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हमारी भाषाएं, हमारे वर्तमान को अतीत से जोड़ने वाला सूत्र है: श्री नायडु

उपराष्ट्रपति श्री एम वेंकैया नायडु ने आज कहा कि भाषा ही लोगों के बीच वह सूत्र है जो उन्हें समुदाय के रूप में बांधता है। उन्होंने मातृभाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए एक जन अभियान का आह्वाहन करते हुए कहा कि “यदि हम अपनी मातृभाषा को खोते है तो हम अपनी पहचान खोते हैं”।

केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित एक समारोह को वर्चुअल रूप से चेन्नई से संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने हमारी भाषाओं में बदलते समय की बदलती जरूरतों के अनुरूप बदलाव लाने का आग्रह किया। उन्होंने हमारी भाषाओं को युवा पीढ़ी में प्रचलित करने के लिए नए तरीके खोजने का भी आग्रह किया। उन्होंने कहा कि खेल खेल में ही बच्चों को भाषा की बारीकियां सिखाई जानी चाहिए। उपराष्ट्रपति ने भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली में सुधार करने का भी सुझाव दिया।

भाषा को हमारी सांस्कृतिक धरोहर की वाहक बताते हुए श्री नायडु ने कहा कि भाषा हमारे वर्तमान को अतीत से जोड़ने वाला अदृश्य सूत्र है। उन्होंने कहा कि ” हमारी भाषाएं हजारों सालों के अर्जित साझे ज्ञान और विद्या का खज़ाना होती हैं।”

उन्होंने कहा कि भारत में सदियों से विभिन्न भाषाएं साथ साथ रही हैं और यही भाषाई समृद्धि हमारी रचनात्मकता और सृजन का कारण रही है। उन्होंने हर्ष व्यक्त किया कि नई शिक्षा नीति 2020 में स्कूली और कॉलेज शिक्षा को मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाने का प्रस्ताव किया गया है। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति में समावेशी शिक्षा तथा नैतिक जीवन मूल्यों की शिक्षा के माध्यम से शिक्षाप्रणाली के भारतीयकरण पर बल दिया गया है। इस शिक्षापद्धति की सराहना करते हुए, उपराष्ट्रपति ने राज्यों से शिक्षा नीति को अक्षरश: लागू करने का आग्रह किया।

उपराष्ट्रपति ने जोर देते हुए कहा कि तकनीकी शिक्षा को मातृभाषा में प्रदान करके ही शिक्षा को असल में समावेशी बनाया जा सकता है। अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने वाले जापान, फ्रांस तथा जर्मनी जैसे विकसित देशों का उदाहरण देते हुए, श्री नायडु ने कहा कि अपनी मातृभाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए इन देशों द्वारा अपनाए गए तरीकों और नीतियों से हमें भी सीखना चाहिए।

मातृभाषाओं के संरक्षण और संवर्धन में राज्य सरकारों की सक्रिय भागीदारी का आह्वाहन करते हुए उपराष्ट्रपति ने उनसे अपेक्षा की कि वे न सिर्फ एक विषय के रूप में मातृभाषा का प्रचार प्रसार करें बल्कि प्रशासन और न्यायालयों सहित सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में मातृभाषाओं के प्रयोग को प्रोत्साहित करें। उन्होंने कहा कि सभी राज्य, लोगों की मातृभाषा को ही प्रशासन में प्रयोग करें तथा उन्हें शिक्षा का माध्यम बनाएं। श्री नायडु जी ने कहा “एक लोकतंत्र के रूप में यह जरूरी है कि शासन में आम नागरिकों की भागीदारी हो। वह तभी होगा जब शासन की भाषा उनकी अपनी मातृभाषा होगी।” साथ ही उन्होने न्यायपालिका की कार्यवाही भारतीय भाषाओं में करने को कहा जिससे लोग न्यायपालिका को अपना पक्ष अपनी भाषा में समझा सकें, उसके निर्णयों को पूरी तरह समझ सकें।

