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राज ठाकरे की अयोध्या यात्रा व भाजपा सांसद वृजभूषण सिंह के विरोध का संभावित परिणाम

राजनीतिक वनवास काट रहे राज ठाकरे पिछले कुछ दिनों से मीडिया की सुर्खियों में आ गए हैं। अजान के विरुद्ध आवाज उठाते हुए राज ठाकरे अपने चाचा बाल ठाकरे की हिंदुत्व को विचारधारा को अपना हथियार बना महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार पर नित्य हमला कर रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने अयोध्या आकर रामलला के दर्शन करने की घोषणा कर चुके हैं।
इधर गोंडा से भाजपा सांसद वृजभूषन शरण सिंह अयोध्या में राज ठाकरे के आगमन का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने राज ठाकरे के समर्थकों द्वारा महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर किए गए अभद्रता को मुद्दा बनाते हुए राज ठाकरे को माफी मांगने की बात कही है।

क्या यह विरोध किसी राजनीतिक कूटनीति का हिस्सा है? क्या इसका संबन्ध महाराष्ट्र को लेकर भाजपा की कोई नीति है अथवा यह विरोध वृजभूषन शरण सिंह के अकेले का विरोध है।
राज ठाकरे की इस अयोध्या यात्रा व इसके विरोध का प्रतिफल तीन परिणाम दे सकता है जिन पर विचार करना आवश्यक है।

प्रथम राज ठाकरे का उत्तर प्रदेश में विरोध उन्हें मराठियों के करीब ले जाएगा जिसके परिणामस्वरूप शिवसेना गठबंधन को नुकसान पहुंचा सकता है?

द्वितीय यदि महाराष्ट्र चुनाव में क्षेत्रवाद की आंधी उठी तो बीजेपी को इसका नुकसान हो सकता है?

तृतीय राज ठाकरे के विरोध से वृजभूषण सिंह को फायदा होगा या नुकसान?

महाराष्ट्र जैसे राज्य में जहाँ क्षेत्रवाद 60 के दशक से ही सामाजिक मुद्दा रहा है और बाल ठाकरे की राजनीति के प्रथम चरण का अहम हथियार रहा है वहाँ क्षेत्रवाद का मुद्दा उठना तय है। यह सोचना भी गलत है कि महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों में क्षेत्रवाद का मुद्दा नहीं उठेगा। राज्य चुनावों में क्षेत्रवाद जीत की गारंटी है।

पिछले कुछ वर्षों की बात की जाए तो विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के चुनावी प्रबंधन का यह एक अहम हिस्सा रहा है। बाहरी बनाम भीतरी के मुद्दों पर ही 2015 में बिहार में नीतीश लालू की जीत हुई। 2017 में यूपी के लड़के नारा दिया। 2020 में दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग (यधपि यह कारगर साबित नहीं हुआ) हो या फिर बंगाल में बाहरी का मुद्दा।
अतः महाराष्ट्र में भी क्षेत्रवाद का मुद्दा उठना तय है जितना कि शिवसेना का चुनाव लड़ना।

अब पुनः प्रथम संभावित परिणाम पर लौटें तो क्या उत्तर प्रदेश में राज ठाकरे का विरोध उन्हें मराठियों का अपना मानुष साबित कर पाएगा, ये देखना होगा।

वर्तमान में महाराष्ट्र में क्षेत्रीय पार्टियां यानी एनसीपी और शिवसेना का गठबंधन है। इन दोनों ही दलों की ताकत उनका लोकल यानी मराठी नेताओं की पार्टी होना।
राज ठाकरे का यूपी में विरोध उन्हें मराठी भावना से जोड़ने में सहायक हो सकता है। और राज ठाकरे अपने इस विरोध को मराठी अस्मिता से जोड़ने में सफल हो जाते हैं तो मराठी भावना के वोटर जो अब तक महाविकाश गठबंधन की जागीर बन गए है उसमें फुट डालने में सफल हो जाएंगे।

वो कितना सफल होते हैं ये देखना शेष है।

यह भी सत्य है कि मराठी अस्मिता के नाम पर उत्तर भारतीयों का विरोध करने के बाद भी राज ठाकरे कभी उभर नहीं पाए और लगातार उनकी राजनीतिक हैसियत खत्म होती चली गई। ऐसे में क्या राज ठाकरे खुद को मराठी नेता के रूप में स्थापित कर पाएंगे यह प्रश्न राजनीतिक विचारकों के मन में बार बार आना स्वभाविक है।

दूसरी स्थिति में क्या राज ठाकरे का विरोध भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है?

