Friday, March 29, 2024
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प्रकृति, वन्यजीव एवं पुरातत्व का धनी प्रतापगढ

प्रतापगढ़ अरावली पर्वतमाओं एवं मालवा के पठार के संधि स्थल पर स्थित प्राकृतिक एवं पुरातत्व संपदा का धनी, आदिवासी संस्कृति का परिवेश एवं वन्य जीवन की विशेषताओं वाला जिला हैै। प्रतापगढ़ 26 जनवरी 2008 को चित्तौड़ड़गढ़, उदयपुर एवं बांसवाड़ा जिलों के क्षेत्रों को कम कर नये 33वें जिले के रूप में अस्तित्व में आया। जिले में प्रतापगढ़, छोटी सादड़ी, अरनोद, पीपलखूॅट एवं धरियावद प्रमुख स्थल हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से महाराणा सूरजमल के वंशज महारावत प्रतापसिंह ने 1689-1699 में देवगढ़ से थोड़ी दूर, एक नया नगर प्रतापगढ़ बसाया था। इतिहासकार पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा (1863 1947) के अनुसार प्रतापगढ़ का सूर्यवंशीय राजपूत राजपरिवार का मेवाड़ के गुहिल वंश की सिसोदिया शाखा से संबंध रहा है। महाराणा कुम्भा के चचेरे भाई क्षेम सिंह, क्षेमकर्ण से उनका संपत्ति संबंधी विवाद हो गया था। नाराज महाराणा कुम्भा ने उन्हें चित्तौड़गढ़ से ही निर्वासित कर दिया।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि क्षेमकर्ण घरेलू-युद्ध टालने की गरज से चित्तौड़गढ़ को अलविदा कह आए थे। उनका परिवार मेवाड़ के दक्षिणी पर्वतीय इलाकों में कुछ समय तक तो लगभग विस्थापित सा रहा। क्षेमकर्ण ने सन 1437 ईस्वी में मेवाड़ के दक्षिणी भूभाग, देवलिया आदि गांवों को तलवार के बल पर जीत कर अपना नया राज्य स्थापित किया था। प्रताप सिंह महारावत ने सन 1699 में प्रतापगढ़ का निर्माण करवाया था। प्रतापगढ़ की थेवा कला आज पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी प्रसिद्ध है। यह मीनाकारी की कला है। अरणोद के समीप गौतमेश्वर आदिवासी तीर्थ है। छोटी सादड़ी में भंवर माता शक्तिपीठ, अम्बा माता, कमलेश्वर महादेव, गुप्तेश्वर मंदिर आदि प्रमुख आस्था स्थल हैं।आदिवासी संस्कृति पर मध्य प्रदेश एवं राजस्थान का प्रभाव देखने को मिलता है।

प्रतापगढ़
प्रताप सिंह महारावत ने सन 1699 में प्रतापगढ़ का निर्माण करवाया था सलिम सिंह ने 1758 ई. में इसके चारों तरफ कोट बनवाया जिसमें सूरजपोल, भाटपुरा, बारी, देवलिया एवम धमोतर नामक दरवाजे बनवाये। नगर की चारदीवारी के पश्चिम में महल एवं बाहर की ओर किला बनवाये। किले के सामने स्थित उदय विलास महल महारावल उदयसिंह ने बनवाया। इन्होंने नगर के बाहर केंम कोठी बनवाई जिसे स्थानीय बोली में कंपू कहा जाता है।

महारावल रामसिंह ने इसमें सुंदर बाग बनवाया। वे पुराने महलों को छोड़ कर यहां निवास करने लगे। प्रतापगढ़ शहर में किला दीपेश्वरतालाब, दीपनाथ महादेव मंदिर,प्राकृतिक आच्छादित गुप्त गंगा, शंखेश्वर पार्श्वनाथ मंदिर, चारों दरवाजे, राजीव गांधी वुडलैंड पार्क, पुराना किला, राजघराने विजय राघव मंदिर, बाणमाता मंदिर, निकटवर्ती अवलेश्वर के अंकलेश्वर महादेव, मोखमपुरा सूर्य तालाब भैरु मंदिर, नगर में छोटी माजी साहब का किला,चारभुजा मंदिर, शनि महाराज का मंदिर,बावडी और कुंड, राधा कृष्ण मंदिर, कालका माता मंदिर, गोवेर्धन नाथ का मंदिर आदि अनेक मंदिर दर्शनीय हैं। प्रतापगढ़ में रविवार को आयोजित साप्ताहिक हाट बाजार में आसपास के गांवों से बड़ी संख्या में आदिवासी खरीददारी के लिए आते हैं। यह दिन आदिवासियों और उनकी संस्कृति को नजदीक से देखने की दृष्टि से महत्वपूर्ण अवसर है।

