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राष्ट्र, मनुष्य और संस्कृति का घोल राष्ट्रीयता :माखनलाल चतुर्वेदी

अन्न नहीं है ,फीस नहीं है, पुस्तक है ना सहायक है हाय,
जी में आता है पढ़-लिख लें, पर इसका है नहीं उपाय ।
कोई हमें पढ़ाओ भाई , हुए हमारे व्याकुल प्राण,
हा!हा! यों रोते फिरते हैं भारत के भावी विद्वान।

युगपुरुष माखनलाल चतुर्वेदी स्वतंत्रता संग्राम के हरावल दस्ते के नायक,अद्भुत वक्ता,निष्कलुष राजनेता,कालजयी कवि, हिन्दी के ऐसे विरल योद्धा पत्रकार-संपादक और ऐसे साहित्यकार जो कर्म से योद्धा और हृदय से कवि रहे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी एक ओर मातृभूमि की सेवा भावना से अभिभूत थे तो दूसरी ओर हिंदी भाषा के स्वरूप निर्धारण के लिए चिंतित क्रांति में समिधा बनकर निरंतर अपने को होम करके, पीढ़ियों पर छाप डालकर भी युग के पार्श्व में चलते रहे।झूठे आत्मप्रचार से दूर वे त्याग में निमग्न रहे, यह संतभाव कबिराई मुद्रा का नया संस्करण लगता है ।

 

युवाओं के सच्चे हितैषी, आत्मीय प्रेरक और मार्गदर्शक, स्वाधीनता के पूर्व अपनी कलम और वाणी से पूरे युग को उन्होंने अनुप्राणित किया और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरित करते रहे। राष्ट्र, मनुष्य और संस्कृति की त्रिवेणी का रीढ़ है – राष्ट्रीयता।माखनलाल लोक-संवेदना और लोक भाषा, लोक लय और लोकगीतों की संस्कारगत गहराइयों में जाने के सहज अभ्यासी हैं। वे सृजनात्मक अनुभूति की घनता को भीतर तक तपाकर रचने का उत्साह भी है। उनका जीवन किसान संवेदना के प्रति इस कदर समर्पित था कि किसानों की कजरी राग उनकी बोली से गूंजता रहा है। यह राग अर्थ को उन्मुक्त करता है और इंद्रिय संवेदना को ताजगी देता है। गीत का पूरा रूप ऐसा कि तंत्र लोकलय की मिठास से भिदा हुआ। संवेदना की ताजगी से दादा का मन मौन मुखर और संवेदनशील है।

 

किसान का सवाल लेख में शोषण अन्याय का प्रश्न उठाते हुए उन्होंने कहा था कि भारत के किसान की हालत क्या है? भारत में सबसे बड़ी तादाद रखने वाला किसान दुर्दशा से पीड़ित, अकाल का मारा हुआ, कर्ज में दबा हुआ है। यह समझ कर विस्मय होता है कि उनका पूरा संघर्ष किसान संवेदना की पीड़ा से व्याकुल है। किसान की गरीबी का कारण कलयुग और तकदीर नहीं है शोषण के सांप की जीभें हैं। यही व्याकुलता कविता है और यही व्याकुलता गंध।

 

उनका बहुविध लेखन भारतीय समाज में व्याप्त विघटनकारी ताकतों , कुप्रथाओं और संकीर्ण प्रवृत्तियों पर संहारक चोट करता है। सहज रुप, साहसी, निडरता ,स्वाभिमानी और अखंडित व्यक्तित्व के धनी माखनलाल जी का जन्म बाबई (होशंगाबाद) में 4 अप्रैल अट्ठारह सौ नवासी को हुआ, उनकी कुशल ग्रहणी मां का नाम सुंदरी भाई और पिता का नाम नंद लाल चतुर्वेदी जो शिक्षक थे। पत्नी का नाम ग्यारसी बाई था। अध्यवसाय और अध्ययनशीलता की बदौलत अनेक भाषा और विषयों में अप्रतिम योग्यता अर्जित की जिससे वो प्राचीन भारतीय साहित्य संस्कृति के सुयोग्य प्रवर्तक बने। खंडवा में शिक्षकीय कार्य करते हुए उन्हें तत्समय की उत्कृष्ट साहित्यक पत्रिका प्रभा से जुड़ने का अवसर मिला और उनका विराट पत्रकारीय रूप मानो जाग्रत हो गया। वह ऐसा सृजन करना चाहते थे जो आदमी को दासता के बंधनों के विरूद्ध खड़ा होने का मंत्र देता हो, उसे जगाता और उकसाता हो तथा जो युगीन वास्तविकता को अभिव्यक्ति देने में सच्चा हो। मातृभूमि की रक्षा के खातिर मानव मुक्ति एक ऐसा मूल्य है जिसे पीढ़ियां प्राण देकर प्राप्त करती हैं और इसी मानवमुक्ति के लिए माखनलाल दादा का सम्पूर्ण रचना कर्म समर्पित है।

