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जिसने दुनिया भर में आतंकियों को चुनचुन कर मारा और शांति का नोबल पुरस्कार भी मिला

क्या ऐसा संभव है? हां है! इसका समसामयिक प्रमाण इजराइल और उसके प्रधानमंत्री है। इजराइल और उसके प्रधानमंत्रियों ने उन सभी आंतकियों की कमर तोड़ी, उन अरब देशों को उनकी सीमा में बार-बार घुस कर मारा जिन्होने इजराइल को नक्शे से मिटा देने, बरबाद करने की कसम खाई हुई है। सोचंे, कितना मारा है इजराइल ने अपने दुश्मनों को। बावजूद उसके प्रधानमंत्री सिमोन पेरेज को नोबल शांति पुरस्कार मिला था। पेरेज की इसी सितंबर में 92 वर्ष की उम्र में मृत्यु हुई। पिछले सप्ताह सिमोन पेरेज की अंत्येष्टी थी। भारत में बहुत कम लोगों ने उसे टीवी चैनलों पर लाइव देखा होगा। भारत के टीवी चैनलों ने दिखाया भी नहीं। मगर सीएनएन हो या बीबीसी या अल जजीरा,मतलब वैश्विक चैनलों ने उसे दिखाया। दुनिया ने उसे देखा और जैसे मैं आश्चर्य में था वैसे दुनिया में कई लोग हुए होंगे कि भला सिमोन पेरेज की अंत्येष्टी में दुनिया के 70 नेता क्योंकर पहुंचे? राष्ट्रपति ओबामा से लेकर पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांदे आदि 70 विश्व नेता सिमोन पेरेज की अंत्येष्टी में थे।। या तो नेल्सन मंडेला की अंत्येष्टी में वैश्विक नेताओं का ऐसा जमावड़ा था या सिमोन पेरेज के अंतिम संस्कार में।

हां, उन सिमोन पेरेज को श्रद्वांजलि देने दुनिया के नेता पहुंचे जिन्होने 1956 में स्वेज नहर से ले कर 1973 में अरबों की सामूहिक सेना को धोने का युद्व लड़ा। गाजा पट्टी पर कब्जे से ले कर फिलीस्तीनीयों को बाड़े में बंद कराने आदि तमाम काम अपनी अलग-अलग जिम्मेवारियों में जुनून से किए या करवाएं। सो इजराइल और सिमोन पेरेज की यह एक दास्तां है तो दूसरी और भारत व उसके नेताओं की दास्तां है। भारत में नेहरू ने शांति कबूतर उड़ाए। शास्त्री- इंदिरा ने जीती हुई जमीन लौटाई। वाजपेयी ने बस यात्रा की, नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ के घर जा कर पकौड़े खाए पर कोई नोबेल के शांति पुरस्कार के लिए विचारणीय नहीं हुआ! ठिक विपरित जिस नेता की रहनुमाई में फिलीस्तीनियों की जमीन कब्जाई हो, आंतकियों को चुन –चुन कर, दुनिया भर में तलाश करके मारा हो, राकेटों से पीएलओ, हमास, हिजबुला आदि के सैकड़ों आंतकी मारे हो, जिसके खिलाफ आलोचना-भर्त्सना-निंदा और बहिष्कार के अनगिनत प्रस्ताव बने हो उस सिमोन पेरेज व राबिन को नोबेल का शांति पुरस्कार मिला। पेरेज की अंत्येष्ठी में दुनिया के 70 नेता जमा हुए!

क्यों? क्या इसमें भारत के लिए, नरेंद्र मोदी के लिए किसी तरह का कोई सबक छुपा हुआ है?

पहला सबक यह है कि दुनिया ताकत को पूजती है। और वीर वे होते है जो तलवार लड़ने के लिए उठाए रहते है न कि घर में दशहरा की शस्त्र पूजा के लिए रखते है। भारत में हम हिंदुओं की आजादी का और इजराइल में यहूदियों की आजादी का वक्त क्रमश 1947 और 1948 है। दोनों का जीवन इस्लाम से संर्घष में शुरू हुआ। तुलना के लिए माने कि तब जम्मू-कश्मीर की हमारी समस्या के आगे इजराइल की फिलीस्तीनी समस्या लाख गुना विकट थी। हर अरब देश इजराइल को नेस्तानबूद करने की कसम से फिलीस्तीनियों के साथ खड़ा था। अरबों ने मिल कर इजराइल पर हमला बोला। इजराइल का जन्म आतंक में हुआ। यासेर अराफात के पीएलओ से ले कर हमास, हिजबुल्लाह आदि दर्जनों तरह के आंतकी संगठन इजराइल पर खंजर गाढ़े रहे।

