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अब आया लाल चीन पहाड़ तले

कल से विस्तारवादी चीन के नखदंत कुंद पड़ जायेंगे। उसकी कम्युनिस्ट पार्टी, जिसके आजीवन मुखिया शी जिनपिंग हैं, के डंक टूट जायेंगे। सात दशकों की आनाकानी के बाद भारत अब लोकतांत्रिक अमेरिका से सैन्य सहायता स्वीकारेगा। भारत की कल (27 अक्टूबर 2020) दिल्ली में महाबली अमेरिका के साथ पांच अहम संधियां हुईं हैं। नाम दिया है, ” बीका” (बेसिक एक्सचेंज को—ऑपरेशन एग्रीमेन्ट)। इसके तहत चीन की घुसपैठ पर अमेरिकी सैन्यशक्ति भारत के पक्ष में मुस्तैदी से खड़ी होगी। यह मैत्री प्रस्ताव भारत का हर प्रधानमंत्री (अटल बिहारी वाजपेयी को मिलाकर) टालता रहा। सबसे बड़े लोकतंत्र (भारत) को सबसे पुराना बड़ा प्रजातंत्र (अमेरिका) अपनी यारी हेतु लुभाता रहा। स्वीकारना शायद मोदीराज को बदा था।

क्या है यह भारत—अमेरिकी संधि? रक्षामंत्री ठाकुर राजनाथ सिंह के शब्दों में हमारे बीच सैन्य सहयोग तेजी से आगे बढ़ रहा है। रक्षा उपकरणों के विकास के लिए संयुक्त परियोजनाओं पर भी बात हुई है। दोनों देशों ने हिन्द प्रशांत क्षेत्र में शान्ति और सहयोग कायम करने के लिए प्रतिबद्धता को दोहराया है।

वहीं अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो के बयान से तिलमिलाये चीन ने कहा—”अमेरिका को चीन व उसके क्षेत्रीय देशों के बीच नफरत के बीज बोना बंद कर देना चाहिए।” चीन ने अमेरिका पर क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को हानि पहुंचाने का आरोप लगाया।

कैसा संयोग है इसी माह 58 वर्ष पहले (20 अक्टूबर 1962) हिन्दी चीनी भाई—भाई तथा पंचशील के दौर को खत्म कर माओवादी लाल चीन ने भारत पर हमला किया था, जिसमें 462 सैनिक शहीद हुए तथा 45 हजार वर्ग किलोमीटर भारतीय भूभाग चीन ने हथियाया। तबसे (1962) पांच दशकों से अधिक अवधि तक नेहरूवंश का राज दिल्ली पर रहा मगर चीन से सुई की नोक के बराबर अधिकृत भूभाग भी कांग्रेस सरकार आजाद नहीं करा पाया। तुर्रा यह कि नेहरू की पुत्री के पोते राहुल गांधी हाल ही में दावा कर चुके हैं कि यदि वे सत्ता पर होते तो पन्द्रह मिनटों में चीन को पूर्वोत्तर और लद्दाख से खदेड़ देते। ऐसे डींग हांकने पर ही उसे ”पप्पू” कहा जाता है।

भारत—अमेरिकी सैन्य सहयोग के मुद्दे पर विगत सात दशकों में कई उतार चढ़ाव आये। मोदी सरकार के साथ ट्रम्प शासन का करार भारत के सर्वाधिक लाभ में है। नेहरू ने पहले चीन को भाई बताया, फिर विश्व में शान्ति दूत बनने की हांक लगायी। अन्तत: काम्युनिस्ट चीन द्वारा छूरा भोंकने के बाद कैनेडी को नेहरू द्वारा आयुद्धों के लिए अश्रुरित मांगपत्र भेजे गये थे।

इसी सिलसिले में इतने अरसे के बाद भारत के विदेश तथा रक्षा विदेश मंत्री द्वारा अमेरिकी रक्षा और विदेश सचिवों द्वारा दिल्ली में संधि पर हस्ताक्षर करना एक ऐ​तिहासिक पहल ही मानी जायेगी। इसीलिए यह समझ भी जरुरी है कि अपनी सदरी पर यज्ञोपवीत लटका कर इस पारसी पौत्र का हिन्दू बन जाना और अचानक उच्चतम न्यायालय की डांट खाकर हेकड़ी भूलना व्यापक हो। राहुल गांधी को अब प्रौढ़ता लानी होगी। बावन वर्ष की आयु में अब तो उनमें दिमागी परिपक्वता दिखे।

कुछ लोग भारत—अमेरिका कूटनीतिक संबंधों की छलभरी व्याख्या करते है। अब उन्हें इस सत्तर वर्षीय रिश्तों के दरम्यान पेश आये एक शर्मनाक और घृणोत्पादक परिदृश्य को ताजा करने का वक्त आ गया है। अपने को बड़ा वैश्विक नेता मानने वाले जवाहरलाल नेहरू की जॉन कैनेडी को सैनिक सहायता दर्दभरी मार्मिक याचना वाला पत्र (नवम्बर 1962) यहां उल्लेखित करना ऐतिहासिक अपरिहार्यता है। इस पत्र को कांग्रेसी विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह ने अपने प्रकाशन में दर्ज किया था। इसकी प्रतिलिपि वाशिंगटन के भारतीय राजदूत (1962) रहे और प्रधानमंत्री के चचेरे भाई बृजकिशोर नेहरू के दस्तावेजों में है। इस पत्र से नेहरू के लौह पुरूषत्व का लिजलिजापन का आभास हो जाता है।

