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कुरान के नाम पर बस निर्दोषों का खून ही बहाया जा रहा है

हैरिस की रुचि वैज्ञानिक विश्लेषण में है। इसीलिए ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में इस पर केंद्रित अध्याय काफी मौलिक है। मुसलमानों को बताया गया है कि कुरान दुनिया की सर्वश्रेष्ठ किताब है, जिस में अल्लाह के शब्द हैं। इसलिए उस में न कोई गलती है, न उस में कुछ बदला या छोड़ा जा सकता है। इस दावे के मद्देनजर यदि कुरान में एक भी आयत में गलती या छोड़ने लायक चीज मिले – तो पूरा दावा गलत साबित होगा। इस परीक्षण में हैरिस कई प्रश्न उठाते हैं।

एक, दुनिया में अनेक अनूठी पुस्तकें कुरान से पहले और बाद भी लिखी गई। उन पुस्तकों में गुलामी, भिन्न विचार वालों को मारना, स्त्रियों पर जबरदस्ती, मनमानी हिंसा, अपशब्द, डरना-डराना, आदि कुछ नहीं है। इस के बदले ऐसी सुंदर दार्शनिक बातें हैं जो हजारों वर्ष बाद भी आज ऊँची समझ और आनन्द देती है। वह तनिक भी पुरानी नहीं लगती और उस में कुछ भी छोड़ने लायक नहीं मिलता। वे बातें बिल्कुल साफ हैं जिन्हें समझने में किसी पुनर्व्याख्या की जरूरत नहीं पड़ती। तो कौन सी पुस्तक श्रेष्ठ है?

दूसरे, यदि अल्लाह सर्वशक्तिमान है तो उस ने अपना संदेश देने के लिए एक छोटा, नामालूम सा अरब क्षेत्र और मनुष्य के माध्यम से मौखिक बोल-बोल कर व्यक्तियों को संदेश दिलवाने की पद्धति क्यों चुनी? आज कोई वीडियो बनाता है, जो एक दिन में दुनिया भर में लाखों लोगों तक पहुँच सकता है। सो पहले तो अल्लाह ने अमेरिका, चीन, भारत, जैसे विशाल समाजों को छोड़ कर एक अत्यंत छोटे से अरब समूह को क्यों चुना। फिर, क्या उस के पास कोई तकनीक नहीं थी जो आज मामूली इंसानों के पास है, कि एक ही बार में संदेश सारी दुनिया में और सीधे पहुँच जाए? यदि अल्लाह भी मनुष्य की तकनीकी सीमा से बाधित और निर्भर है, तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है।

तीसरे, जिहाद वाली आयतों पर दोहरे-तिहरे अर्थ क्यों निकाले जाते हैं? जैसे, ‘‘अल्लाह की राह में युद्ध करो, और जान लो कि अल्लाह सुनने वाला और जानने वाला है।’’ (कुरान, 2-244)। इस्लामी स्टेट वाले मौलाना इस का अर्थ काफिरों पर चढ़ाई करना, और कोई अन्य मौलाना अपनी रक्षा करना बताते हैं। अपनी-अपनी पसंद, या समय स्थान देख कर इस का अर्थ बदला जाता है। क्या अल्लाह टॉल्सटॉय या आइंस्टीन की तरह ऐसे वाक्य नहीं बोल सकता जिस के अर्थ पर कोई शक-शुबहा न हो?

चौथे, पृथ्वी और ग्रहों के निर्माण, सूरज के डूबने की जगह, धरती का आकार, मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया, आदि संबंधी तथ्यगत गड़बड़ियाँ भी मिलती हैं। इस पर मौलाना और विश्वासी मुसलमान आज की दृष्टि से उस की सफाई देते हैं। यह तो अल्लाह के बदले, मनुष्य का विचार उस में डालने जैसा है।

पाँचवें, जिन आयतों को बाद में ‘शैतानी’ कह कर मुहम्मद ने खारिज किया था (कुरान, 53-20,21 के बीच में वे आयतें थीं), वह मुहम्मद से गलती होने का खुला सबूत है। एक गलती प्रमाण है कि उस के अलावा भी गलतियाँ रही हो सकती हैं। फिर, बाद में मंसूख, निरस्त की गईं आयतें, एक ही विषय पर ‘उस से अच्छी’ आयतें, और अल्लाह की टिप्पणी (कुरान, 2-106), आदि खुद मानती हैं कि पहले वाली आयतें उतनी अच्छी नहीं थीं। तभी तो बाद वाली आयतों के ‘और अच्छे’ होने की दलील दी गई। जानकारों के अनुसार, कुरान में कुल 564 आयतें मंसूख की गई बताई जाती हैं (पृ. 170)। अतः अल्लाह का संदेश भेजना और / अथवा मुहम्मद का सुनना, कहना त्रुटिहीन नहीं था। तब कुरान और मुहम्मद को त्रुटिहीन कैसे कहा जा सकता है?

