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भरोसे की जमीन तलाशते पुलिस और नागरिक सबंध..!

भारत में मौजूदा पुलिस तंत्र करीब डेढ़ सौ साल पुराना है और इसकी कार्य संस्कृति में आज भी उसी अंग्रेजी हुकूमत का अक्स दिखाई देता है जिसके सरंक्षण और निर्बाध शासन के लिये इस खाकी सिस्टम को इजाद किया गया था।जाहिर है नए लोककल्याणकारी राज्य में पुलिस के साथ हमारा रिश्ता विश्वसनीयता के धरातल पर आज भी अपनी जमीन नही बना सका है।एक तरह का भय आज भी हर भारतीय के मन और मस्तिष्क में पुलिस को लेकर समाया हुआ है।यह उलटबांसी ही है कि राज्य में हर मोर्चे पर सर्वाधिक सक्रिय हमें पुलिस ही नजर आती है बाबजूद इसके यूपी के 9.4 प्रतिशत और राजस्थान के सिर्फ 6.2 फीसदी लोग ही अपनी पुलिस स्टेशनों की पुलिस को भरोसेमंद मानते है।देश भर के पुलिस तंत्र पर किए गए टाटा ट्रस्ट के एक सर्वेक्षण के नतीजे पुलिस सिस्टम और जनता के मध्य रिश्तों खोखलेपन को उजागर करते है।

हाल ही में डेढ़ सौ साल पुराने पुलिस एक्ट में बदलाव का मसौदा पेश कर चुके गृह मंत्री अमित शाह ने जिस जनोन्मुखी और विश्वसनीय पुलिस तंत्र की आवश्यकता पर जोर दिया है कमोबेश टाटा ट्रस्ट की यह “न्याय रिपोर्ट 2019 ” अमित शाह की चिंता की प्रमाणिकता को ही अभिव्यक्त करता है।देश के चार बड़े राज्य उत्तर प्रदेश,राजस्थान,बंगाल,बिहार में मौजूदा पुलिस तंत्र सत्ता प्रतिष्ठानों के अनिर्णयन से उपजी व्यवस्थागत त्रासदी का शिकार नजर आ रहा है।इन राज्यों में न केवल पुलिस बल की उपलब्धता जनसंख्या अनुपात के लिहाज से असंतुलित है बल्कि जनता औऱ पुलिस के बीच विश्वस्नीयता के पैमाने पर भी आंकड़े चिंताजनक तस्वीर पेश कर रहे है।

गृह मंत्री जिस जनविमुख पुलिस की बात कह रहे है असल मे वह मैदानी हकीकत ही है क्योंकि इस सर्वे में उत्तर प्रदेश,राजस्थान, बिहार ,बंगाल,दिल्ली,हरियाणा सरकार, हिमाचल, पंजाब जैसे बड़े राज्यों के स्थानीय पुलिस तंत्र पर भरोसे के आंकड़े 20 फीसदी भी नही है ।यानी इन राज्यों की 20 फीसदी आबादी भी मैदानी पुलिस को भरोसे के लायक नही मानती है।सबसे बुरी इमेज राजस्थान पुलिस की है जहां महज 6.2फीसदी लोग ही अपनी पुलिस पर मन से भरोसा कर पाते है उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 9.4 है। ये आंकड़े पुलिस स्टेशन के कर्मचारियों कांस्टेबल, हैड कांस्टेबल, ए एस आई,एस आई ,इंस्पेक्टर,स्तर के जनव्यवहार की कहानी कहते है। समझा जा सकता है कि थानों में आम आदमी का सीधा वास्ता इन्ही कर्मचारियों से पड़ता है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के मामले में भी तस्वीर बहुत जनोन्मुखी नही है सर्वे बताता है कि यूपी में 19.6 राजस्थान में 13, महाराष्ट्र में 20.5,असम में 23,नागालैंड में 20,बंगाल में 24,कर्नाटक में 24.6 तमिलनाडु में27.4,गुजरात मे24.6,आंध्र प्रदेश में 28.8तेलंगाना में 28.9 फीसदी लोग ही आला पुलिस अफसरों जिनमें एसपी,एसएसपी,आईजी, डीजीपी पर असंदिग्ध रूप से न्याय औऱ उचित सुनवाई का भरोसा कर पाते है। इस मामले में केरल और बिहार के आईपीएस अफसरों का रिकार्ड सबसे बेहतर आंका गया है।

सवाल यह है कि क्या अखिल भारतीय संवर्ग के पुलिस अधिकारी भी भारत में आम आदमी का भरोसा हासिल करने में नाकाम रहे है? फिलहाल इस सर्वे के नतीजे तो यही साबित करते है।इसलिये गृह मंत्री अमित शाह के इस मूल्यांकन और नए मसौदे की गंभीरता को खारिज किये जाने का कोई आधार नही है कि मौजूदा पुलिस तंत्र आज भी औपनिवेशिक स्वरूप से बाहर नही है। सर्वे बताता है कि पूरे देश मे 100 में से 35 फरियादी व्यक्तियों को ग्रामीण इलाकों में और 19 फीसदी को शहरी क्षेत्र में तो शिकायत के बाद एफआईआर ही नही दी जाती है जबकि यह उसके मौलिक अधिकार की श्रेणी में है संविधान का अनुच्छेद 32 इसके लिये व्यापक प्रावधान करता है।जिस पुलिस को विधि के शासन की स्थापना और आम भारतीयों की सुरक्षा की जबाबदेही है उसमें भ्रष्टाचार का बोलबाला तंत्र को जनता के भरोसे के पैमाने पर कैसे खरा साबित कर सकता है सर्वे के अनुसार पुलिस सम्पर्क में आने वाले 50 फीसदी लोगों ने किसी न किसी स्तर पर रिश्वत दी है।समझा जा सकता है कि हमारी पुलिस सोशल ऑडिट में जनापेक्षाओं पर कितनी खरी उतरती है।

लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी इस सर्वे में कम चिंतनीय नही है हमारी पुलिस को आमोखास के भरोसे पर खरा उतरने की परिस्थितियां सत्ता ने उपलब्ध न कराने का मानों संकल्प ही ले रखा है। सुगम्यकार्य स्थल , लचीली सेवा शर्त,आधुनिक तकनीकी,प्रशिक्षण,नवाचार जैसी बुनियादी सुविधाओं की तरफ शासन स्तर पर किसी का ध्यान नही है।आईपीएस अफसरों की ताकतवर लॉबी भी ईमानदारी के साथ अपने वर्कफोर्स के लिये सुगम्य और सहज कार्य संस्कृति कायम करने के लिये संकल्पित नजर नही आई है जबकि हकीकत यह है कि अगर यह लॉबी ठांन लेती तो आज भारतीय पुलिस का चेहरा अन्य सभी सरकारी महकमों की तुलना में बहुत ही प्रमाणिक और संवेदनशील होता।क्योंकि पुलिस सही मायनों में तो सेना से ज्यादा काम करती है और उसके जवान 24 घण्टे ड्यटी मोड़ में ही रहते है।अन्य सिविल मुलाजिमों की तुलना में पुलिस कर्मियों का वेतन ड्यूटी अनुपात में बेहद कम है।

आईपीएस अफसरों और सरकारों की नाकामी का अंदाजा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि पुलिस आधुनिकीकरण के लिये पिछले पांच बर्षो में उत्तरप्रदेश जैसा राज्य महज 23 फीसदी आबंटित धनराशि ही ख़र्च कर पाया है।राजस्थान महज 3 और तेलंगाना 7 फीसदी ही इस मद में खर्च कर सके।हरियाणा ने जहां 80 फीसदी औऱ नगालैंड ने 100 फीसदी पुलिस आधुनिकीकरण की आबंटित राशि का प्रयोग पिछले पांच साल में किया है। यह राशि केंद्र सरकार द्वारा हर राज्य को उपलब्ध कराई जाती है जिसे पुलिस को संसाधन, तकनीकी,अधोसरंचना, नवाचार पर व्यय करना होती है।हरियाणा और नगालैंड को छोड़ किसी भी अन्य राज्य ने 50 फीसदी भी औसतन इस राशि का उपयोग नही किया। वहीं 14 राज्यों औऱ केंद्र प्रशासित क्षेत्रों में इस राशि का प्रमाणिक हिसाब किताब ही उपलब्ध नही है।

समझा जा सकता है कि हमारे देश की पुलिस को नए जमाने के अनुरूप सामाजिक और सुसंगत बनाने के लिये हमारी सरकारें कितनी फिक्रमंद है।बंगाल जैसे राज्य में आज 2 लाख 32 हजार 896 ग्रामीण आबादी के ऊपर एक पुलिस थाना है यूपी में यह आंकड़ा 151825 ,बिहार में 125977राजस्थान में 110279 ,असम में 132708,दादरा नगर हवेली 183114 है।शहरी आबादी के मामले में सबसे ज्यादा भार गुजरात की पुलिस पर जहां240608 की बड़ी आबादी पर एक ही पुलिस थाना है।केरल में148925 बंगाल में 108152 यूपी में101125 महाराष्ट्र में185468 दादरा नगर हवेली में160195,केरल111352 शहरी आबादी पर एक पुलिस थाना उपलब्ध करा पाए है हम 70 साल में।

बड़े राज्यों में सबसे कम 32881 की शहरी आबादी पर ओडिशा एक थाना उपलब्ध कराने वाला अकेला राज्य है।मेघालय ऐसा राज्य है जहां 852वर्गकिलोमीटर की परिधि में एक ग्रामीण थाना है।यूपी में 228 वर्गकिलोमीटर झारखंड में 241,बिहार में 125,छत्तीसगढ़ में 425,राजस्थान में 719 वर्ग किलोमीटर के दायरे में एक एक ही थाना कानून व्यवस्था को संभाल रहा है।जम्मू कश्मीर में 1842 वर्ग किलोमीटर पर एक पुलिस थाना है क्योंकि यहां सुरक्षा बलों की बड़ी संख्या में तैनाती है। इन थानों की अंदर की कहानी पर नजर डालें तो उतरप्रदेश में इस समय 53 फीसदी कांस्टेबल के पद खाली पड़े है।झारखंड में 31.4बिहार में30.1हरियाणा में 26गुजरात में31.5बंगाल में31.3 पद खाली है।यूपी में उप निरीक्षक से ऊपर के 62.2 पदों पर कोई अधिकारी नही है। इसी तरह झारखंड में44.5बिहार में 38.4हरियाणा में 34.9,छत्तीसगढ़ में 32.5राजस्थान में 30.3ओडिशा में27.4 गुजरात में26.7बंगाल में 26.1,मप्र में 18.8 फीसदी पुलिस अधिकारियों के पद इस समय खाली है।जाहिर है इन बिषम परिस्थितियों और राजनीतिक दबाब के मध्य हमारी डेढ़ सौ साल पुरानी पुलिस के लिये जन अपेक्षाओं पर खरा उतरना कितना दुरूह है।इसलिए नया पुलिस एक्ट ही हमें कुछ राहत दे सकता है।

DR.AJAI KHEMARIYA
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