Wednesday, April 24, 2024
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लोक कलाएं हैं ज्ञान का भंडार

भारत की ज्ञान-परंपरा अत्यंत विशद्, समृद्ध और प्राचीन है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि वे समय के साथ चलकर आज भी लोक जन में व्याप्त है क्योंकि उसे लोक-कलाओं का लालित्यपूर्ण साथ मिला। भारत के प्रत्येक लोक क्षेत्र में पारंपरिक लोकनाट्य विधाएं मिलती हैं—रामलीला, रासलीला, यक्षगान, नाचा, अंकिया नाटक, जात्रा, नौटंकी आदि सभी लोकनाट्य भारत की पारंपरिक ज्ञान-परंपरा पर आधारित लोक के लिए सहज रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। वास्तव में लोक कलाएं स्थायी इसीलिए बन पार्इं, क्योंकि वे ज्ञान-परंपरा पर आधारित थीं। रामलीला आज हमारे संस्कार के रूप में प्रतिष्ठित है। यूनेस्को ने लोक कलाओं में रामलीला को विश्व विरासत घोषित करते हुए माना है कि दुनिया में 500 वर्ष से यह अकेली कला है कि जो निरंतर है।

इसका एकमात्र कारण रामचरितमानस की समृद्ध ज्ञान-परंपरा का आधार था। रामलीलाओं में भारत के धर्म दर्शन और ज्ञान के सभी तत्व हैं जो मानव को मानव बनाते हैं। वाल्मीकि रामायण की पर्यावरण चेतना, विज्ञान और अध्यात्म रामलीलाओं में व्यास परंपरा के माध्यम से लोक तक पहुंचा। आदर्श एवं कर्तव्यनिष्ठा की कसौटी पर रची रामकथा स्वयं में ज्ञान-गंगा है। आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श योद्धा के साथ-साथ ऐसी मीमांसाएं आज तक शिक्षा देती हैं कि राजा का धर्म क्या हो। मर्यादा क्या है, शक्ति लोकहितकारी ही हो। संगठन में शक्ति, निर्बल की शक्ति अपरिमित है, अधर्म का नाश हो, धर्म की विजय हो। बनारस में भरत मिलाप देखने आज भी लाखों लोग जुटते हैं एवं आंखों के कोर पोंछते हुए विदा लेते हैं। रामकथा तो वाल्मीकि के समय से जनश्रुति में प्रचलित थी किंतु तुलसीदास जी की अवधी में लिखा मानस एवं उसे रामलीला के रूप में मंचित करना, मन मंदिर को राममय कर गया। कुडियट्टम केरल का लोकनाट्य है, जिसमें रामायण-महाभारत के छोटे-छोटे प्रसंगों को ढाई घंटे तक प्रस्तुत किया जाता है। बालि युद्ध एक ऐसी घटना है जिसकी व्याख्या 10 मिनट में की जा सकती है पर केरल में कुडियट्टम में इसे ढाई घंटे में प्रस्तुत करते हुए धर्म दर्शन के साथ स्त्री मनोविज्ञान को विस्तार से प्रस्तुत किया जाता है। तारा और बालि संवाद स्त्री मनोविज्ञान पर अद्भुत स्थापना रखता है।

नौटंकी में ह्यसत्यवादी हरिश्चंद्रह्ण का मंचन बार-बार सत्य को प्रतिष्ठित करता है। आल्हा गायिकी में आल्हा और ऊदल का शौर्य बार-बार उद्भाषित होता है। पंडवानी में द्रौपदी द्वारा दु:शासन एवं दुर्योधन बार-बार धिक्कारे जाते हैं। ह्यछौह्ण लोकनृत्य में देवी द्वारा महिषासुर बार-बार अधोगति को प्राप्त होता है। अधर्म पर धर्म की प्रतिष्ठा, सत्य की रक्षा, मातृभूमि की रक्षा हेतु पराक्रम दिखाना, ये शिक्षाएं हमारी कलाएं हमें कितनी सरलता से प्रदान करती रही हैं।

उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड का एक लोकनृत्य है पाई डंडा! पाई डंडा में लोकनर्तक डंडा लेकर नृत्य करते हुए कृष्ण की लीला रचते हैं एवं उल्लास में करतब दिखाते हैं। यह नृत्य अन्नकूट की पूजा एवं दीपावली के समय किया जाता है। वे मानते हैं कि कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठा कर प्रजा को भी डंडी से हाथ लगाकर पर्वत थामने को कहा था, और इस तरह सबल एवं निडर होने का संदेश दिया था। मूलत: अपने पूर्वजों को ब्रजवासी मानने वाले ये लोकनर्तक बुंदेलखंड के यदुवंशी हैं और गोवर्धन पूजा के कई दिन पूर्व से गोप वेश में कलाबाजियां दिखाते हुए नृत्य करते हैं।

एक और उदाहरण देखें-हजारों वर्षों से नीम हमारे घर-आंगन का हिस्सा है, क्योंकि हमारे पूर्वजों को नीम की गुणवत्ता का ज्ञान था। नीम के औषधिपरक गुण सदा से लोकव्यवहार में आदरणीय रहे। इसीलिए नीम में शीतला माई का वास माना गया। सोनभद्र का करमा लोकनृत्य नीम की पूजा से ही प्रारंभ होता है।

पतंजलि ने योग की जिन आठ परंपराओं को प्रस्तुत किया वह आज बाबा रामदेव के प्रयास से लोकप्रिय हुई है, लेकिन हमारे पूर्वजों ने योग एवं स्वास्थ्य के अभिन्न संबंध को समझकर हर लोक नृत्य में योग की प्रक्रिया का संगीतमय और लालित्यपूर्ण समावेशन किया। गोटी पुआ नृत्य को देखते हुए आपको भारतीय धर्म दर्शन के साथ योग की पारंपरिक क्रियाओं के सहज दर्शन होते हैं जिसे देखते हुए आप ब्रह्म के समीप पहुंच जाते हैं। पुरलिया शैली के छौ लोकनृत्य में मुखौटा लगाए कलाकार एक साथ कई कलाबाजियां लगाते हुए शारीरिक सौष्ठव का परिचय देते हैं। आत्मरक्षा और युद्ध के लिए निपुणता अनिवार्य है। वह भी अनायास लय-सुरबद्ध होकर सिखाई गई। केरल का कलारिपयट्टू एवं मणिपुर की थांग टा, मध्य प्रदेश की बरेदी ऐसी ही दर्शनीय कला है, जिनमें तलवार, ढाल, भाला, बरछी आदि शस्त्र संचालन लयबद्ध तरीके से किया जाता है। वे भारतीय कलाओं की यह विशेषता है कि वह देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को ढालती हुई आगे परिष्कृत होती जाती हैं। आत्मरक्षा एवं शत्रु का सामना करने के लिए लाठी चलाना, भाला चलाना एवं मल्ल युद्ध भी एक कला की तरह विकसित हो, व्यक्तित्व विकास के लिए अनिवार्य माना गया।

15वीं शताब्दी में देश राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक विनाश के दौर से गुजर रहा था। ऐसे में सांस्कृतिक धरातल पर राष्टÑीय एकता का ज्ञान बांटते हुए चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण जीवन को आधार बना भक्तिमय नाटकों का मंचन प्रारंभ किया। चैतन्य देव की यह परंपरा बाद में जात्रा और बाउल के रूप में प्रवहमान रही। जीवन की क्षणभंगुरता का ज्ञान रखने वाले भारतीय मनीषियों ने कला में ह्यब्रह्म सत्य जगत माया दर्शनह्ण की गूढ़ धारणा भी प्रदर्शित की। कबीर, रैदास, मलूकदास एवं अनेक अनाम साधु-संतों के पद एवं लोकगीतों से होता हुआ अद्वैतभाव कलाओं में तिरोहित हो गया। बुंदेलखंड का राई नृत्य प्रस्तुति में अत्यंत शृंगारिक प्रतीत होता है किंतु इसके गीत निर्गुण भाव के हैं। ऐसी कोई ज्ञान-परंपरा नहीं जो हमारे लोक गीतों मे विद्यमान न हो। अवधी, भोजपुरी लोकगीतों में ऋतु वर्णन, महीनों की विशेषताएं, स्त्री-पुरुष मनोविज्ञान, औषधि विज्ञान, विज्ञान, धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब मिलता है।

