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पोलोनरुवा- श्रीलंका का सर्वोत्कृष्ठ प्राचीन नगर

मुझे कुछ ही समय पूर्व पोलोनरुवा के विषय में ज्ञात हुआ था कि यह एक विश्व विरासत स्थल है। अतः अपनी श्रीलंका की यात्रा के समय मैंने पोलोनरुवा के दर्शन का भी निश्चय किया। एक विरासती धरोहर होने के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में मुझे और कुछ ज्ञात नहीं था। यहाँ तक कि सम्पूर्ण रास्ते, मैं इसके नाम का उच्चारण भी सही तरह से नहीं कर पा रही थी।

पोलोनरुवा के सम्बन्ध में प्राथमिक जानकारी मुझे प्राप्त हुई कोलम्बो के राष्ट्रीय संग्रहालय द्वारा। यहाँ का एक सम्पूर्ण विभाग श्रीलंका के पोलोनरुवा काल को समर्पित है। यहीं से मुझे शक्तिशाली राजा पराक्रमबाहु एवं पोलोनरुवा की ओर उनके योगदान के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त हुई।

अनुराधापुरा के दर्शन से तृप्त होकर अगले दिन मैंने पोलोनरुवा की ओर प्रस्थान किया। मेरे परिदर्शक ने मुझे अनुराधापुरा एवं पोलोनरुवा के दर्शन एक ही दिन में पूर्ण करने का परामर्श दिया था। लेकिन अनुराधापुरा दर्शन, तत्पश्चात पोलोनरुवा के दर्शनोपरांत मैं इस परिणाम तक पहुंची कि परिदर्शक के परामर्श का पालन ना कर मैंने अत्यंत सूझबूझ का काम किया था। एक दिन में इन दोनों नगरों का गहराई से व पर्याप्त समय दे करअध्ययन मेरे लिए अत्यंत कष्टकर सिद्ध होता। इन दोनों आकर्षक नगरों के दर्शनोपरांत मैंने निष्कर्ष निकाला कि दोनों प्राचीन नगरों में मुझे पोलोनरुवा किंचित अधिक भाया था।

पोलोनरुवा का इतिहास

पोलोनरुवा श्रीलंका की द्वितीय प्राचीन राजधानी रही है। इसकी स्थापना सन् १०७० में राजा विजयबाहु ने की थी। तत्पश्चात १२ वीं शताब्दी के राजा पराक्रमबाहु प्रथम के राज्यकाल में पोलोनरुवा ने दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति की थी। अतः राजा पराक्रमबाहु के सुशासन की छाप यहाँ सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। इनमें प्रमुख है, उनकी सुप्रसिद्ध, पत्थर की आदमकद प्रतिमा जहां उन्हें हल पकड़े दिखाया गया है।

राजा पराक्रमबाहु के कीर्ति की छाप का एक और उदाहरण है पोलोनरुवा नगर के समीप स्थित विशाल मानवनिर्मित तालाब जिसे पराक्रम समुद्र कहा जाता है। सड़क से इस विशाल तालाब का कुछ ही भाग दृष्य है क्योंकि इसका प्रमुख भाग एक पहाड़ी के पीछे स्थित है। कहा जाता है कि पोलोनरुवा अपने उत्कृष्ट कृषि अर्थव्यवस्था के लिए प्रसिद्ध था। साथ ही इसकी प्रगत जल प्रबंधन प्रणाली शोध हेतु श्रेष्ठ विषय हो सकती है। लोक-साहित्यों में लिखा गया है कि पोलोनरुवा में वर्षा की एक बूँद भी नष्ट नहीं होने दी जाती थी। पराक्रमबाहु ने अन्य राज्यों के साथ भी उत्तम व्यापार सम्बन्ध स्थापित किये थे। संक्षेप में, प्राचीन नगर पोलोनरुवा में दृष्य सर्वाधिक संरचनाएं पराक्रमबाहु द्वारा ही निर्मित है। पराक्रमबाहु के सम्बन्ध में और अधिक जानकारी उनके विकिपीडिया पृष्ठ द्वारा प्राप्त कर सकते हैं।