इन सब के मददेनजर भी अल्लाह के होने, और उस की सर्वशक्तिमानता पर संदेह होता है। हैरिस के हिसाब से अल्लाह सीधे मनुष्यों से संवाद नहीं कर सकता, सो अपना प्रोफेट भेजता है। वह प्रोफेट सदैव जिन्दा नहीं रहेगा, सो वह एक किताब छोड़ जाता है। वह किताब बार-बार विकृत या उस की नई-नई व्याख्या होती है। अतः अल्लाह के संदेश के कई अर्थ बन जाते हैं। विविध ईमाम, मौलाना अपनी-अपनी व्याख्या को ‘अल्लाह का असली संदेश’ कहते हैं। यह देखते हुए तो आज मनुष्यों ने बेहतर काम कर दिखाया जिन के बनाए सॉफ्टवेयर हू-ब-हू संदेश रिकॉर्ड करते हैं जो शायद ही विकृत होते हैं।

फिर, प्रोफेट मुहम्मद के क्रिया-कलापों के भंडार में अनेक बातों की लीपा-पोती की जाती है। इतिहास में किसी मनुष्य के बारे में इतनी जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं, जितनी मुहम्मद के बारे में। वे कैसे सोते थे, किस पैर में जूता पहले डालते थे, कैसे इत्र लगाते थे, किस चीज पर क्या राय रखते थे, आदि आदि। मुहम्मद के कार्यों में बहुतेरी ऐसी हैं जिन्हें उस समय भी सब ने उचित नहीं माना था। आज भी उन बातों को नजरअंदाज करने या औचित्य दिखाने के लिए तरह-तरह की बौद्धिक कलाबाजी होती है। जैसे, किसी के साथ समझौता मनमर्जी तोड़ देना; अपनी राह जा रहे काफिले को लूट लेना; निःशस्त्र असहाय लोगों का सामूहिक कत्ल करना; किसी को क्रूर यातना देकर मारना; धोखे से किसी को खत्म करवाना; हराए गए लोगों की बीवियों के साथ उन के सामने ही बलात्कार को नजरअंदाज करना; ऐसे बलात्कारों से उत्पन्न अवैध सन्तानों के भवितव्य पर कुछ न कहना; काबा के शान्ति-क्षेत्र होने के पुराने पारंपरिक नियम का उल्लंघन करना; स्त्रियों पर पुरुषों के मनमाने वर्चस्व का कायदा बनाना; आदि। ये सब प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी और सब से प्रमाणिक हदीसों में दर्ज हैं। कई बातें अनेक बार दुहराई मिलती हैं। इन में कितनी बातों से मानवता के लिए सदा-सर्वदा अनुकरणीय सर्वश्रेष्ठ पुरुष की छवि पुष्ट होती है?

पुस्तक का एक अत्यंत प्रासंगिक अध्याय ‘इस्लामोफोबिया’ पर है (पृ. 184-94)। यह शब्द आज पूरे लोकतांत्रिक विश्व में मंत्र-सा रटा जाता है, लेकिन पूर्णतः गलत है। ‘फोबिया’ ऐसे भय को कहते हैं जो किसी भ्रम से होता हो। जैसे, किसी को पानी से या अंधेरे से डर लगे। लेकिन इस्लाम से भय तो वास्तविक है! दुनिया के कोने-कोने में जिहादी कुरान का नाम ले-लेकर धोखे से हमला कर सैकड़ों, हजारों की जान लेते रहते हैं। किसी जाँच में अपवाद नहीं मिला कि इस्लामी विश्वास और कुरान केवल बहाना था, असली मकसद कुछ और था। बड़े-बड़े जिहादी नेताओं ने खुद चिट्ठी या दस्तावेज प्रकाशित करके केवल इस्लामी विश्वासों की बात की है। फिर, असंख्य इस्लामी संस्थाएं, संगठन दुनिया से काफिरों को मिटा कर खालिस इस्लामी राज बनाने की घोषणा करते हैं। यही शिक्षा अपने हजारों मदरसों में देते हैं। तालिबान और इस्लामी स्टेट ने आज भी पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों को वैसे ही नष्ट किया, जैसे सदियों पहले गजनवियों, खिलजियों, मुगलों ने किया था। स्त्रियाँ उसी तरह वस्तु की तरह उठाई, रौंदी जातीं हैं, जो इस्लामी इतिहास में शुरू से मिलता है।

तब इस्लाम से भय को ‘फोबिया’ कैसे कहा जा सकता है? यह तो मानवता के लिए सचमुच डर का विषय है। कई मुस्लिम देशों में भी मुस्लिम ब्रदरहुड, अल कायदा, तबलीगी जमात, जैसे इस्लामी संगठन प्रतिबंधित हैं। किसी भी स्त्री को इस्लाम से डर लगेगा! मारने-पीटने के निर्देश और स्त्रियों के प्रति व्यवहार के विवरण मूल इस्लामी किताबों में हैं। उसे इस्लामी शासक या मौलाना आज भी लागू करते हैं। अतः किसी स्त्री को इस्लाम से डर न लगना ही अस्वभाविक बात होगी। बशर्ते, वह इस्लामी सिद्धांत और इतिहास जानती हो। इसी प्रकार, इस्लाम छोड़ने वाले मुलहिदों, और मुनाफिकों को भी डर लगेगा। क्योंकि इस्लाम उन्हें मार डालने का हुक्म देता है। काफिरों को तो डरना ही है क्योंकि इस्लाम का उद्देश्य ही उन्हें खत्म करना है। इसलिए, ‘इस्लामोफोबिया’ एक गलत दलील है, जिस की आड़ में इस्लाम पर विचार-विमर्श को बाधित किया जाता है।

साभार- https://www.nayaindia.com/ से