श्री नायडु ने कहा कि सदियों की गुलामी ने हमारी भारतीय भाषाओं को गहरी हानि पंहुचाई है, आज़ादी के बाद भी अपनी भाषाओं के साथ न्याय करने के हमारे प्रयास पर्याप्त नहीं रहे। उन्होंने कहा कि यह बहुत बड़ी भूल रही कि मातृभाषा का प्रयोग नहीं किया गया। श्री नायडु ने कहा कि विदेशी शासन के समाप्त होने के फौरन बाद ही, मातृभाषाओं और भारतीय भाषाओं को न अपनाया जाना,गलत था। उपराष्ट्रपति ने लोगों से अधिक से अधिक भाषाएं सीखने का आग्रह करते हुए भी कहा कि सर्वप्रथम अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा की सुदृढ़ नींव डालें। उन्होंने भारतीय भाषाओं को रोजगार और आजीविका से जोड़ने पर भी जोर दिया।

केन्द्रीय मंत्री, डॉ. जितेन्द्र सिंह तथा पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव, डॉ. एम. रविचन्द्रन सहित अनेक गणमान्य व्यक्ति कार्यक्रम में उपस्थित रहे।

उपराष्ट्रपति जी के भाषण का मूलपाठ निम्न है –

“भाषा का जन्म लोगों के बीच संवाद हेतु होता है। उसकी सार्थकता इसी मैं है कि वह इस संवाद को सरल बनाए।

भाषा हमारे संस्कारों को भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पंहुचाती है। इस प्रकार भाषा हमारे अतीत और वर्तमान के बीच का सूत्र है।

हमारी सांस्कृतिक धरोहर, हमारी मान्यताएं, मर्यादाएं भाषा में ही संरक्षित रहते हैं। हमारे साहित्य और संस्कृति का अस्तित्व, भाषा के बिना संभव ही नहीं है। इस प्रकार हमारी भाषाएं सदियों के हमारे सभ्यतागत अनुभव का खजाना होती हैं।

विश्व की असंख्य भाषाओं में, हमारी अपनी मातृभाषा का हमारे हृदय में विशेष स्थान होता है। मातृ भाषा में बोला गया हर शब्द आपकी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचा देता है।

हम अपनी मातृ भाषाओं को सुरक्षित रखें, उनका प्रयोग करते हुए गर्व करें, तभी हमारी मातृ भाषा और विकसित होगी।

भारत में सैकड़ों भाषाएं और हजारों बोलियां रही हैं। यह भाषाई विविधता ही हमारी सनातन सभ्यता को विशिष्ट बनाती है। सदियों पुरानी इस भाषाई विविधता के बावजूद, हमारा परस्पर संपर्क और संवाद मजबूत और सौहार्दपूर्ण रहा है।

इस अवधि में हमारी भाषाओं में भी परस्पर संवाद होता रहा, शब्दों और मुहावरों का आदान प्रदान होता रहा। इससे हर भाषा समृद्ध बनी।

इसीलिए मेरा सदैव मानना रहा है कि हमारी सभी मातृ भाषाओं को “स्थानीय भाषा” न कह कर, उन्हें “भारतीय भाषा” कहा जाय। हमारी सभी मातृ भाषाएं बराबर हैं और उनमें से हरेक की अपनी मधुरता और विशेषता है।

ये भाषाएं ही भारत की “विभिन्नता में एकता” को अभिव्यक्त करती हैं।

मुझे हर्ष है कि केंद्र सरकार भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए सार्थक प्रयास कर रही है।

नई शिक्षा नीति, 2020 में, कम से कम कक्षा 5 तक, बच्चों को मातृ भाषा में ही शिक्षा देने का प्रावधान है।

नई शिक्षा नीति का उद्देश्य ही पूरी शिक्षा प्रणाली का “भारतीयकरण” करना है। शिक्षा को समावेशी बनाना है। शिक्षा नीति में, जीवन मूल्यों और नैतिक शिक्षा दिए जाने पर बल दिया गया है। मेरा सभी राज्यों से आग्रह होगा कि वे इस शिक्षा नीति को अक्षरश: पूरी प्रतिबद्धता के साथ लागू करें।

ऋग्वेद में कहा गया है “अ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:” अर्थात् हर दिशा से अच्छे और उदार विचार हमारे पास आएं। यह श्लोक, हमारे सभ्यतागत संस्कारों में खुलेपन और स्वीकार करने की असीम क्षमता को दर्शाता है।

हम अपने पूर्वजों के इन्हीं संस्कारों का अनुकरण करें। सभी संस्कृतियों का आदर करें, उनकी भाषाओं को सीखें, उनके इतिहास, उनकी परंपराओं को जानें। हम अपनी परंपराओं का पालन करते हुए भी, अन्य संस्कृतियों को खुले मन से स्वीकार करें।

मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा का माध्यम भी भारतीय भाषाओं में होना चाहिए। तभी हमारी उच्च और तकनीकी शिक्षा समावेशी बन सकेगी। तभी हम अपने युवाओं की प्रतिभा, क्षमता को अभिव्यक्त करने का मौका दे सकेंगे।

अग्रेजों ने राष्ट्र को ही गुलाम नहीं बनाया, बल्कि भारतीय भाषाओं का भी दमन किया। भारतीय संस्कारों का भी दमन किया। हर समुदाय को इस गुलामी की बड़ी कीमत अपनी परंपराओं से चुकानी पड़ी है। कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहा। लेकिन आज़ादी के बाद भी स्थितियां बहुत नहीं बदली हैं। एक भारतीय के रूप में यह हमारी असफलता ही है कि हम अपनी मातृभाषाओं को शासन, प्रशासन और राष्ट्रीय जीवन में उचित स्थान न दिला पाए।

एक लोकतंत्र के रूप में यह जरूरी है कि शासन में आम नागरिकों की भागीदारी हो। वह तभी होगा जब शासन की भाषा उनकी अपनी मातृभाषा होगी। न्यायपालिका की भाषा अभी भी अंग्रेजी है। न्यायालयों को चाहिए कि वे अपनी कार्यवाही भारतीय भाषाओं में करें। जिससे लोग न्यायपालिका को अपना पक्ष अपनी भाषा में समझा सकें, उसके निर्णयों को पूरी तरह समझ सकें।

मुझे खुशी है कि कुछ संस्थान इस दिशा में सार्थक प्रयास कर भी रहे हैं। हमें जापान, फ्रांस, जर्मनी चीन जैसे विकसित देशों से सीखना चाहिए जहां उच्च और तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रम उनकी मातृ भाषा में ही उपलब्ध होते है। फिर भी वहां का अध्ययन, अनुसंधान और शोध, अंग्रेजी बोलने वाले देशों के समान ही विश्व स्तरीय रहा है।

इन देशों ने किस प्रणाली से अपनी मातृ भाषाओं को संरक्षित रखा, उसे बढ़ाया, हमें उनसे यह सीखना चाहिए और अपने लिए रणनीति तैयार करनी चाहिए।

मातृभाषा के संरक्षण के लिए एक जन अभियान जरूरी है। यह सिर्फ सरकार का ही दायित्व नहीं है। इसमें परिवार, शिक्षक, मीडिया तथा भाषाविद सभी का योगदान चाहिए।

साथ ही युवाओं में मातृ भाषाओं का प्रचलन बढ़ाने के लिए जरूरी है कि भाषाएं भी बदलते समय की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप बदलें। युवाओं को सरल रोचक तरीकों से भाषा ज्ञान दिया जाना चाहिए। इस प्रकार के खेल विकसित किए जाने चाहिए।

जरूरी है कि वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली का भी आसान भारतीय भाषाओं अनुवाद किया जाय। इससे युवाओं में आधुनिक विषयों के लिए रुचि बढ़ेगी और उनके लिए भी विषय सरल और सुगम्य बनेगा।

राज्य सरकारों से उम्मीद करता हूं कि वे भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार हेतु कारगर कदम उठाएंगे। न सिर्फ मातृ भाषा को स्कूली शिक्षा का माध्यम बनाएंगे, बल्कि रोजमर्रा जीवन में भी मातृ भाषा को बढ़ावा देगें।

मातृभाषा सीखने पर बल देने का अर्थ ये नहीं कि अंग्रेजी को न सीखा जाए। मेरा तो मानना रहा है कि यथासंभव अधिक से अधिक भाषाएं सीखनी चाहिए। अभिभावकों और गुरुजनों को चाहिए कि वे विद्यार्थी को मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं तथा एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा सीखने के लिए प्रोत्साहित करें। लेकिन सबसे पहले मातृभाषा में शिक्षा की मजबूत नींव पड़ना आवश्यक है।

अंत में यह याद रखें कि भाषा ही लोगों के बीच संवाद का वह सूत्र है जो किसी समुदाय को बनाता है। अगर हम अपनी मातृभाषा को भूलते हैं तो हम अपनी पहचान खोते हैं, अपना आत्म सम्मान, अपना आत्म विश्वास खो देते हैं।

हम अपनी मातृभाषा में बोलने, बात करने गौरव महसूस करना चाहिए और इस अमूल्य निधि को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित रखना चाहिए।