देवगढ़ किला
देवगढ़ किले में अधिकांश शोध करने वाले स्टूडेंट आते हैं। क्षेमकर्ण के पुत्र महाराणा कुम्भा के भतीजे महाराणा सूरजमल ने 1514 ईस्वी में देवगढ़ ( देवलिया) ग्राम में अपना स्थाई ठिकाना बनाते हुए नए राज्य का विस्तार किया। चारों ओर पहाड़ियां होने से इस स्थान का सामरिक महत्व था। रावत रघुनाथ सिंह ने महलों की मरम्मत कराई और यहां रहने लगा। देवगढ़ किला प्रतापगढ से 15 किलोमीटर दूर है। एक पुराना राजमहल, भूतपूर्व-राजघराने के स्मारक (छतरियां), तालाब, बावड़ियां, मंदिर हैं। बीजमाता, भगवान मल्लिनाथ मंदिर और राम-दरबार मंदिर (रघुनाथ द्वारा) भी है। जहां राम और लक्ष्मण को मूर्तिकार ने बड़ी-बड़ी राजस्थानी मूंछों में दिखाया है। इसी मंदिर की छत पर संगमरमर की धूप घड़ी भी है। पहाड़ी पर बना देवाक माता मंदिर है। यहां महारावल दलपत सिंह द्वारा बनाया गया सोनेला तालाब एवम इसके एक छोटा महल है ,जिसकी उसने 1847 ई.में प्रतिष्ठा की थी। यहां अनेक शैव, वैष्णव एवम जैन मंदिर दर्शनीय हैं।

गौतमेश्वर महादेव
प्रतापगढ़से 17 किमी दूर स्थित अरणोद से 3 किमी. पर स्थित गोमतेश्वर महादेव जिले का प्रमुख तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल है। पहाड़ों के बीच बने मंदिर में पहाड़ मंदिर के ऊपर छज्जे के रूप में नजर आता है। पहाड़ के ऊपर तालाब से जल झरने की भांति मंदिर के जल कुंड में गिरता है। मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह प्रदेश मांडू के सुल्तान नासिरशाह के अधीन था और खान आलम मकबल यहां का शासक था। उसके समय लगने वाले यात्री कर से शाह जैचंद ने मुक्त कराया था।

आदिवासियों का हरिद्वार कहे जाने वाले गौतमेश्वर महादेव मंदिर तीर्थ पर प्रति वर्ष बैशाख पूर्णिमा के अवसर पर तीन दिवसीय मेला भरता है। मेले में बड़ी संख्या में आसपास के जिलों एवम पड़ोसी राज्यों से आदिवासी आते हैं। मान्यता है कि यहां गौतम ऋषि ने तपस्या की थी। आदिवासी गौमतेश्वर महादेव के चमत्कारिक शिवलिंग के श्रद्धापूर्वक दर्शन करते है। वे अपने दिवंगत परिजनों की अस्थियां विसर्जन भी करते हैं और उनकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करते हैं इसके अलावा शोली हनुमान मंदिर, निनोर की पद्मावती माता मंदिर, खेरोट का नीलकंठ महादेव मंदिर दर्शनीय स्थल है।

जानागढ़
यह किला प्रतापगढ़ से 16 किमी.दूर दक्षिण-पश्चिम पहाड़ी पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण जान आमाल नामक मुसलमान ने करवाया था। किले के समीप कभी भीलों की बस्ती थी। गौमतेश्वर से प्राप्त एक 1505 ई. के शिलालेख के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि जान आलम का वास्तविक नाम मकबल खान था जो मालवा के मुस्लिम शासक की ओर से यहां शासन करता था।