राजा पराक्रमबाहु के पश्चात पोलोनरुवा पर भारत के उड़ीसा से आये राजा निषंकमल्ला ने राज किया। निषंकमल्ला को पराक्रमबाहु शासन के उपरांत, पोलोनरुवा मातृवंशीय विरासत में मिला था। परन्तु निषंकमल्ला एक कुशल एवं अनुभवी शासक नहीं था। उसने स्थानीय सामंतों एवं जमीनदारों को उचित सम्मान प्रदान नहीं किया। फलतः उसके शासन के ९वें वर्ष, विष देकर उसकी हत्या कर दी गयी थी। उसके पुत्र की भी उसी दिन राजतिलक के उपरांत हत्या कर दी गयी थी। तत्पश्चात राजा निषंकमल्ला के भ्राता, उड़ीसा के राजा माघ ने पोलोनरुवा पर धावा बोल दिया। अपने भ्राता एवं भतीजे की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु उसने पोलोनरुवा नगर को तहस-नहस कर दिया था।

राजा निषंकमल्ला के पश्चात पोलोनरुवा पर किसी भी शक्तिशाली राजा का शासन नहीं रहा। आतंरिक मतभेदों एवं झगड़ों के फलस्वरुप शनैः शनैः इस भव्य एवं शक्तिशाली साम्राज्य का पतन हो गया।

पोलोनरुवा एक अत्यंत सुनियोजित नगर था। वर्तमान के प्राचीन अवशेषों को देख सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल के नगरों की योजना अत्यंत व्यवस्थित प्रकार से की जाती थी। पोलोनरुवा नगर स्पष्ट रूप से तीन भागों में बंटा हुआ था।

आतंरिक भाग – नगर का यह भाग विशेषतः राजपरिवार एवं राज्य के उच्चतम अधिकारियों हेतु निहित किया गया था। यहाँ एक भव्य महल एवं एक सभागृह स्थापित थे।
बाहरी भाग – नगर का यह भाग मुझे पोलोनरुवा का अत्यंत सुन्दर भाग प्रतीत हुआ। यहीं भगवान् बुध के पूजनीय दन्त अवशेष रखे गए थे।

बाह्यतम अथवा उत्तरी भाग – पोलोनरुवा के इस भाग में बौध भिक्षुओं एवं सामान्य प्रजा का निवास था। अर्थात् बौध भिक्षु राजसी ठाठ-बाट एवं राजनैतिक शक्तियों से दूर एवं सामान्य प्रजा के समीप स्थित थे। प्रजा भिक्षुओं के भरण पोषण का कर्त्तव्य निभाते थे एवं उनसे ज्ञानार्जन करते थे।

पोलोनरुवा के दक्षिणोत्तम सीमा पर एक पुस्तकालय व राजा पराक्रमबाहु की प्रसिद्ध प्रतिमा की स्थापना की गयी थी।

तालाब के बीचोंबीच राजा का ग्रीष्म ऋतू अवकाश महल स्थापित किया गया था। इस महल में प्रवेश हेतु तालाब के एक छोर पर विशेष प्रवेशद्वार बनाया गया था।

पोलोनरुवा के यह तीन भाग भंगित होने के बावजूद स्पष्ट देखे जा सकते हैं।

पोलोनरुवा एक सुगठित नगर है। वातावरण सुखकर हो तो इसे पैदल चलकर आसानी से देखा जा सकता है। नगर की योजना को समझने के लिए पैदल भ्रमण सर्वोपयुक्त है।

मेरा यह सुझाव है कि टिकट खरीदकर आप इस संग्रहालय का जल्द दर्शन अवश्य करें। पोलोनरुवा के खंडहरों का १२ वीं शताब्दी में मूल स्वरूप कैसा था, यह इस संग्रहालय में सुन्दर प्रतिरूपों द्वारा दर्शाया गया है। जिन स्मारकों का पुनरुद्धार किया गया है, उनके पुनरुद्धार पूर्व एवं बाद के चित्र भी यहाँ रखे गए हैं।

