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मुंशी प्रेमचंद : भारत की ग्रामीण संस्कृति का कुशल चितेरा

मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि 8 अक्टूबर पर विशेष

मुंशी प्रेमचंद क्रांतिकारी रचनाकर थे। वह समाज सुधारक और विचारक भी थे। उनके लेखन का मक़सद सिर्फ़ मनोरंजन कराना ही नहीं, बल्कि सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान आकर्षित कराना भी था। वह सामाजिक क्रांति में विश्वास करते थे। वह कहते थे कि समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी मुश्किलों का सामना लोग करेंगे, उतना ही वहां गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खु़शहाल होंगे, तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। मुंशी प्रेमचंद ने शोषित वर्ग के लोगों को उठाने की हर मुमकिन कोशिश की। उन्होंने आवाज़ लगाई- ऐ लोगों, जब तुम्हें संसार में रहना है, तो ज़िन्दा लोगों की तरह रहो, मुर्दों की तरह रहने से क्या फ़ायदा।

मुंशी प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के गांव लमही में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल और माता का नाम आनंदी देवी था। उनका बचपन गांव में बीता। उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी की शिक्षा हासिल की। साल 1818 में उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। वह एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापन का कार्य करने लगे और कई पदोन्नतियों के बाद वह डिप्टी इंस्पेक्टर बन गए। उच्च शिक्षा उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उन्होंने अंग्रेज़ी सहित फ़ारसी और इतिहास विषयों में स्नातक किया था। बाद में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में योगदान देते हुए उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की नौकरी छोड़ दी।

प्रेमचंद ने पारिवारिक जीवन में कई दुख झेले। उनकी मां के निधन के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह किया। लेकिन उन्हें अपनी विमाता से मां की ममता नहीं मिली। इसलिए उन्होंने हमेशा मां की कमी महसूस की। उनके वैवाहिक जीवन में भी अनेक कड़वाहटें आईं। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ था। यह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था। उनके लिए यह विवाह दुखदाई रहा और आख़िर टूट गया। इसके बाद उन्होंने फ़ैसला किया कि वह दूसरा विवाह किसी विधवा से ही करेंगे। साल 1905 में उन्होंने बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह कर लिया। शिवरानी के पिता ज़मींदार थे और बेटी का पुनर्विवाह करना चाहते थे। उस वक़्त एक पिता के लिए यह बात सोचना एक क्रांतिकारी क़दम था। यह विवाह उनके लिए सुखदायी रहा और उनकी माली हालत भी सुधर गई। वह लेखन पर ध्यान देने लगे। उनका कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ, जिसे ख़ासा सराहा गया।

उन्होंने जब कहानी लिखनी शुरू की, तो अपना नाम नवाब राय धनपत रख लिया। जब सरकार ने उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन ज़ब्त किया। तब उन्होंने अपना नाम नवाब राय से बदलकर प्रेमचंद कर लिया और उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से ही प्रकाशित हुआ। कथा लेखन के साथ उन्होंने उपन्यास पढ़ने शुरू कर दिए। उस समय उनके पिता गोरखपुर में डाक मुंशी के तौर पर काम कर रहे थे। गोरखपुर में ही प्रेमचंद ने अपनी सबसे पहली साहित्यिक कृति रची, जो उनके एक अविवाहित मामा से संबंधित थी। मामा को एक छोटी जाति की महिला से प्यार हो गया था। उनके मामा उन्हें बहुत डांटते थे। अपनी प्रेम कथा को नाटक के रूप में देखकर वह आगबबूला हो गए और उन्होंने पांडुलिपि को जला दिया। इसके बाद हिन्दी में शेख़ सादी पर एक किताब लिखी। टॊल्सटॊय की कई कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया। उन्होंने प्रेम पचीसी की भी कई कहानियों को हिन्दी में रूपांतरित किया, जो सप्त-सरोज शीर्षक से 1917 में प्रकाशित हुईं। इनमें बड़े घर की बेटी, सौत, सज्जनता का दंड, पंच परमेश्वर, नमक का दरोग़ा, उपदेश, परीक्षा शामिल हैं। प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इनकी गणना होती है। उनके उपन्यासों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, वरदान, निर्मला, ग़बन, कर्मभूमि, कृष्णा, प्रतिज्ञा, प्रतापचंद्र, श्यामा और गोदान शामिल है। गोदान उनकी कालजयी रचना मानी जाती है। बीमारी के दौरान ही उन्होंने एक उपन्यास मंगलसूत्र लिखना शुरू किया, लेकिन उनकी मौत की वजह से वह अधूरा ही रह गया। उनकी कई रचनाएं उनकी स्मृतियों पर भी आधारित हैं। उनकी कहानी कज़ाकी उनके बचपन की स्मृतियों से जुड़ी है। कज़ाकी नामक व्यक्ति डाक विभाग का हरकारा था और लंबी यात्राओं पर दूर-दूर जाता था। वापसी में वह प्रेमचंद के लिए कुछ न कुछ लाता था। कहानी ढपोरशंख में वह एक कपटी साहित्यकार द्वारा ठगे जाने का मार्मिक वर्णन करते हैं।

उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में ज़िंदगी की हक़ीक़त को पेश किया। गांवों को अपने लेखन का प्रमुख केंद्रबिंदु रखते हुए उन्हें चित्रित किया। उनके उपन्यासों में देहात के निम्न-मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन मिलता है। उन्होंने सांप्रदायिक सदभाव पर भी ख़ास ज़ोर दिया। प्रेमचंद को उर्दू लघुकथाओं का जनक कहा जाता है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख और संस्मरण आदि विधाओं में साहित्य की रचना की, लेकिन प्रसिद्ध हुए कहानीकार के रूप में। उन्हें अपनी ज़िंदगी में ही उपन्यास सम्राट की पदवी मिल गई। उन्होंने 15 उपन्यास, तीन सौ से ज़्यादा कहानियां, तीन नाटक और सात बाल पुस्तकें लिखीं। इसके अलावा लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र लिखे और अनुवाद किए। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। उनकी कहानियों में अंधेर, अनाथ लड़की, अपनी करनी, अमृत, अलग्योझा, आख़िरी तोहफ़ा, आख़िरी मंज़िल, आत्म-संगीत, आत्माराम, आधार, आल्हा, इज़्ज़त का ख़ून, इस्तीफ़ा, ईदगाह, ईश्वरीय न्याय, उद्धार, एक आंच की कसर, एक्ट्रेस, कप्तान साहब, कफ़न, कर्मों का फल, कवच, क़ातिल, काशी में आगमन, कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो, कौशल, क्रिकेट मैच, ख़ुदी, ख़ुदाई फ़ौजदार, ग़ैरत की कटार, गुल्ली डंडा, घमंड का पुतला, घरजमाई, जुर्माना, जुलूस, जेल, ज्योति,झांकी, ठाकुर का कुआं, डिप्टी श्यामचरण, तांगेवाले की बड़, तिरसूल तेंतर, त्रिया चरित्र, दिल की रानी, दुनिया का सबसे अनमोल रतन, दुर्गा का मंदिर, दूसरी शादी, दो बैलों की कथा, नबी का नीति-निर्वाह, नरक का मार्ग, नशा, नसीहतों का दफ़्तर, नाग पूजा, नादान दोस्त, निर्वासन, नेउर, नेकी, नैराश्य लीला, पंच परमेश्वर, पत्नी से पति, परीक्षा, पर्वत-यात्रा, पुत्र- प्रेम, पूस की रात, प्रतिशोध, प्रायश्चित, प्रेम-सूत्र, प्रेम का स्वप्न, बड़े घर की बेटी, बड़े बाबू, बड़े भाई साहब, बंद दरवाज़ा, बांका ज़मींदार, बूढ़ी काकी, बेटों वाली विधवा, बैंक का दिवाला, बोहनी, मंत्र, मंदिर और मस्जिद, मतवाली योगिनी, मनावन, मनोवृति, ममता, मां, माता का हृदय, माधवी, मिलाप, मिस पद्मा, मुबारक बीमारी, मैकू, मोटेराम जी शास्त्री, राजहठ, राजा हरदैल, रामलीला, राष्ट्र का सेवक, स्वर्ग की देवी, लेखक, लैला, वफ़ा का ख़ंजर, वरदान, वासना की कड़ियां, विक्रमादित्य का तेगा, विजय, विदाई, विदुषी वृजरानी, विश्वास, वैराग्य, शंखनाद, शतरंज के खिलाड़ी, शराब की दुकान, शांति, शादी की वजह, शूद्र, शेख़ मख़गूर, शोक का पुरस्कार, सभ्यता का रहस्य, समर यात्रा, समस्या, सांसारिक प्रेम और देशप्रेम, सिर्फ़ एक आवाज़, सैलानी, बंदर, सोहाग का शव, सौत, स्त्री और पुरुष, स्वर्ग की देवी, स्वांग, स्वामिनी, हिंसा परमो धर्म और होली की छुट्टी आदि शामिल हैं। साल 1936 में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधित किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन का घोषणा-पत्र का आधार बना। प्रेमचंद अपनी महान रचनाओं की रूपरेखा पहले अंग्रेज़ी में लिखते थे। इसके बाद उन्हें उर्दू या हिन्दी में अनुदित कर विस्तारित करते थे।

प्रेमचंद सिनेमा के सबसे ज़्यादा लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। उनकी मौत के दो साल बाद के सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई। प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे सत्यजीत राय की फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी। प्रेमचंद ने मज़दूर फ़िल्म के लिए संवाद लिखे थे। फ़िल्म में एक देशप्रेमी मिल मालिक की कहानी थी, लेकिन सेंसर बोर्ड को यह पसंद नहीं आई। हालांकि दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब में यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई। फ़िल्म का मज़दूरों पर ऐसा असर पड़ा कि पुलिस बुलानी पड़ गई। आख़िर में फ़िल्म के प्रदर्शन पर सरकार ने रोक लगा दी। इस फ़िल्म में प्रेमचंद को भी दिखाया गया था। वह मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में पंच की भूमिका में थे। साल 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसे सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय प्रुरस्कार मिला। साल 1963 में गोदान और साल 1966 में ग़बन उपन्यास पर फ़िल्में बनीं, जिन्हें ख़ूब पसंद किया गया। साल1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से मुंशी प्रेमचंद की मौत हो गई। उनकी स्मृति में भारतीय डाक विभाग ने 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के मौक़े पर 30 पैसे मूल्य का डाक टिकट जारी किया। इसके अलावा गोरखपुर के जिस स्कूल में वह शिक्षक थे, वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई। यहां उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी। उनके बेटे अमृत राय ने भी क़लम का सिपाही नाम से उनकी जीवनी लिखी।

(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में समूह संपादक हैं)