Friday, March 29, 2024
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मेरे नाम के साथ स्वर्गीय नहीं लगे, इसलिए लिखता हूँ: श्री महावीर प्रसाद नेवटिया

मुंबई में सफल जीवन के कई आयाम हैं, यहाँ सफलता का मतलब है उद्योग, व्यापार और कारोबार में सफलता लेकिन कोई व्यक्ति व्यापार में सफल होने के साथ ही साहित्य अनुरागी हो और अनुरागी भी ऐसा कि साहित्य से होने वाली कमाई देश के सुदुर आदिवासी क्षेत्रों में रह रहे लोगों के लिए दान कर दे तो हैरानी होती है। श्री महावीर प्रसाद नेवटिया मुंबई की ऐसी शख्सियत हैं जिनके संकल्प, विनम्रता और साहित्य प्रेम को देखें तो उनके प्रति श्रध्दा उमड़ती है। साहित्य उनका संस्कार है तो अर्थदान देना उनका सामान्य व्यवहार है। वो जिसे दान देते हैं उसे माँगना नहीं पड़ता, खुद ही आगे होकर दे देते हैं। ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ और‘देखन में छोटे लागे’ उनकी चर्चित कृतियाँ हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने जिंदगी के उन सब रंगों को पिरोया है और उन तमाम समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है जिनसे एक आम आदमी जीवनभर जूझता है। टाईम्स ऑफ इंडिया में बरसों काम करने के बाद अपनी खुद की विज्ञापन एजेंसी शुरू कर मुंबई में एक सफल व्यवसायी के रूप में महावीरजी नेवटिया ने अपनी खास पहचान तो बनाई ही, साथ ही साहित्य सेवा में भी उसी शिद्दत से लगे रहे।

महावीर प्रसाद जी का 80 वाँ जन्म दिन मुंबई में ही उनके इष्ट मित्रों और परिवारजनों की उपस्थिति में मनाया गया तो उनके जीवन के एक से एक रोचक, प्रेरक और आत्मीय पहलू सामने आए। वे अपने माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्र रहे तो विवाह के बाद एक आदर्श पति का दायित्व निभाया, अपने बच्चों के लिए आदर्श पिता रहे तो घर की बहुओं के लिए पिता समान हो गए। पारिवारिक और व्यावसायिक जिम्मेदारियों के साथ साहित्य सृजन में भी उसी निष्ठा से लगे रहे। परिवार के हर सदस्य को भरपूर समय और प्यार दिया तो साहित्य की सेवा में भी लगे रहे। यही महावीर जी की खासियत रही।

उनके बेटे मयंक और मुकुल ने कहा कि बचपन में पिताजी हमसे सब काम करवाते थे, दूध लाने से लेकर बाजार से सामान लाने तक। हमको पास बिठाकर अखबार भी पढ़वाते थे। उनकी इस आदत की वजह से हमको पढ़ाई के अलावा दुनियादारी की उन बातों को समझने में आसानी रही जो हम स्कूल व कॉलेज की किताबें पढ़कर कभी नहीं सीख सकते थे। इन्होंने पूरे परिवार को एकजुट बनाकर रखा। हमारी माताजी जब बीमार हुई तो पूरा समय उनकी सेवा में लगे रहे। डॉक्टरों के मना करने के बावजूद उनकी पसंद की हर चीज उन्हें लाकर देते थे, शायद इन्हें पता था कि उनका जीवन अब ज्यादा दिन का नहीं है।

उनके बेटे मुकुल की पत्नी आशा ने कहा कि मैं बचपन में अपने पिता को खो चुकी थी। जब यहाँ बहू बनकर आई तो बाबूजी के रूप में मुझे अपने पिता मिल गए।

कार्यक्रम में उनके पुत्र मयंक की पत्नी श्रीमती रेखा नेवटिया ने कहा कि घर में बहू बनकर आई तो सबकुछ नया नया और अनजाना सा था मगर बाबूजी ने इतनी आत्मीयता से मुझे इस परिवार का सदस्य बना लिया कि कभी महसूस ही नहीं हुआ कि मैं यहाँ बहू बनकर आई हूँ।

मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष श्री करुणाशंकर उपाध्याय ने कहा कि लेखक संत स्वरूप होता है जो दूसरे के दुःख से पिघलता है। महावीर जी ने जीवन के हर पक्ष पर लिखा और इतनी सहज व सरल भाषा में लिखा है कि पाठक उनके लेखन से सहज तादात्म्य स्थापित कर लेता है।

गुरूजी श्री विजेन्द्र गुप्ता ने कहा कि जीवन की गंभीर से गंभीर बात को भी वे चुटीले और नए अंदाज में लिखकर उसे सरस-सरल ढंग से पेश कर देते है। उन्होंने अपने लेखन में आत्मवेदना को समाधान के रूप में अभिव्यक्त किया है।