घोटारसी
घोटारसी, प्रतापगढ़ से 15 किमी.दूरी पर स्थित एक प्राचीन नगर है। पुरातत्व की दृस्टि से यह महत्वपूर्ण स्थल है। यहाँ कई मंदिरों के खंडहर निकले हैं। यहां कभी समृद्ध नगर होने का अनुमान लगया गया है। यहां एक भैरू मंदिर है जिसका निचला भाग खुदाई में निकला एवम ऊपरी भाग का जीर्णोद्धार करवाया गया है। इस मंदिर के कई भागों के पाषाण अवशेष प्राप्त हुए हैं। एक तालाब की पाल पर मिले धार्मिक प्रतीकों ,नवग्रह आदि की प्रतिमाओं के मिलने से अनुमान है कि तालाब के किनारे पर कई मंदिर बने होंगे। यहां एक सूर्य मंदिर होने के प्रमाण भी मिले हैं जिसकी प्रशस्ति को अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित रख्खा गया है। यहां के नजदीक गांव विरमण्डल के मंदिर में सूर्य मंदिर के पत्थरों को लगाया गया है। प्रतापगढ़ से 11 किमी. पर खेरोट एवं 16 किमी. पर वीरपुर गांवों में भी पुरात्तव महत्व की सामग्री प्राप्त हुई है।

छोटीसादड़ी
प्रतापगढ से 48 किमी दूर स्थित छोटी सादड़ी में भंवरमाता मंदिर जल प्रपात को देखने के लिए सबसे ज्यादा देशी पर्यटक बारिश के सीजन में नवरात्रा में आते हैं। जल प्रपात चालू रहता है तब प्रतिदिन करीब 1 से 2 हजार पर्यटक आते हैं। वैसे मंदिर में प्रतिदिन श्रद्धालु आते हैं। मन्दिर का निर्माण करीब 1250 साल पहले श्मान्वायनी-गोत्र के एक राजा गौरी ने करवाया था, जैसी कि उसके तत्कालीन राजकवि सोम द्वारा उत्कीर्ण करवाए गए शिलालेख से जानकारी मिलती है। यहां ऊंची-ऊंची कठोर चट्टानों के बीच, खास तौर पर बरसात की ऋतु में लगभग सत्तर-अस्सी फुट की ऊंचाई से एक प्राकृतिक झरना गिरता है जो आकर्षण का केंद्र होता है।

सीतामाता अभयारण्य
सीतामाता अभयारण्य चित्तौड़गढ़ जिले की बड़ी सादड़ी और प्रतापगढ़ जिले की छोटी सादड़ी, प्रतापगढ़ तथा धरियावद तहसीलों में करीब 400 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में स्थित है। अभयारण्य दुर्लभ उड़न गिलहरी के लिए प्रसिद्ध है जो रात्रि में उड़ती है। आजादी से पूर्व यह क्षेत्र बाध बधेरों एवं चीतों के लिए पहचान बनाता था। अभयारण्य में बधेरे, गिलहरियां , जरख, सियार, जंगली बिल्लियां, लोमड़ियां, नीलगाय, सांभर, हिरण, लंगूर मगरमच्छ, जंगली मुर्गी, चिंकारा, नेवला, खरगोश आदि वन्य-जीव पाये जाते हैं। कई प्रकार के पक्षी रंग-बिरंगी चिडियाएं, कबूतर, पेंगोलिन आदि भी देखे जा सकते हैं। चैसिंगा को यहाँ स्थानीय बोली में भडेल कह जाता है।

आवागम की दृष्टि से प्रमुख साधन सरकारी एवं निजी बसें हैं। प्रमुख शहरों मंदसौर, निंबाहेडा, बांसवाड़ा, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसमंद, अजमेर, जयपुर, जोधपुर, सूरत, दिल्ली आदि से बस सेवाएं उपलब्ध हैं। निकटम रेलवे स्टेशन 110 किमी. दूरी पर चित्तौड़गढ़ है। समीपस्थ हवाई हड्डा डबोक (उदयपुर) 145 किमी. दूर है। प्रतापगढ़ से 12 किमी. पर मंडल गांव में जैट विमान उतरने लायक हवाईपटी का निर्माण कराया जा रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व राजस्थान जनसंपर्क के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं)

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