यहाँ रखे तांबे के सिक्कों के एक तरफ राजा की एवं दूसरी तरफ धन के देवता कुबेर का चित्र उत्कीर्णित हैं। कुछ सिक्कों पर देवी लक्ष्मी का भी चित्र उत्कीर्णित है। यहाँ कुछ तांबे की दमड़ियाँ भी रखी हैं।

युद्ध में वीरगति प्राप्त किये योद्धाओं के स्मरण में स्मारिका शिलाखंड भी स्थापित किये गए हैं। एक ओर इन योद्धाओं को अपने आयुधों के साथ एवं दूसरी ओर इन्हें स्वर्ग में देवों के साथ दर्शाया गया है।

राजा निषंक मल्ला का वह घोषणा पत्र, जो इस इस नगर के पतन का कारण सिद्ध हुआ, इस संग्रहालय में आप देख सकते हैं। इस घोषणा पत्र के अनुसार राजा अजेय है एवं प्रजा उसे उसे चुनौती नहीं दे सकती। इसके अनुसार एक किसान केवल खेती करे एवं राजा बनने का प्रयत्न ना करे। अन्य शब्दों में कौआ हंस की चाल ना चले। इस पत्र के अनुसार राजा मानव रूप में देव सदृश है।

इस संग्रहालय द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि श्रीलंका से जवाहरात, हाथी एवं चावल का निर्यात होता था

इस संग्रहालय की एक और ध्यानाकर्षण करने वाली वस्तु थी। वह थी १२ वीं शताब्दी में उपयोग में लाए गए शल्य चिकित्सा के उपकरण। यह उपकरण अत्यंत सुपरिचित एवं आधुनिक प्रतीत हो रहे थे।

पोलोनरुवा का राजमहल अपने स्वर्णिम युग में देखने लायक महल रहा होगा। प्रायः भंगित अवस्था में भी यहाँ दुमंजिली ईंटों की दीवारें देखी जा सकती हैं। इसके ऊपर के पांच मंजिल लकड़ी से बनाए गए थे। दीवारों पर उपस्थित छिद्र संभवतः छत को आधार देते धरणी हेतु बने थे। इन सात मंजिलों के कारण ही इस महल को सतमहल प्रसाद कहा जाता है। इस महल से तालाब एवं पहाड़ों का मनोहारी दृश्य दिखाई पड़ता रहा होगा। यद्यपि महल अतिविशाल नहीं है, तथापि इसकी योजना अत्यंत व्यवस्थित प्रतीत होती है। महल के चारों ओर महल के सेवक एवं दास-दासियों हेतु बने निवास कक्षों के अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं।

शत्रुओं ने जब नगर पर आक्रमण किया था तब उन्होंने इस महल को आग में भस्म कर दिया था। जलने के धब्बे अब भी कुछ ईंटों पर उपस्थित हैं।

मैं इस भंगित महल एवं चारदीवारों के दोनों ओर पगभ्रमण कर इसके स्वर्णिम युग में रही इसकी सुन्दरता को कल्पना में जीवित करने का प्रयास करने लगी। वर्तमान की इस अवस्था को यदि स्वयं राजा पराक्रमबाहु देखते तो अवश्य उनकी आत्मा चीत्कार कर उठती।

पोलोनरुवा का सभा गृह

यह एक ऊंचे मंच पर बनी आयताकार भवन है। वर्तमान की शेष भवन में सर्वाधिक मनोहारी भाग है सभामंडप की ओर जाती सीड़ियाँ। इसके प्रवेशद्वार पर अर्ध चंद्रकार मंडल एवं सीड़ियों के दोनों ओर रक्षक सिंहों की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। मंच की दीवारों पर हाथियों की नक्काशी की गयी है। प्रत्येक हाथी अलग रीति से उत्कीर्णित है।

मंच पर कई स्तम्भ खड़े हैं जो कभी सभामंडप का भार उठाया करते थे। मंच के अंत पर राजा का आसन है जिस पर कभी राजा का सिंहासन रखा जाता था। मंत्रिमंडल के सदस्य मंच के दोनों ओर बैठते थे। इसी सभागृह में राजा एवं मंत्रियों ने कई योजनाएँ बनायी होंगी, कई समस्याएँ सुलझायीं होंगी।