नेहरू का कैनेडी को पत्र

राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी के लिए नेहरू ने एक दयनीय संदेशा भेजा था। बी.के. नेहरू लिखते हैं, “जब मैंने इसे पूरी तरह से पढ़ा तो वह टेलीग्राम इतना अपमानजनक था कि खुद को रोने से रोक पाना मुश्किल था। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि “जवाहरलाल की आत्मा पूरी तरह से नष्ट हो गई थी। चीन के आक्रमण के बाद नवंबर 1962 में नेहरू द्वारा केनेडी को भेजे गए अत्यावश्यक सैन्य सहयता की मांगपत्र को पढ़ने में बहुत तकलीफ होती है। ये अब गोपनीय दस्तावेजों की श्रेणी में नहीं है।”

नेहरू के पत्र की प्रतिलिपि

“प्रिय प्रेसिडेंट (जॉन कैनेडी) महोदय,

आज के मेरे पहले संदेश को भेजने के कुछ ही घंटों के भीतर, पूर्वोत्तर सीमा कमांड में स्थिति ज्यादा खराब हो गई है। बोमडिला (चीन ने) कब्जिया लिया और सेला क्षेत्र से पीछे हटने वाली भारतीय सेना सेला रिज और बॉमडीला के बीच फंस गई है। असम में हमारे डिगबोई तेल क्षेत्रों के लिए एक गंभीर खतरा पैदा हो गया है। विशाल बल में चीनियों के आगे बढ़ने से पूरी ब्रह्मपुत्र घाटी को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। और जब तक तुरंत कुछ नहीं किया जाता, तब तक पूरा असम, त्रिपुरा, मणिपुर और नागालैंड भी चीनी हाथों में चले जाएंगे। चीनियों ने सिक्किम और भूटान के बीच चुंबी घाटी में बड़े पैमाने पर सेना तैनात की है। एक और आक्रमण आसन्न है। उत्तर प्रदेश, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में तिब्बत की सीमा पर उत्तर पश्चिम में हमारे क्षेत्रों को भी खतरा है। लद्दाख में, जैसा कि मैंने अपने पहले वाले संदेश में कहा है, चुशूल पर भारी हमले हो रहे हैं और चुशूल में हवाई क्षेत्र की गोलाबारी शुरू हो चुकी है। तिब्बत में चीनी वायु सेना द्वारा हवाई गतिविधि बढ़ गई है।

स्थिति वास्तव में हताश करने वाली है। हमें और अधिक व्यापक सहायता पानी करनी चाहिए ताकि चीनियों को पूरे पूर्वी भारत हथियाने से रोका जा सके। इस सहायता में किसी भी देरी से में हमारे देश के लिए तबाही होगी।

इसलिए, मैं अनुरोध करता हूं कि चीनी अग्रिम पंक्ति की गति अवरूद्ध करने हेतु हमारी वायु सेवा को मजबूत करने के लिए तुरंत आप सहायता दें।
पर्याप्त हवाई सुरक्षा के लिए न्यूनतम सुपरसोनिक 12 स्क्वाड्रन आवश्यक हैं। हमारे पास देश में कोई आधुनिक रडार कवर नहीं है। इसके लिए भी हम आपकी सहायता चाहते हैं। अमेरिकी वायु सेना के कर्मियों को सेनानियों और राडार प्रतिष्ठानों को संभालना होगा जबतक हमारे कर्मियों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। अमेरिकी वायुसेना के कर्मियों और परिवहन विमानों का उपयोग हमारे शहरों और प्रतिष्ठानों को चीनी हवाई हमलों से बचाने और हमारे संचार को बनाए रखने के लिए किया जाएगा।

मैं आपसे बी-47 प्रकार के दो स्क्वाड्रन के हमलावरों की सहायता करने पर विचार करने का अनुरोध करता हूं। इस अपरिहार्य साथ के लिए, हम संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रशिक्षण के लिए अपने पायलटों और तकनीशियनों को तुरंत भेजना चाहते हैं।

हमें विश्वास है कि आपका महान देश हमारे त्रासदी की इस घड़ी पर भारत के अस्तित्व के लिए और इस उप-महाद्वीप में स्वतंत्रता और उसके अस्तित्व के लिए हमारी लड़ाई में मदद करेंगे और साथ ही साथ शेष एशिया में भी। हम तब तक कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं जब तक कि चीनी विस्तारवादी और स्वतंत्रता के लिए आक्रामक सैन्यवाद द्वारा उत्पन्न खतरे को समाप्त नहीं जाते है हमारी स्वतंत्रता पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हो जाती है।

भवदीय
जवाहरलाल नेहरू

K Vikram Rao
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