नवभारत टाईम्स के संपादक श्री सुंदर चंद ठाकुर ने कहा कि व्यवसाय करते हुए लेखक या साहित्यकार बनकर जीना इतना आसान नहीं है।

गोरेगाँव स्पोर्ट्स क्लब के अध्यक्ष श्री सुनील सिंघानिया ने कहा कि जब ये सुंदर नगर मालाड में रहते थे तो मैं नया नया सीए बना था और रोज एक घंटा बाबूजी के साथ बिताता था। मैं इनकी हर बात से हर बार कोई न नई बात सीखता था, और आज महसूस कर रहा हूँ कि इनकी कही गई छोटी छोटी बातें जीवन में मेरे कितनी काम आई। इनकी कविताएँ, मजेदार संस्मरण आज भी याद हैं।

 

 

 

गोरेगाँव स्पोर्ट्स क्लब के पूर्व सचिव श्री सुनील देवली ने कहा कि मेरी दोस्ती तो इनके बेटे मुकुल से है लेकिन महावीरजी ने भी मेरे साथ हमेशा दोस्ती का रिश्ता रखा। अब मुकुल से हमारी इतनी मुलाकात नहीं हो पाती इसलिए एक शेर याद आ रहा है-

पुराने दोस्त हैं कि अब मिलते ही नहीं

सोचता हूँ सब पर एक मुकदमा कर दूँ,

कम से कम तारीखों पर तो मुलाकात होगी।

परिवार, समाज और साहित्य जगत से एक साथ जुड़े रहना और सबसे सम्मान पाना नेवटिया जी की विशेषता है।

गुजरात से आए वात्सल्य धाम के संचालक श्री अजीत सोलंकी ने बताया कि हमने वापी से 125 किलोमीटर दूर श्रीमती बनारसी बाई श्यामलाल नेवटिया कन्या छात्रावास 2012 में 27 आदिवासी बच्चियों के लिए शुरु किया था ताकि वे वहाँ रहकर निःशुल्क पढ़ाई कर सकें, तब से लेकर आज तक आदरणीय नेवटिया जी भामाशाह बनकर इसके लिए मदद करते आ रहे हैं। आज यहाँ 70 बच्चियाँ रह रही हैं।

श्रीहरि सत्संग समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सत्यनारायण काबरा ने महावीरजी की उदारता का उल्लेख करते हुए कहा कि औरंगाबाद में हम डॉ. हेडगेवार अस्पताल देखने के लिए महावीरजी को साथ लेकर गए थे। वहाँ एक आईसीयू मशीन की ज़रुरत थी जिसकी लागत लगभग 75 लाख रुपये थी। अपने 75 वें जन्म दिन पर महावीरजी ने इस मशीन के लिए 75 लाख रुपये सहर्ष प्रदान कर दिए। श्री काबराजी ने कहा कि उनके इस सद्कार्य से हमें भी प्रेरणा मिली।

श्री भागवत परिवार के समन्वयक श्री वीरेन्द्र याज्ञिक ने कहा कि महावीर जी ने अपने व्यवसाय के माध्यम से एक नई ऊँचाई को छुआ मगर वे शब्द साधक बने रहे। कारोबार की जटिलताएँ और विवशताएँ उनकी साहित्या साधना में कहीं आड़े नहीं आ पाई।

जेजेटी टिबड़ेवाला विश्वविद्यालय झुँझुनू के कुलाधिपति श्री विनोद टिबड़ेवाल ने कहा कि नेवटिया जी जैसा लिखते हैं वैसा ही जीवन जीते हैं। उनके जीवन में किसी तरह का कोई आडंबर या कृत्रिमता नहीं है।

अपने जन्म दिन पर विभिन्न वक्ताओं द्वारा प्रस्तुत अहोभाव के प्रत्युत्तर में महावीर जी ने कहा-ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसे समझदार बेटे और बहू मिले जिन्होंने मेरी साहित्य साधना को सदैव प्रोत्साहित किया।

उन्होंने कहा कि ये उनके सुपुत्र ही थे जिन्होंने क दिन कहा कि पापा, आप 17 से 70 की उम्र तक दौड़ लिए अब आप आराम करें। अब आप अपनी रुचि के अनुसार वो सब काम करें जो अभी तक पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण नहीं कर पा रहे थे। मेरे बेटों ने कहा कि आप भारतीय दर्शन, ज्ञान और संस्कारों की जो बातें बताते रहते हैं, उन्हें अगर आप लिपिबध्द कर दें तो वह हम सबके लिए एक धरोहर के रूप में सुरक्षित रहेगी और आने वाली पीढ़ी के लिए बी उपयोगी होगी। यह सुनकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता मिली और उसीकी ये परिणीती थी – ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ और ‘देखन में छोटी लगे…..‘