राजसी स्नानगृह के अंतर्गत एक स्नान कुंड एवं समीप ही श्रृंगार गृह होते थे। सीड़ियाँ युक्त यह स्नान कुंड अनुराधापुरा के जुड़वा स्नान कुंडों की तरह ही है। कभी राजपरिवार के सदस्यों ने पुष्प एवं सुगंधी युक्त जल में यहाँ स्नान किया होगा। मुझे विश्वास नहीं होता परन्तु मेरे परिदर्शक का मानना है कि उस काल में यहाँ स्नानार्थ फुहारों की भी व्यवस्था थी।

इस कुंड के अवलोकन हेतु कुछ सीड़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। सीड़ियाँ उतरते समय मैंने यहाँ लाल पक्की मिटटी की ईंटों से जड़े दो कुँए देखे। संभवतः यह पोलोनरुवा के जल निथारन एवं भंडारण का भाग थे।

पोलोनरुवा का बाहरी भाग

इस भाग को ज्यादातर प्रांगण के रूप में जाना जाता है। श्रीलंका के पोलोनरुवा युग में यहाँ भगवान् बुध के पवित्र दन्त अवशेष रखे गए हैं।

थुपराम मंदिर

जब मैंने थुपराम मंदिर के दर्शन किये तब वहां महत्वपूर्ण पुनरुद्धार का कार्य प्रगति पर था। एक संकरी ड्योढ़ी से मैंने अन्दर प्रवेश किया। वहां भगवान् बुध की एक बैठी एवं कई खड़ी प्रतिमाएं हैं जिनकी आराधना अभी भी की जाती है। निरंतर बजते संगीत के सुर श्रद्धालुओं को आनंद का अनुभव कराते रहते हैं।

वतादागे – पोलोनरुवा

वतादागे अर्थात् गोलाकार संरचना श्रीलंका का सर्वाधिक मनोहारी स्थल है। एक गोलाकार ऊंचे मंच के चारों ओर बनी दीवार के चार प्रवेशद्वार चार मुख्य दिशाओं में खुलते हैं। प्रवेशद्वार के ऊपर एक खुले प्रांगन में बुध की प्रतिमा स्थापित है। यहाँ भी सीड़ियों पर सिंहमुख की आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। अन्य स्मारकों की तरह प्रवेशद्वार पर अर्ध चंद्रकार मंडल एवं दोनों ओर रक्षक प्रतिमाएं स्थापित हैं।

मैंने सर्वप्रथम इस गोलाकार स्मारक की बाह्य परिक्रमा की। तत्पश्चात ऊपर चढ़कर भीतर का भ्रमण किया। सौभाग्यवश उसी समय कुछ भिक्षुक वहां प्रार्थनार्थ उपस्थित हो गए। उनके मंत्रोच्चारणों से सारा वातावरण एवं भंगित भवन भी मानो जागृत हो गए। इस वातावरण ने मेरे एक विचार को और दृडता प्रदान की कि वातावरण भक्तों एवं उनकी भक्ति द्वारा ही भक्तिमय होता है।

अपने स्वर्णिम युग में इस मंदिर की भव्यता का अनुमान संग्रहालय में रखे इसके प्रतिरूप द्वारा लगाया जा सकता है।

निषंक लता मंडप

यहाँ एक छोटे मंच पर कई स्तंभ खड़े है जो सपाट न होकर लता की तरह उत्कीर्णित हैं एवं कमल के डंठल की तरह दिखाई पड़ते हैं। ऐसे अद्भुत स्तंभ मैंने इसके पूर्व कहीं नहीं देखे। अभूतपूर्ण लालित्य का अद्भुत उदाहरण है यह स्तंभ।

जैसा कि इसके नाम से विदित है, इसका निर्माण राजा निषंक मल्ला ने करवाया था। संभवतः उन्होंने इसकी स्थापना अपने निजी ध्यानकक्ष के रूप में करवाई थी। इस पवित्र कक्ष के मध्य एक दगाबा अर्थात् स्तूप स्थापित है। कमल के डंठल सदृश स्तंभों एवं स्तूप को श्वेत एवं गुलाबी रंग में रंग कर अपनी कल्पना के विश्व में खो गयी। ऐसा प्रतीत होने लगा मानो राजा कमल के तालाब में बैठकर ध्यान कर रहे हों।

