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सुई सीधी खड़ी नाचे धागा और दो बत्ती वाला फुस्सी पटाखा

कड़वे दिनों में जब चाय वाले की बिक्री पर कोई असर नहीं होता तो बॉक्स ऑफिस पर श्राद्ध पक्ष में पितृ देवता क्यूँ भला किसी पर कृपावंत होने में भेदभाव करेंगे. आधुनिक युग में पुराने अंध विश्वासों की वर्जनाएं धीरे धीरे टूटने लगी हैं. श्राद्ध पक्ष के पहले शुक्रवार की ऑनलाइन एडवांस बुकिंग पर टिकटों की अपेक्षाकृत आधी दरें इसी बात का संकेत दे रही थीं. लेकिन जब शरत कटारिया की ‘सुई धागा’ और विशाल भारद्वाज की ‘पटाखा’ दर्शकों तक पहुंची तो दोनों फिल्मों की बॉक्स ऑफिस सफलता की राहें जुदा थीं.

नई दिल्ली में जन्मे शरत कटारिया ने बॉलीवुड में नई पीढ़ी के समर्थ लेखक निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाई है. भेजा फ्राई श्रृंखला की तीनो कड़ियों सहित तितली, फैन और हम तुम शबाना जैसी फिल्मो के लेखक को निर्देशक के रूप में बड़ी सफलता यशराज फिल्म्स के बैनर तले ‘दम लगाके हईशा’ सरीखी ऑफ बीट फिल्म से मिली. इसी कामयाबी के चलते यशराज बैनर ने उनपर दुबारा भरोसा जताया और इस बार वे ‘सुई धागा’ के रूप में एक बार पुनः छोटे शहरों में निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से मेक इन इंडिया स्टोरी लाइन का रोचक ताना बाना बुनकर लाये हैं. 1960 और 70 के दशक में भी इस विषय पर हृषिकेश मुख़र्जी की मंजिल और देवेन्द्र गोयल की आदमी सड़क का जैसी कई फिल्मे बनीं थीं और सफल भी हुईं.

‘सुई धागा’ मूलतः ग्रामीण पृष्ठभूमि से एक आम आदमी के संघर्ष की कहानी है. दिल्ली के नजदीकी गाँव में टेलर परिवार का मनमौजी युवक मौजी (वरुण धवन) अपनी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) और माता-पिता (यामिनी दास – रघुवीर यादव) के साथ रहते हुए झिडकियां सुनने का आदी हो चुका है लेकिन उसके माथे पर शिकन तक नहीं आती. मौजी सिलाई मशीन बेचने की जिस दुकान पर काम करता है उसका मालिक बंसल (सिद्धार्थ भारद्वाज) और बेटा प्रशांत (आशीष वर्मा) बात बात पर मसखरी के नाम पर उसे लज्जित करते रहते हैं. प्रशांत की शादी में मौजी परिवार सहित जाता है. वहां बंसल परिवार की हरकतों से ममता अपमानित महसूस करती है. लौटकर वह मौजी को टेलरिंग का पैत्रक व्यवसाय फिर शुरू करने की प्रेरणा देती है. इस बीच मौजी की माँ को घर में गिर जाने पर जब अस्पताल में भर्ती कराया जाता है तब पता चलता है कि वह ह्रदय रोग से पीड़ित है. दो जून रोटी की दुश्वारियाँ झेलते परिवार पर यह आफत भारी पड़ती है. बावजूद इसके नौकरी छोड़कर मौजी व ममता स्वयं का स्टार्ट अप शुरू करने की दिशा में आगे बढ़ने का निर्णय लेते हैं. आगे की कहानी इस फैसले के क्रियान्वयन में आने वाली बाधाओं से पार पाने की है.

कुल मिलाकर ‘सुई धागा’ कौशल विकास के मेक इन इंडिया नामक उस सरकारी नवाचार पर आधारित है जो आज के समय की मांग भी है. शरत कटारिया ने ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ की तरह ‘सुई धागा’ को भी शासकीय योजनाओं के प्रचार प्रसार की डाक्यूमेंट्री होने से बचा लिया है. ‘अक्टूबर’ के बाद एक बार फिर वरुण धवन ने ‘सुई धागा’ में अपने सहज अभिनय की सिलाई से परफेक्ट फिटिंग का प्रमाण दिया है. अनुष्का शर्मा को सादगी के प्रभावी अवतार में देखना सुहाता है. सहायक भूमिकाओं में रघुवीर यादव, यामिनी दास, सिद्धार्थ भारद्वाज आशीष वर्मा, नामित दास, भूपेश सिंह, पूजा सरूप आदि ने अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय किया है. गौरतलब है कि ‘स्त्री’ की तरह ‘सुई धागा’ का फिल्मांकन भी मध्यप्रदेश के चंदेरी में हुआ है. *“सुई सीधी खड़ी नाचे धागा” सहित वरुण ग्रोवर के लिखे सभी गीत फिल्म के परिवेश की कोमल अनुभूति कराते हैं. इन गीतों को अन्नू मलिक ने सुरीले संगीत के मनमोहक वस्त्र पहनाये हैं.

इधर विशाल भारद्वाज की पटाखा राजस्थान के ग्रामीण परिवेश में रहनेवाली दो ऐसी बहनों बडकी चंपा (राधिका मदान) और छुटकी गेंदा (सान्या मल्होत्रा) की कहानी है जो एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाती. बेचारे बापू (विजय राज) के लिये दोनों को पालना कठिन हो जाता है. बडकी बड़ी होकर दूध डेयरी खोलना चाहती है तो छुटकी का अरमान शिक्षक बनने का है. युवावस्था में दोनों के जीवन में इंजीनियर और सैन्य पृष्ठभूमि वाले युवक प्रेमी बनकर दाखिल होते हैं. दोनों बहनों की प्रतिद्वंदिता और नफरत को निर्देशक *विशाल भारद्वाज ने भारत पकिस्तान के द्विपक्षीय संबंधों के सन्दर्भ में परिभाषित करने की चेष्टा की है.* फिल्म को यथार्थ के धरातल पर उतारने के लिये उन्होंने संवाद भी स्थानीय बोलियों में रखे हैं जो सामान्य दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ते. सान्या मल्होत्रा, राधिका मदान, विजय राज, सानंद वर्मा आदि कलाकारों का अभिनय साधारण से अधिक नहीं. दोनों बहनों की लड़ाई में रस लेने वाले पड़ौसी नारदमुनि डिपर के किरदार में सुनील ग्रोवर ही दर्शकों का दिल बहलाने में सक्षम हैं. गुलज़ार के गीतों और विशाल भारद्वाज के संगीत में पटाखे जैसा कुछ नहीं है. चरण सिंह पथिक की कृति ‘दो बहनें” से प्रेरित दो बत्ती वाला ‘पटाखा’ फुस्सी बम साबित हुआ.

(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं।)