लोक का एक सबसे सशक्त पक्ष है कहन! समष्टि के उन्नयन के लिए, वह जो भी कहना चाहता था, उसने कहा! लोकमानस की अंतश्चेतना में व्याप्त रस कथा और गीत बन नि:सृत हुए, गाथा गायन के रूप में विकसित हुए। गान और कथा एक बिंदु पर मिल कभी लोरिकी तो कभी आल्हा बन प्रस्फुटित हुए। अवधी में राजा भर्तृहरि की कथा, श्रवण कुमार की कथा, चंद्रावली, कुसुमा के बलिदान की कथा, बुंदेली में आल्हा, जगदेव का पंवारा, रामकथा, भोजपुरी में बाबू वीर कुंवर सिंह, लोरिकी, सोरठी, ओडिशा में सत्यवादी हरिश्चंद्र, सावित्री चरित्र, छत्तीसगढ़ी में अहिमन रानी, पण्डवानी, फूल कुंवर, पंजाब में हीर-रांझा, शहीद बाबा दीप सिंह, दुल्लाभट्टी, बांग्ला में गोरखनाथ, महिपाल, गोपीचंद की कथा, ऐसी अनंत गाथाएं देश के विभिन्न अंचलों में विभिन्न बोलियों में अनंत काल से कही जाती रही हैं। जिस तरह नौटंकी सत्यवादी हरिश्चंद्र में सत्य का तप मुखरित होता है उसी प्रकार पण्डवानी के माध्यम से कृष्ण का अर्जुन को गीता का ज्ञान गुंजित होता है।

अध्यात्म भारतीय लोक-संस्कृति की आत्मा का केंद्र है। वह अध्यात्म जो मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाता है, वह अध्यात्म, जो विश्व मात्र के कल्याण हेतु स्वयं को उत्सर्ग करने हेतु तत्पर रहने की सीख देता है, वह अध्यात्म जो जीवन की विषमताओं को निर्मूल करने में सहायक सिद्ध होता है। कभी लोकहितकारी रामराज्य के प्रणेता मर्यादापुरुषोत्तम के माध्यम से अनाचारी राजाओं के सामने आदर्श बना प्रतिष्ठित किया तो कभी अकर्मण्य हो चले समाज को कृष्ण के माध्यम से कर्मण्येवाधिकारस्ते का मंत्र सिखाया! इन सबका संबंध मानव जीवन की सार्थकता से है, जीवन को उत्कृष्ट बनाने की दिशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की कामना में है।
लोक कलाएं अपने दायित्व के प्रति आज भी सजग हैं, इसलिए शिक्षा देते हुए आगे बढ़ती हैं। इसके लिए वे अभिव्यक्ति के मार्ग स्वयं ढूंढ लेती हैं। भारतीय समाज ने इस निधि की बहुत यत्न से रक्षा की और श्रद्धापूर्वक इसे संभाला, संवारा और आग्रहपूर्वक अगली पीढ़ी को सौंप दिया। हमारी लोक कलाएं और लोक परंपराएं हमारी थाती हैं और इन्हें संवारने, संजोने का हर यत्न सराहनीय है।

(लेखिका सुप्रसिद्ध लोकगायिका हैं)

साभार – http://www.panchjanya.com/ से

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