मैं सोच में पड़ गयी कि इस अद्भुत लालित्य भरी वास्तु को हम आधुनिक शिल्पकला में क्यों आत्मसात नहीं करते।

हतादागे

वतादागे के ठीक सामने हतादागे निर्मित है जहां पवित्र दन्त अवशेष रखे बुद्ध का मंदिर स्थापित है। इसकी स्थापना पोलोनरुवा के प्रथम राजा विजयबाहु ने करवाई थी। परन्तु वर्तमान में यहाँ केवल कुछ स्तंभ, आधार एवं एक बुद्ध की प्रतिमा शेष है।

यह पोलोनरुवा के पवित्र प्रांगण का सर्वाधिक अचरजकारी भाग है। एक पत्थर की बनी पुस्तक! असल में यह पत्थर के फलक पर लिखा एक लम्बा अभिलेख है। तथापि दूर से यह एक विशाल पुस्तक प्रतीत होती है।

गाल पोथा अथवा पाषाणी पुस्तक

इस पाषाणी पुस्तक के समीप रखे सूचना फलक पर इस अभिलेख की व्याख्या की गयी है। कहा जाता है कि इस पाषाणी फलक को पोलोनरुवा से लगभग १००कि.मी. दूरी पर स्थित मिहिन्तले से लायी गयी थी। इस अभिलेख में कलिंग मूल के राजा विजयबाहु एवं उनके राजा बनने की गाथा कही गयी है। इस अभिलेख में यह भी उल्लेखनीय है कि किस तरह राजा विजयबाहु ने करों व कर की दरों को भी कम करवाया था। खेत की जल टंकी से दूरी के अनुपात में कर को कम किया जाता था। अद्भुत!

इस अभिलेख में राजा के गुणों का गान किया है। वे प्रत्येक दिवस अपने, अपनी पत्नियों एवं पुत्र-पुत्रियों के वजन के बराबर दान करते थे। उन्होंने कई स्तूपों का जीर्णोधार करवाया एवं कई नवीन संरचनाएं भी निर्मित करवायीं। उन्होंने रामेश्वरम में भी देउल अथवा मंदिर का निर्माण करवाया था। इस अभिलेख में यह भी लिखा है कि राजा के कई राज्यों से मित्रवत संधी थी।

अंत में यह लिखा है कि श्रीलंका के सिंहासन के खरे उत्तराधिकारी कलिंग ही थे। इसी कारण गैर-बौद्ध राजा चोल एवं पंड्या कभी भी श्रीलंका में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सके।

संभवतः यह राजा निषंक मल्ला की ओर से पोलोनरुवा के भावी राजाओं को सलाह थी। लगता है इस सलाह को शीघ्र ही भुला दिया गया।

सतमहल प्रासाद

प्रांगण के एक कोने में एक सुन्दर शुण्डाकार संरचना थी। साहित्यों के अनुसार किसी काल यह एक सुशोभित प्रासाद था। सातमंजिली भंगित संरचना के सातों घटते-क्षेत्रफल की मंजिलें अभी भी स्पष्ट देखी जा सकती हैं।

कई सदियों पूर्व निर्मित यह संरचना संभवतः श्रीलंका के प्राचीनतम संरचनाओं में से एक है। यह सीड़ी युक्त अनोखा स्तूप है जो संभवतः कलिंग को ज्ञात मिस्र के पिरामिड अथवा ऐसी ही किसी संरचना से प्रेरित प्रतीत होते हैं।

पोलोनरुवा का उत्तरी भाग
पोलोनरुवा के इस भाग में हाट, अस्पताल, समाधिस्थल, बौद्ध मठ एवं सामान्य प्रजा द्वारा निर्मित संरचनाओं के अवशेष हैं। पोलोनरुवा नगर को घेरे कई गाँव थे जहां सामान्य प्रजा निवास करती थी। विशालतम मठों में से एक मठ समाधिस्थल की धरती पर ही बनायी गयी है।