एक और विशेष बात हम दोनों पति-पत्नी कुछ वर्षों से गंभीर बीमारी से ग्रस्त है, पर बच्चे मातृ-पितृ भक्त पुण्डरीक की तरह सेवा में लगे हैं। एक दिन मेरे मुँह से निकल गया कि बेटा, माफ करना तुम्हें नाहक ही इतनी परेशानी हो रही है और खर्च भी बहुत हो रहा है, इस पर मेरा बेटा मुकुल तुरंत बोला, माँ-बाप के लिए कुछ करना तो सौबाग्य की बात है। ये सुनकर मुझे गोस्वामी तुलसीदास जी की ये चौपाई स्मरण हो आई। जब वशिष्ठ मुनि दशरथजी से कहते हैं कि ‘तुम्ह ते अधिक पुण्य बड़ काके, राजन राम सरिस सुन जाके’

नेवटियाजी ने कहा, मैने अपनी पुस्तकें बिकने के लिए नहीं लिखी। मैने अपनी पुस्तकों की कोई कीमत ही नहीं रखी, बल्कि पुस्तकों में लिखवा दिया कि जो कोई भी इनकी कीमत देना चाहे वो श्रीहरि सत्संग समिति को चैक भेज दे। इस अपील का असर ये हुआ कि अभी तक मेरे उदार पाठकों ने श्रीहरि सत्संग समिति को 2 लाख 32 हजार की राशि मेरे पाठकों ने भेज दी।

उन्होंने बताया कि चित्रकूट में पं. विजय कौशलजी की कथा थी। वहाँ मैने मेरी दो पुस्तकें झुँझनू से आए श्री सुभाष जी क्यामसारिया और श्री रामचन्द्र मोदी वहाँ दिल्ली से एक सज्जन आए थे श्री रामचन्द्र मोदी जी को भेंट की। श्री गोपाल गौशाला के सचिव श्री सुभाषजी पर इन पुस्तकों का ऐसा जादुई असर हुआ कि उन्होंने यत्र-तत्र-सर्वत्र की 500 प्रतियाँ छपवाकर स्कूलों, लायब्रेरी और झुंझनू के घर-घर में पहुँचाई। इसी प्रकार ऋतुंभराजी की भागवत कथा सप्ताह पर मैं जब झुंझनू गया था तो श्री रामचन्द्र मोदी अपनी दुकान पर ले गए और मुझे बताया कि मेरी किताब से ‘कहीं तो रुको कभी तो रुको’ पढ़कर उसी दिन उन्होंने अपनी दुकान बेटों को सौंप दी और स्वयं को मुक्त कर लिया और अब समाजसेवा के लिये समय दे रहे हैं। इतना ही नहीं, इस पुस्तक से बनी आत्मीयता के कारण वे सज्जन मुझे झुंझनू से अपनी कार द्वारा स्वयं जयपुर एअरपोर्च पर छोड़ने भी आए और साथ ही मुझे डोंगरे महाराज की श्रीमद् भागवत पुराण का एक वृहद ग्रंथ भेंट किया।

इसी तरह दिल्ली से एक बहन ने फोन किया कि उसने मेरी किताब के 600 रुपये श्रीहरि सत्संग समिति को भेजे हैं। मैने कहा 600 रुपये किस हिसाब से तो उसने बताया कि ये किताब मैने तीन बार पढ़ी इसलिए एक किताब के 200 रुपये के हिसाब से मैने तीन गुना पैसे भेज दिये। मालाड की एक बहन ने कहा कि जैसे ही मैने आपकी किताब खोली तो ऐसा लगा जैसे फ्रिज खोल दिया है और इसमें जीवन से जुड़ी हर बात ऐसे कही गई है जैसे विविध व्यंजनों और पेय का स्वाद होता है।

सिंधी भाषा की वरिष्ठ लेखिका देवी नागरानी (न्यू जर्सी, अमरीका) ने लिखा-

जो लफ्ज़ों को सच की स्याही से लिख दे

कलम से भी होती है इबादत ऐसी

सुप्रसिध्द कहानीकार डॉ. सूर्यबाला ने लिखा-“मैने एक बार पुस्तक उठाई तो ‘खुलजा सिम सिम’ की तरह जीवन को समृध्द करने का खजाना खुलता गया।“

इसी तरह एक प्रोफेसर ने लिखा कि मैं ज्यादा हिंदी नहीं समझता मगर इसको पढ़ने में मजा आया और शायरी ने मेरे कॉलेज के दिनों की याद ताज़ा कर दी।