आज की स्थिति के अनुसार महाराष्ट्र अस्मिता को राजनीतिक मुद्दा मानने वालों की बड़ी संख्या भाजपा के साथ न होकर शिवसेना एनसीपी गठबंधन के साथ ही है। इसका एक बड़ा कारण महाराष्ट्र में भाजपा कोई बड़े चेहरे का न होना है। यधपि संघ का उद्गम स्थल व मुख्यालय महाराष्ट्र में है किन्तु यह भी सत्य है कि स्थापना से लेकर अब तक भाजपा नागपुर लोकसभा क्षेत्र से जितने में भी कई बार असफल रही है। भाजपा राष्ट्रीय पार्टी है। इनकी विचारधारा क्षेत्रवाद की नहीं है। यही इनकी ताकत भी है एवं गैर हिंदी क्षेत्रों में इसके विस्तार में यह विचारधारा वर्षों तक बाधक भी रही है। अतः यदि राज ठाकरे मराठी अस्मिता को मुद्दा बनाने में सफल हो जाते हैं तो शिवसेना एनसीपी गठबंधन इसे भाजपा के खिलाफ हथियार बना सकती है क्योंकि वर्तमान भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में नरेंद्र मोदी व अमित शाह हैं।

ये दोनों ही गुजरात से आते हैं और महाराष्ट्र बनाम गुजरात एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है। किंतु यह भी देखना आवश्यक है कि नरेंद्र मोदी आज एक वैश्विक नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं। इनकी छवि विकास पसंद, राष्ट्रवादी व हिंदुत्व के प्रहरी वाली है। इस छवि को नुकसान पहुंचाने की क्षमता वर्तमान में किसी विपक्षी नेता की नहीं है। वहीं पालघर में साधुओं की निर्मम हत्या, भ्रष्टाचार व मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपी में घिरी उद्धव सरकार अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। जनता बदलाव चाहती है। पराजित होने के बाद भी देवेंद्र फडणवीस की सक्रियता व उद्धव ठाकरे का सत्ता के लिए विचारों से समझौता बड़ा मुद्दा बन सकता है इन परिस्थियों में भाजपा को लाभ मिलने की प्रबल संभावना है। किंतु क्षेतेवाद की आंधी में भाजपा को नुकसान नहीं होगा यह कहना भी गलत होगा।

राज ठाकरे का उत्तर प्रदेश में विरोध को यदि राज ठाकरे भुनाने में सफल हो जाते हैं और मराठी वोट में सेंध लगाने में सफल हो जाते है तो इसका फायदा भाजपा को हो सकता है। कितना होगा यह काल के गर्भ है। यहाँ यह भी विचार करना आवश्यक है कि क्या राज ठाकरे अपने साथ आए मराठी भावना को कितने दिनों तक बांध कर रख पाएंगे? और क्या उनके संगठन में इतनी क्षमता है कि अपने साथ आए मराठी जनमानस को वोट में बदलने में सफल हो पाएंगे?

मीडिया व सोशल मीडिया की लोकप्रियता जीत की गारंटी नहीं होती। आभासी दुनिया की चर्चा नेता को लोकप्रियता तो दिलवा सकती है किंतु उसे जमीनी नेता भी बना दे यह कहना कठिन है। जीत के लिए संगठन का मजबूत होना भी आवश्यक है जिसमे राज ठाकरे कमजोर प्रतीत हो रहे हैं।

तृतीय स्थिति में क्या इस विरोध से भाजपा सांसद वृजभूषण शरण सिंह को फायदा होगा या नुकसान?
यदि वृजभूषण सिंह की यह प्रतिक्रिया किसी योजना का हिस्सा है अथवा यदि यह इनका व्यक्तिगत फैसला है तो दोनों ही स्थिति में इन्हें व्यक्तिगत फायदा होता नहीं दिख रहा। इस विरोध के बाद वृजभूषन सिंह पर क्षेत्रवाद आधारित राजनीतिज्ञ होने का ठप्पा लग गया है जबकि वे राष्ट्रीय दल के सांसद हैं जिसकी विचारधारा राष्ट्रवाद की है। ऐसे में भाजपा इन्हें बड़ी जिम्मेवारी नहीं देगी। दूसरी स्थिति में यदि महाराष्ट्र में क्षेतेवाद की आंधी का फायदा शिवसेना गठबंधन को हो जाता है जिसकी संभावना कम ही है तो इस हार का ठीकरा वृजभूषन सिंह के माथे पर ही फूटेगा।

परिणाम जो भी हो किंतु वर्तमान स्थिति में राज ठाकरे महाराष्ट्र सरकार के लिए एक चुनौती बन गए हैं। उद्धव ठाकरे व शरद पवार की चिंता बढ़ा रहे हैं। राज उन्हीं मुद्दों को उठा रहे हैं जिनसे महाराष्ट्र सरकार ने दूरी बना ली है। आगामी मुंबई नगर निगम चुनाव में राज ठाकरे शिवसेना की हार का बड़ा कारण सिद्ध हो सकते हैं।

यह चुनाव राज ठाकरे की भी परीक्षा की घड़ी है। अब तक राज ठाकरे की छवि एक उग्र नेता की रही है या साधारण शब्दों में कहा जाए तो राज ठाकरे की बिना संगठन- संसाधनों के योद्धा है। इन्हें चाहिए कि अपनी छवि सुधार कर मीडिया व सोशल मीडिया की लोकप्रियता को नजरअंदाज करते हुए खुद को जमीनी नेता के रूप में स्थापित करें व अपने संगठन का विस्तार करें।