रण कोट विहार – पोलोनरुवा
ईंटों द्वारा बनाया गया सुनहरे शीर्ष का यह दगाबा अर्थात् स्तूप, निषंक मल्ला द्वारा पोलोनरुवा में बनवाये गए स्तूपों में से विशालतम स्तूप है। अभिलेखों के अनुसार इसे रुवंवेली कहा जाता है। सिंहली भाषा में रण शब्द का अर्थ है सुनहरा।

गाल विहार
गाल विहार में विशाल पत्थर की पहाड़ी काटकर बुद्ध की कई प्रतिमाएं नक्काशी गयी हैं। यह प्रतिमाएं अफगानिस्तान में नष्ट की गयी बहमनी बुद्ध की प्रतिमाओं से समानता रखती हैं।

इनमें से तीन प्रतिमाएं पहाड़ी की बाहरी सतह पर हैं व एक को सुरक्षित प्रतिष्ठापित किया गया है।

दूसरी प्रतिमा भी इसी मुद्रा में है परन्तु यह सुरक्षित प्रतिष्ठापित की गयी है। अर्थात् इस प्रतिमा के ऊपर पहाड़ काटकर एक छत्र उत्कीर्णित किया गया है। पृष्ठ भाग पर प्रभामंडल भी नक्काशा गया है। प्रतिमा के दोनों ओर दो छोटी प्रतिमाएं हैं। यह प्रतिमा परम ज्ञान प्राप्त बुद्ध की है। संभवतः इसीलिए उन्हें मंदिर के भीतर प्रतिष्ठापित किया गया है। इस मंदिर की दीवारों पर रंगे कुछ चित्रों के अवशेष अब भी शेष हैं। मेरा अनुमान है कि पोलोनरुवा युग में इन सारी प्रतिमाओं पर चटक रंग लगाया गया हो। इस मंदिर को विद्याधर गुहा भी कहा जाता है।

बुद्ध की तीसरी प्रतिमा खड़ी अवस्था में विचारमग्न मुद्रा में बनायी गयी है। उलटे कमल पर खड़ी इस प्रतिमा के विषय में कुछ लोगों का मानना है कि यह बुद्ध की प्रतिमा ना होकर आनंद नामक एक बौद्ध भिक्षु की प्रतिमा है। वहीं कुछ लोग इसे, बोधिवृक्ष की ओर कृतज्ञता से निहारते भगवान् बुद्ध की प्रतिमा मानते हैं।

अंतिम प्रतिमा ४५ फीट लम्बी विशालतम प्रतिमा है। यह लेटी हुई अवस्था में महापरिनिर्वाण स्थिति में पहाड़ काटकर नक्काशी गयी है। इसी मुद्रा में भगवान् बुद्ध ने अपने शरीर का त्याग किया था। इस प्रतिमा की यह विशेषता है कि यह पत्थर में बनी एशिया की विशालतम प्रतिमा है।

अचम्भा होता है कैसे नगर से दूर, पहाड़ों को काटकर इतनी अप्रतिम प्रतिमाएं बनायी गयी होंगी! इतनी ही प्रतिमाएं बनायी होंगी या कुछ प्रतिमाएं सम्पूर्ण नष्ट हो गयी हैं।

कुल मिलाकर इन्हें उत्तर रामा अर्थात् उत्तरी मठ कहा जाता है।

राजसी नगर के ३ कि मी दक्षिण में पोथ्गल विहार है। यहाँ कच्चे रास्ते से होते हुए आप राजा महापराक्रमबाहु प्रथम की प्रतिमा पर पहुँचते हैं। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार यह आदमकद की पाषाणी प्रतिमा राजा की है, जिसमे राजा के हाथ में हल है। हालाँकि, इस तथ्य की पुष्टि के लिए कोई शिलालेख या अन्य प्रमाण नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता ही राजा किसी खेती से जुड़े संस्कार की अगवाई कर रहे हैं।