बेलगाम के डॉ. सुनील पारीत ने देखने में छोटे लगे पुस्तक को कन्नड़ में अनुवाद करना चाहते हैं।

चंडीगढ़ की एक महिला ने लिखा कि मैने ये किताब पूजा घर में ही रख दी है।

महावीर जी के एक –एक शब्द से उनकी पुस्तकों का सार टपक रहा था।

उन्होंने कहा कि पुस्तक लिखना एक साधना है और पाठकों की प्रतिक्रिया च्यवनप्राश का काम करती है, मुझे उत्साह और नई ऊर्जा प्रदान करती है और सबसे बड़ा संतोष और आल्हाद देती है।

अपने प्रशंसकों का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि

कदम-कदम पर इम्तहान लेती है ज़िंदगी

कभी-कभी सदमें भी दे जाती है ज़िंदगी,

पर ज़िंदगी से शिकायत करें भी तो कैसे

कभी कभी आप जैसे कद्रदानों से मिलवाती है ये ज़िंदगी

उन्होंने कहा कि जब मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि आप भले-चंगे अपना कारोबार चला रहे हो तो आपको ये किताबें लिखने की क्या सूझी । इस पर मैं सबको यही कहता हूँ कि तुलसीदास, कबीर, कालिदास, प्रेमचंद जैसे कवियों, साहित्यकारों के साथ कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता, क्यों कि वे अपनी लेखनी से अजर अमर हो गए हैं। मेरे नाम के साथ भी स्वर्गीय नहीं लगे, इसलिए मैं भी लाईन में लग गया।

लेखन की शक्ति क्या होती है इसका उदाहरण देते हुए बताया कि जयपुर के राजा मानसिंह जब काबुल जीतकर आए और खुशखबरी सुनाने उनकी माँ के पास गए तो माँ ने कहा कि काबुल क्या है लंका जीतकर आओ तो जानूँ। माँ की बात सुनकर राजा परेशान हो गए मगर माँ की बात को टाल नहीं सकते थे।

राजा ने सेनापति को आदेश दिया कि अब हमें लंका विजय की तैयारी करना है। लेकिन सेनापति जानता था कि लंका विजय इतनी आसान नहीं क्योंकि बीच में समुद्र था और वहाँ पहुँचना भी आसान नहीं था, लेकिन राजाज्ञा को टाला भी नहीं जा सकता था। सेनापति रातभर सोचते रहा और हिम्मत करके सुबह उन्होंने राजा को दो लाईनें लिखकर दी।

मान महिपितमान, दिये दान किनने लिए।

रघुपति दीनों दान, विप्र विभीषण जानि के

इसका आशय था- राजा मानसिंह सूर्यवंशी हैं। लंका को आपके पूर्वज सूर्यवंशी राम ने जीतकर इसे ब्राह्मण विभीषण को दान में दे दिया था। किसी सूर्यवंशी को ये शोभा नहीं देता कि ब्राह्मण को दान की हुई चीज वापस लेने के लिए युध्द करे। राजा को ये बात समझ में आ गई और इस तरह इन दो पंक्तियों ने हजारों सैनिकों की जान बचा दी।

अंत में महावीरजी ने ये शेर पढ़कर अपना उद्बोधन पूरा किया-

कुछ दर्द मिटाने अभी बाकी हैं, कुछ फ़र्ज़ निभाने अभी बाकी हैं

ऐ ज़िंदगी जरा आहिस्ता चल, कुछ कर्ज़ चुकाने अभी बाकी हैं

ये माना सारा जहान तो हम चमन न कर सके

पर जहाँ से भी गुजरें कुछ तो काँटे कम कर सकें

इस रिश्ते को यूँही बरकरार रखना

दिलों में अपने हमारी यादों के चिराग़ जलाये रखना

बहुत सुहाना रहा अब तक का सफ़र

आगे भी यही भाव बनाये रखना

इस अवसर पर नेवटिया जी के जीवन पर आधारित एक डॉक्यूमेंट्री भी दिखाई गई, जिसमें उनके परिवारजनों ने उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं पर अपने आत्मीय अनुभव प्रस्तुत किए।

श्रीहरि सत्संग समिति की ओर से श्री स्वरुपचंद गोयल, श्री सत्यनारायण काबरा और श्रीभागवत परिवार की ओर से श्री वीरेन्द्र याज्ञिक व श्री सुभाष चौधरी ने शाल ओढ़ाकर श्री नेवटिया जी का सम्मान किया।

कार्यक्रम में नेवटियाजी के पारिवारिक सदस्य, इष्ट मित्र आदि बड़ी संख्या में उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन श्री सुरेन्द्र विकल ने किया।

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