Thursday, April 18, 2024
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परिंदे संवेदना के : गीत नव सुख-वेदना के

गीत-नवगीत के मानकों, स्वीकार्यताओ-अस्वीकार्यताओं को लेकर तथाकथित मठाधीशों द्वारा छेड़ी गयी निरर्थक कवायद से दूर रहते हुए जिन नवगीतकारों ने अपनी कृति गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित करना बेहतर समझा जयप्रकाश श्रीवास्तव उनमें से एक हैं। हिंदी साहित्य में स्नाकोत्तर उपाधि प्राप्त रचनाकार गीत-नवगीत को भली-भाँति समझता है, उनके वैशिष्ट्य, साम्य और अंतर पर चर्चा भी करता है किन्तु अपने रचनाकर्म को आलोचकीय छीछालेदर से दूर रखने के लिये गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित कर संतुष्ट है। इस कारण नवगीत के समीक्षकों – शोधछात्रों की दृष्टि से ऐसे नवगीतकार तथा उनका रचना कर्म ओझल हो जाना स्वाभाविक है।

parinde samvedna ke navgeet sangrah‘परिंदे संवेदना के’ शीर्षक चौंकाता है परिंदे अनेक, संवेदना एक अर्थात एक संवेदना विशेष से प्रभावित अनेक भाव पक्षियों की चहचहाहट किन्तु संग्रह में संकलित गीत-नवगीत जीवन की विविध संवेदनाओं सुख-दुःख, प्रीति-घृणा, सर्जन-शोषण, राग-विराग, संकल्प-विकल्प आदि को अभिव्यक्त करते हैं। अत:, ‘परिंदे संवेदनाओं के’ शीर्षक उपयुक्त होता। जयप्रकाश आत्मानंदी रचनाकार हैं, वे छंद के शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। उनके सभी गीत-नवगीत जय हैं किन्तु विविध अंतरों में समान संख्या अथवा मात्रा भार की पंक्तियों की सामान्यत: प्रचलित प्रथा का अनुकरण वे हमेशा नहीं करते। हर अंतरे के पश्चात मुखड़े के समान तुकांती पंक्तियों की प्रथा का वे पालन करते हैं। उनके नवगीत कथ्य-केंद्रित हैं। प्रकृति-पर्यावरण, शासन-प्रशासन, शोषण-विलास, गिराव-उठाव, आशा-निराशा आदि उनके इन ५८ नवगीतों में अन्तर्निहित हैं।

इन नवगीतों की भाषा सामान्यत: बोली जा रही शब्दावली से संपन्न है, जयप्रकाश अलंकरण पर स्वाभाविक सादगी को वरीयता देते हैं। वे शब्द चुनते नहीं, नदी के जलप्रवाह में स्वयमेव आती लहरियों के तरह शब्द अपने आप आते हैं।
आश्वासन के घर / खुशियों का डेरा
विश्वासों के / दीपक तले अँधेरा
बीज बचा / रक्खा है हमने
गाढ़े वक़्त अकाल का
हर संध्या / झंझावातों में बीते
स्नेह-प्यार के / सारे घट हैं रीते
संबंधों की /पगडंडी पर
रिश्ता सही कुदाल का

jay prakash shrivastavaजाड़े के सूरज को अँगीठी की उपमा देता कवि दृश्य को सहजता से शब्दित करता है-
एक जलती अँगीठी सा / सूर्य धरकर भेष
ले खड़ा पूरब दिशा में / भोर का सन्देश
कुनकुनी सी धूप / पत्ते पेड़ के उजले
जागकर पंछी / निवाले खोजने निकले
नदी धोकर मुँह खड़ी / तट पर बिखेरे केश

जयप्रकाश मन में उमड़ते भावों को सीधे कागज़ पर उतार देते हैं। वे शिल्ल्प पर अधिक ध्यान नहीं देते। गीतीय मात्रात्मक संतुलन जनित माधुर्य के स्थान पर वे अभिव्यक्ति की सहजता को साधते हैं। फलत:, कहीं-कहीं कविता की अनुभूति देते हैं नवगीत। अँतरे के पश्चात मुखड़े की संतुकान्ति-समभारीय पंक्तिया ही रचनाओं को गीत में सम्मिलित कराती हैं-
संवेदनायें / हुईं खारिज, पड़ी हैं / अर्ज़ियाँ (९-१२-५)
बद से बदतर / हो गये हालात (८-१०)
वेदनाएँ हैं मुखर / चुप हुए ज़ज़्बात (१२-१०)
आश्वासनों की / बाँटी गईं बस / पर्चियाँ (९-९-५)
सोच के आगे / अधिक कुछ भी नहीं (९-१०)
न्याय की फ़ाइल / रुकी है बस वहीं (९-१०)
व्यवस्थाओं ने / बयानों की उड़ाईं / धज्जियाँ (१०-१२-५)
प्रतिष्ठित अपराध / बिक चुकी है शर्म (१०-१०)
हाथ में कानून/ हो रहे दुष्कर्म (१०-१०)
मठाधीशों से / सुरक्षित अब नहीं / मूर्तियाँ (९-१०-५)