 

शब्दास्त्र से उन्होंने विदेशी हुकूमत का मुकाबला किया हर कठिनाई ने उनकी कलम की धार को और पैना ही किया। पराधीन भारत में अपनी लेखनी और वाणी से राष्ट्र और उसकी स्वतंत्रता का ऐसा तुमुल घोष इस कधर किया कि जो लाखों भारतीय वासियों विशेषकर युवाओं के प्राणों में बलिदानी उमंग और उत्साह का उत्प्रेरक बन गया।

 

उनकी लेखनी और वाणी में कोई भेद नहीं था, दोनों से कविता की सी सरिता बहती थी।

 

स्वाधीनता आंदोलन में पत्रकारिता के माध्यम से समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करने के साथ ही कर्तव्य परायणता के लिए आमजन को प्रेरित किया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इन महामनीषियों ने समाज को उत्थान का रास्ता दिखलाया तथा राष्ट्र के लोगों में देशभक्ति की भावना जागृत करने का उद्देश्यपूर्ण कार्य किया। उनका देश प्रेम और उसकी खातिर अपने प्राण न्यौछावर प्रेरणादायी प्रसिद्ध कविता “फूल की अभिलाषा” में मातृभूमि के चरणों में शीश फूल चढ़ाने की भावना उभरकर सामने आई। उनके एक हाथ में कलम तो दूसरे हाथ में गोपनीय योजनायें रहती थीं।

वो प्रकाश से ज्यादा अंधकार में रमते हैं अंधकार उन्हें शक्ति देता है, अंधकार में ही विश्वमाता सृजन-साधना रहती है प्रकाश उसकी चिर समाधि को तोड़ता है।

 

‘वे अंधकार की देन में लिखते हैं – मैं कैसे कहूं, अंधेरे ने मुझे कितना दिया है? लगता है जैसे उजाले ने मुझसे लिया ही लिया है मानो दिया कुछ नहीं है।’

वीरत्व के प्रति मन और तन से समर्पित ऐसा ही बचपन भविष्य की इन पंक्तियों का कवि बन सकता है।

“भूखंड बिछा आकाश ओढ़,
न्यानोदक ले मोदक प्रहार;
ब्रह्मांड हथेली पर उछाल,
अपने जीवन धन को निहार।”

उनमें कर्तव्य भावना और निर्भीकता, राष्ट्रीयता और स्वाभिमान, असांप्रदायिकता और न्यायशीलता का विरल समन्वय है।

उनके व्यक्तित्व में अद्भुत चुंबकीय आकर्षण था, जिसके चलते आज भी उनकी कर्मभूमि खंडवा ₹ सभी बड़े राजनेताओं ,साहित्यकारों और पत्रकारों की तीर्थ स्थली है। उनके समूचे कृतित्व के परिप्रेक्ष्य में एक सही और प्रमाणिक पहचान है। लोक- हृदय अवसर पाकर उनके लिए अनुकूल भूमि बनाता है, और सर्जना के प्रेरणा स्रोतों पर नई कविता की कवि गिरिजाकुमार माथुर ने लिखा है –

“विंध्यप्रांतर के लाल पठारों का प्रशस्त धीरज, पथरीली धरती का सथर्य, दुर्धर्ष चट्टानों का प्रतिध्वनित विद्रोह स्वर, सन सताते जंगलों का उद्दाम संगीत, बीहड़ मैदानों का बलिदानी अस्वीकार, मालवे की धरागंध का सलोनापन, चंचल बलखाती नदियों की मिठास, कमल और कुंई से आच्छादित तालाबों की निर्मलता, निमाड़ के खेतों की ताजगी ,पाताल पानी की गहनता और संगमरमर के पहाड़ों से धाराधार झरती नर्मदा की भावभीनी अभंगता यह सब यदि एक साथ मिलकर देह धारण कर लें तो एक अनूठे व्यक्तित्व की रूप रेखा बन जाएगी, और व्यक्तित्व माखनलाल जी का होगा, वह केवल- प्रकेवल अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं।

समर्थ रचनाकार, चिंतक इतिहासकार नहीं होता पर वह इतिहास को बनाता है।