्ट को भी जोड़ा गया है। पुष्पा का ही ताजा उदाहरण लें तो इसके हिंदी संस्करण का चर्चित गाना ‘श्रीवल्ली’ जब जावेद अली की आवाज में रिकॉर्ड किया जा रहा था तब श्रीवल्ली नाम के ‘दक्षिण-भारतीयपन’ को हिंदी ऑडिएंस के लिए दिवंगत अभिनेत्री श्रीदेवी के नाम से बदल डालने की बात भी चली। हालांकि ऐसा नहीं हुआ लेकिन ये एक झलक देता है कि हिंदी दर्शकों की नब्ज पकड़ने की कोशिश किस शिद्दत से हो रही है। क्या ग्लोबल रथ पर सवार बॉलीवुड ने देसी दक्षिण-भारतीय दर्शक तक पहुंचने की ऐसी कोशिशें की?

बेशक दक्षिण से आ रही फिल्में एक्शन, तकनीक और आम आदमी से पहचान रखने वाले किरदारों के साथ ऐसी देसी कहानियां ला रही हैं जिसमें सिनेमाई मजा है। कहने में गुरेज नहीं कि बॉलीवुड दिलचस्प मौलिक कहानियों और मनोरंजन दोनों में पिछड़ गया है। इसके साथ ही ये भी मानना होगा कि दक्षिण भारतीय फिल्मों को उत्तर-भारतीय दर्शक तक पहुंचाने का यह सफर कई पड़ावों से गुजरा है। इसमें फिल्मकारों और अदाकारों की भूमिका है तो फिल्मी टीवी चैनलों का अपना रोल है। इन चैनलों ने हिंदी डब फिल्में दिखाकर, दक्षिण भारतीय फिल्मों से वाकफियत रखने वाली एक ऑडिएंस तैयार की है, जो पुष्पा देखने से पहले ही अल्लु अर्जुन को पहचानती है। भाषा की दीवार लांघने में अगर मणिरत्नम की नायकन (1987) और रोजा (1992) का ऐतिहासिक योगदान है तो 2000 के दशक में आमिर खान की गजनी (2008), सलमान खान की वॉन्टेड (2009), रेडी (2011) और बॉडीगार्ड (2011) वगैरह ने दक्षिण भारतीय फिल्मों के रीमेक से सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। यानी हिंदी सिनेमा की सफलतम फिल्में तमिल, तेलुगु और मलयालम कहानियों की बुनियाद पर टिकी थीं। डब और रीमेक के जरिए दक्षिण-भारतीय कहानियों के लिए ही नहीं, सितारों के लिए भी मुंबई में जमीन तैयार हुई।

ओटीटी की ताकत
जहां तक ओरिजनल या मौलिक फिल्में बनाने का सवाल है तो लगातार ये आरोप लगते रहे हैं कि नेटफ्लिक्स जैसे बड़े मंच ने भारत में भाषाई प्रोडक्शन में कलात्मकता का परिचय नहीं दिया, लेकिन बनी हुई फिल्मों को मंच देने में इसकी भूमिका को दरकिनार नहीं किया जा सकता। हाल ही में नेटफ्लिक्स पर टॉप दस गैर-अंग्रेजी फिल्मों की सूची में जगह बनाने वाली देसी सुपरहीरो वाली मलयालम फिल्म मिन्नल मुरली का उदाहरण इस बात का सबूत है कि थियेटर भले ही सिनेमा की असल जगह हो, लेकिन स्ट्रीमिंग भी करिश्मा कर सकती है। कुछ दिनों पहले एक फिल्म क्लब में चर्चा के लिए शामिल हुए फिल्म के निर्देशक बेजिल जोसफ ने थियेटर रिलीज की जगह सीधे नेटफ्लिक्स रिलीज पर साफ कहा कि अगर वे इस मंच पर नहीं उतरते तो उनकी छोटी सी फिल्म सफलता का ये नजारा नहीं देखती। छोटे बजट और न के बराबर प्रचार के बावजूद 24 दिसंबर को प्रीमियर हुई मिन्नल मुरली दर्शकों के दिल में यूं उतरी कि जिसने देखी, मुस्करा कर तारीफ की।

यह अकेले मिन्नल मुरली का मामला नहीं है। बैंगलोर डेज (2014), आए एम प्रकासम (2018), कुंबलंगी नाइट्स (2019), जोजी (2021) और मलिक (2021) जैसी फिल्मों के जरिए पहचान कायम करने वाले फहद फासिल को अगर मलयालम सिनेमा की नई धारा का चेहरा माना जा रहा है तो उन्हें ये रुतबा दिलाने में ओटीटी की पहुंच का भी अहम हाथ है। फहद फासिल की फिल्में थियेटर में सफल होती रही हैं लेकिन सीमित बजट वाली फिल्मों के जानदार अभिनेता और निर्माता के तौर पर उनकी जगह ओटीटी से बनी है।

सैटेलाइट टीवी और ओटीटी अनजाने चेहरों को बाजार दिलाने में अहम हैं। खासकर बड़े बजट, नामचीन सितारों और लुभावने स्पेशल इफेक्ट का वायदा करने वाली पैन-इंडिया फिल्मों के दौर में छोटे बजट वाली फिल्मों के लिए टीवी और ओटीटी, दर्शकों तक पहुंचने की उम्मीद कायम रखते हैं। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म नई फिल्मों की रिलीज का नया मंच बन चुके हैं बल्कि पुरानी फिल्मों के लिए नए दर्शक तलाशने का मौका भी इन्हें अहम बनाता है। कोविड महामारी ने दर्शकों को ओटीटी से जोड़ा, अगर इसे नकारा नहीं जा सकता तो ये भी स्वीकार करना होगा कि इस माध्यम ने दर्शक को भी बदला है। लोगों के पास अपने फोन पर ही फिल्म देखने के इतने

विकल्प हैं कि एक खास सिनेमाई अनुभव की चाह ही अब उन्हें घर से बाहर निकलने पर मजबूर करेगी। सिनेमा की वह खुराक देने में बॉलीवुड का हाथ अभी कमजोर है। दक्षिण भारतीय फिल्मों का ये दिलचस्प दौर कोई विस्फोट नहीं बल्कि बरसों से चल रहे सिलसिले का विजय-पर्व है। फिलहाल माहौल देखकर यह भी नहीं लगता कि ये मियादी बुखार है, जो जल्द उतर जाएगा।

 

 

 

 

 

(लेखिका वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय, लंदन के मीडिया और संचार विभाग में हिन्दी सिनेमा पर शोध कर रही हैं। बीबीसी हिन्दी सेवा में पत्रकार रह चुकी हैं और सिनेमा और सम-सामयिक मुद्दों पर लिखती हैं)

साभार https://www.outlookhindi.com/ से