वैसी विकट स्थिति के बीच यहूदियों और उनके यहूदी नेताओं ने कौम की इच्छाशक्ति, अपने साहस से वह कर दिखाया जिसकी भारत के हम हिंदू कल्पना भी करेंगे तो खौफ से रोंगटे खड़े हो जाएगें। ध्यान है 1972 के म्युनिख ओलंपिंक में इजराइली खिलाडि़यों को बंधक बनाने की आतंकी घटना? दुनिया तब इजराइली टीम पर आतंकी हमले से थर्राई थी। या इजराइली विमान का अपहरण करके आंतकियों का उसे उंगाडा ले जाना? इजराइल ने इनके आगे समर्पण नहीं किया। वाजपेयी सरकार की तरह उसका विदेश मंत्री काजू-मैवा-पैसा ले कर विमान छुड़ाने एंटेबी नहीं गया। बल्कि कमांडो भेज कर विमान को मुक्त कराया। जैसे भारत के दाऊद इब्राहिम या मौलाना अजहर छुपे, बचे हुए है वैसे इजराइल के दुश्मन आतंकी छुपे नहीं रह सके। दुनिया के सभी कोनों में, यहां तक कि लीबिया जैसे तब के अभेदी गढ़ में भी इजराइली जासूसों ने हर उस आंतकी की हत्या की जिसका म्युनिख आंतकी वारदात में प्रत्यक्ष या परोक्ष हाथ था। इजराइली सेना ने अरबों की जमीन कब्जाई। वहां अपनी बस्तियां बसाई। फिलीस्तीनियों को तारबंदी, दिवारबंदी के बाडों में रहने को पाबंद बनाया।

उन तमाम कार्रवाईयों के एक प्रमुख पात्र थे सिमोन पेरेज। इसलिए कि वे सात दशक अपने राजनैतिक जीवन, विभिन्न मंत्रालयों में अपनी भूमिका में यहूदियों का शक्ति अनुष्ठान करते-कराते रहे। वे यहूदियों की इच्छाशक्ति और ताकत के प्रतीक है। उनकी कमान में इजराइल ने अरबों, फिलीस्तीनियों को ठोंक-ठोंक कर ऐसा मजबूर किया कि अंत में फिलीस्तीनी संर्घष के नायक यासेर अराफात को सुलह के लिए मजबूर होना पड़ा। तब सिमोन पेरेज ने उन्हे कहा फिलीस्तीनी स्वतंत्र देश की बात भूलों और स्वायत्त शासन के खांके को मानो। उसी पर फिर ओस्लो समझौता हुआ। सिमोन पेरेज शांति पुरूष बने। यासेर अराफात और इजराइल के दो नेता पेरेज व राबिन को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया।

सो 68 साल में दुश्मनों, आंतकियों, अरबों, इस्लामी कट्टरपंथियों को ठोंक-ठोंक कर इजराइल ने अपनी सीमाएं बढ़ाई। अपना भूगोल खुद अपनी ताकत से बनाया। अमेरिका हो या दुनिया की कोई भी महाशक्ति, वह उसकी कायल हुई। फिलीस्तीनी चिलपौं सिरे से खत्म करा दी। ठिक विपरित भारत 70 सालों से जम्मू-कश्मीर में क्या कर रहा है? हम उसके विशेषाधिकार, उसकी बुनावट को भी बदलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे है। दुनिया को नेहरू ने भी, वाजपेयी और मोदी ने भी कहा कि इंसानियत, कश्मीरियत, जम्हूरियत में हम डॉयल़ॉग चाहते है। इजराइल या सिमोन पेरेज ने ऐसे ड़ॉयलॉग नहीं बोले। क्योंकि उनकी ताकत ही डॉयलॉग थी जिसे अंत में यासेर अराफात ने समझा। जो अंत में नोबेल पुरस्कार से भी पुरस्कृत हुई। हां,अपना मानना है कि पेरेज की अंत्येष्टी में 70 वैश्विक नेताओं की उपस्थिति भी यहूदी कौम की ताकत को सलामी थी।

क्या नहीं?

साभार- http://www.nayaindia.com/ से