महापराक्रमबाहु की प्रतिमा से कुछ ही मीटर दक्षिण की ओर एक मनोहारी भवन है। इसके मध्य में एक गोलाकार कक्ष है। यह एक प्राचीन पुस्तकालय था। मुझे स्वयं पुस्तकों से अत्यंत प्रेम है। जैसे ही मुझे इसके एक प्राचीन पुस्तकालय होने का पता चला है, मैं अपने चारों ओर हस्तलिखित पांडुलिपियों की कल्पना करने लगी। मैं ह्रदय से यह कामना करने लगी कि सर्व पांडुलिपियाँ आग में राख ना हुई हों और कुछ अब भी कहीं सुरक्षित रखी गयी हों।

इस विहार के चारों ओर कई मठ सदृश भवन थे जिनमें अधिकाँश के केवल नींव ही शेष हैं।

एक पुस्तक प्रेमी होने के नाते यहाँ भी मुझे वही घबराहट की अनुभूति हुई जो मुझे नालंदा में हुई थी जहां की पुस्तकें भी कई दिनों तक जलती रही थीं।

सम्पूर्ण पोलोनरुवा में आपको हर ओर हिन्दू मंदिरों के दर्शन प्राप्त होते हैं। विशेष रूप से इनमें कई मंदिर भगवान् शिव को समर्पित हैं, जिनमें शिवलिंग स्थापित हैं। यहाँ इन्हें शिव देउल कहा जाता है। इन मंदिरों के मूल नाम लुप्त हो गए हैं। अतः इन्हें संख्याओं से जाना जाता है। इनमे कुछ हैं-

शिव देवालय – पोलोनरुवा, श्री लंका

पोलोनरुवा के आतंरिक भाग की सीमा पर स्थित इस देउल में कई पीतल की प्रतिमाएं थीं जिन्हें अब कोलम्बो संग्रहालय एवं पोलोनरुवा के ही पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।
पवित्र प्रांगण की सीमा पर कई हिन्दू मंदिरों के अवशेष हैं। यहाँ केवल गर्भगृह एवं उसके मध्य शिवलिंग, केवल यही शेष है।

विष्णु देउल – पोलोनरुवा में मुझे केवल यही विष्णु का मंदिर दृष्टिगोचर हुआ जो शिव देउल क्र. २ के एक पास स्थित है। शिव मंदिर के सामान निर्मित इस मंदिर के भीतर शिवलिंग के स्थान पर भगवान् विष्णु की आदमकद प्रतिमा स्थापित है।

पोलोनरुवा के भिन्न भिन्न हिन्दू मंदिर

इसी मार्ग पर आगे जाकर मुझे एक और शिव मंदिर के दर्शन हुए, किन्तु इसका क्रमांक मुझे ज्ञात नहीं हो सका.

मेरे अनुमान से यहाँ और भी कई देउल हैं, जिनके दर्शन हेतु कदाचित मुझे एक और यात्रा का संजोग प्राप्त करना पड़ेगा।

पोलोनरुवा यात्रा हेतु कुछ सुझाव

पोलोनरुवा के स्मारकों के दर्शन हेतु टिकट केवल पुरातत्व संग्रहालय में ही उपलब्ध हैं। अतः आपका पहला पड़ाव यहीं रहेगा। इस संस्मरण को लिखते समय विदेशी पर्यटकों के लिए शुल्क २५ डॉलर था।

पोतगल विहार एवं पराक्रमबाहु प्रतिमा के दर्शनों हेतु प्रवेश शुल्क नहीं है।

पोलोनरुवा के स्मारक चूंकि पाषाणी हैं, यह पत्थर प्रातः ११ बजे तक अत्यंत गर्म हो जाते हैं। अतः इनके दर्शन प्रातः ११ बजे से पूर्व अथवा दोपहर के पश्चात ही करें। पांवों में मोटी जुराबें कदाचित आपकी असुविधा कुछ कम कर सकें।

संग्रहालय के सिवाय अन्य स्मारकों पर छायाचित्रिकरण की अनुमति है।

पोलोनरुवा के दर्शनों हेतु सर्वोत्तम साधन सायकल है। अपितु आप पैदल एवं टुकटुक के मिलेजुले साधन द्वारा भी इसके दर्शन कर सकते हैं।

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अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

साभार- https://www.inditales.com/hindi/ से