स्पष्ट है कि मुखड़ा तथा उसकी आवृत्ति ९-१२-५ = २६ मात्रीय अथवा ५-८-३ के वर्णिक बंधन में आसानी से ढली जा सकती हैं किंतु अभिव्यक्ति को मूल रूप में रख दिया गया है। इस कारण नवगीतों में नादीय पुनरावृत्ति जनित सौंदर्य में न्यूनता स्वाभाविक है।

जयप्रकाश जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य बिना किसी प्रयास के आंग्ल शब्दों का प्रयोग न होना है। केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक होने के नाते उनके कोष में अनेक आंग्ल शब्द हैं किंतु भाषा पर उनका अधिकार उन्हें आंग्ल शब्दों का मुहताज नईं बनाने देता जबकि संस्कृत मूल के शिरा, अवशेष, वातायनों, शतदल, अनुत्तरित, नर्तन, प्रतिमान, उत्पीड़न, यंत्रणाएँ, श्रमफल आदि, देशज बुंदेली के समंदर, मीड़, दीवट, बिचरें, दुराव, दिहाड़ी, तलक, ऊसर आदि और उर्दू के खारिज, अर्जियाँ, बदतर, हालात, ज़ज़्बात, बयानों, बहावों, वज़ीर, ज़मीर, दरख्तों, दुशाले, निवाले, दुश्वारियों, मंज़िल, ज़ख्म, बेनूर, ख्याल. दहलीज़ आदि शब्द वे सहजता से प्रयोग करते हैं। शब्दों को एकवचन से बहुवचन बनाते समय वे ज़ज़्बा – ज़ज़्बात, हालत – हालात में उर्दू व्याकरण का अनुकरण करते हैं तो बयान – बयानों में हिंदी व्याकरण के अनुरूप चलते हैं। काले-गोरे, शह-मात, फूल-पत्ते, अस्त्र-शस्त्र, आड़ी-तिरछी जैसे शब्द युग्म भाषा को सरसता देते हैं।

इस संग्रह के मुद्रण में पथ्य-शुद्धि पर काम ध्यान दिया गया है। फलत: आहूति (आहुति), दर्पन (दर्पण), उपरी (ऊपरी), रुप (रूप), बिचरते (विचरते), खड़ताल (करताल), उँचा (ऊँचा), सोंपकर (सौंपकर), बज़ीर (वज़ीर), झंझाबातों (झंझावातों) जैसी त्रुटियाँ हो गयी हैं।

जयप्रकाश के ये नवगीत आम आदमी के दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति के प्रति प्रतिबद्ध हैं। श्री शिवकुमार अर्चन ने ठीक ही आकलित किया है- इन ‘गीतों की लयात्मक अभिव्यक्ति के वलय में प्रेम, प्रकृति, परिवार, रिश्ते, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक विद्रूप, असंगतियों का कुछ जाना, कुछ अनजाना कोलाज है’।

जयप्रकाश जी पद्य साहित्य में छंदबद्धता से उत्पन्न लय और संप्रेषणीयता से न केवल सुपरिचित है उसे जानते और मानते भी हैं, इसलिए उनके गीतों में छान्दस अनुशासन में शैथिल्य अयाचित नहीं सुविचारित है जिससे गीत में रस-भंग नहीं होता। उनका यह संग्रह उनकी प्रतिबद्धता और रचनाधर्मिता के प्रति आश्वस्त करता है। उनके आगामी संग्रह को पढ़ने की उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
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संपर्कः समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, [email protected]
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[कृति विवरण: परिंदे संवेदना के, गीत-नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, वर्ष २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, जैकेटयुक्त, बहुरंगी, पृष्ठ ७०, मूल्य १५०/-, पहले पहल प्रकाशन, २५ ए प्रेस कॉम्प्लेक्स, भोपाल ०७६१ २५५५७८९, गीतकार संपर्क- आई. सी. ५ सैनिक सोसायटी, शक्ति नगर, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ०७८६९१९३९२७, ईमेल- [email protected]]

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