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श्री प्रभु के प्रयासों से ऐतिहासिक परिवर्तन की पटरी पर आ रही है भारतीय रेल

रेल मंत्री होना आसान नहीं है। अगर आपको लगता है कि यह कोई कठिन काम नहीं है तो जरा रेल मंत्री सुरेश प्रभु से पूछ लीजिए। देश में हर किसी के पास रेलवे के लिए कोई न कोई तगड़ी सलाह मौजूद है। विभिन्न समितियों की ओर से टनों अनुशंसाएं की जा चुकी हैं। इनमें पुनर्गठन पर वर्ष 2002 की राकेश मोहन समिति, सुरक्षा पर 2012 की काकोडकर समिति, आधुनिकीकरण पर 2012 की ही पित्रोदा समिति और रेलवे सुधार पर 2015 की विवेक देवराय समिति की अनुशंसाएं शामिल हैं।

राजनीतिक अनिवार्यता को देखें तो लगता है कि एक महत्त्वाकांक्षी भारत है जो बुलेट ट्रेन चाहता है, वहीं निचले स्तर पर एक भारत ऐसा भी है जो केवल इतना चाहता है कि त्योहारी मौसम में वह रेलवे स्टेशनों पर भगदड़ में कुचलकर मारे जाने से बच जाए। उसके बाद नंबर आता है रेलवे के श्रम संगठनों का। उन्हें जब भी निजीकरण या निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) शब्द सुनाई देता है तो वे तत्काल दिक्कत में आ जाते हैं। उनकी ओर से हड़ताल की धमकियां आनी शुरू हो जाती हैं। मानो इतना ही काफी नहीं था इसलिए हमारे पास एकदम शांति से रहने वाले सुस्त से रेलवे बोर्ड तथा अन्य संबंधित संस्थान हैं जो आत्मतुष्टï ढंग से राजयुगीन परंपराओं की याद दिलाते हैं। इसके अलावा पुरातन लेखा व्यवस्था है जिसे विवेक देवराय सार्वजनिक रूप से अपारदर्शी करार दे चुके हैं। इस संदर्भ में देखा जाए तो हमारा देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.3 फीसदी हिस्सा रेलवे पर खर्च करता है जबकि चीन 2.5 फीसदी हिस्सा। जबकि राजमार्गों पर किया जाने वाला निवेश तक बढ़कर 1.5 फीसदी हो चुका है।

प्रभु ने 9 नवंबर 2014 को रेल मंत्रालय संभाला। निस्संदेह यह प्रधानमंत्री का एक बढिय़ा निर्णय था और सभी ने इसका स्वागत भी किया। उन्हें पद संभाले 10 महीने का समय हो गया है। वह निहायत व्यावहारिक, दंभरहित और पेशेवर व्यक्ति हैं और शांति से अपनी योजनाओं पर काम कर रहे हैं। क्या उनकी प्राथमिकताएं सही हैं? क्या उनके पास इतने वित्तीय संसाधन हैं कि इन प्राथमिकताओं को पूरा कर सकें? क्या संभावित आवंटनों में इन प्राथमिकताओं का ध्यान रखा गया?

उनके भाषणों, प्रेस और उद्योग जगत के साथ तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर उनके संवाद पर नजर डाली जाए तो उनकी प्राथमिकताएं खुदबखुद उजागर हो जाती हैं। उनकी पहली प्राथमिकता है नेटवर्क को अवरोध रहित बनाना और नेटवर्क का विस्तार करना। इस विषय पर तो किसी विवाद की गुंजाइश ही नहीं है। भारतीय रेल के 1219 सेक्शन में से 492 यानी 40 फीसदी 100 फीसदी क्षमता से अधिक काम कर रहे हैं। जानकारी के मुताबिक मुगलसराय 150 फीसदी के साथ सर्वाधिक व्यस्त है। समस्या की भयावहता से तुलना की जाए तो बाकी सारी बातें महत्त्वहीन लगती हैं। रॉलिंग स्टॉक में इजाफा करना तो ऐसा ही है मानो एक सुई के छेद में से रस्सी निकाली जा रही हो।
इसके बाद सुरक्षा का क्रम आता है। तत्पश्चात रॉलिंग स्टॉक का आधुनिकीकरण, स्टेशनों का नए सिरे से विकास, यात्री सुविधाएं, विशेष परियोजनाएं, संगठनात्मक सुधार और सामाजिक उत्तरदायित्त्व (पूर्वोत्तर और कश्मीर में रेल लाइन) आदि सभी इसके बाद आते हैं। प्राथमिकताएं निश्चित तौर पर पूरी तरह लक्ष्य पर केंद्रित हैं।

रेलवे एक ऐसा संस्थान है जो आंतरिक नकदी जुटाने के लिए परिचालन लागत के 90 फीसदी के अनुपात पर संघर्ष कर रहा है और 50,000 करोड़ रुपये के लिए वह केंद्रीय बजट पर आश्रित है। इस बात को ध्यान में रखकर देखा जाए तो रेल मंत्रालय ने संयुक्त उद्यमों की मदद से नकदी जुटाने की जो योजना बनाई है वह अच्छी है। इस योजना में निजी सार्वजनिक उद्यम और ऋण योजनाएं शामिल हैं। संस्थागत ऋण की बात की जाए तो भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) से 1.5 लाख करोड़ रुपये का ऋण पहले ही नेटवर्क की बाधा कम करने के लिए लिया जा चुका है। इसके अलावा विश्व बैंक, राष्टï्रीय बुनियादी एवं निवेश फंड, कर मुक्त बॉन्ड आदि की प्रक्रिया चल रही है। फंड जुटाने का परिदृश्य व्यावहारिक रखी गई हैं। वित्तीय आवंटन भी प्राथमिकता के अनुरूप है। यह बात भी स्वागतयोग्य है कि मंत्री महोदय लोकप्रियता से दूरी बनाए हुए हैं और रेल नेटवर्क की बाधाएं दूर करने की तात्कालिक जरूरत पर पूरा जोर दे रहे हैं। कुल फंडिंग का करीब 45 फीसदी हिस्सा नेटवर्क को अबाध बनाने तथा उसका विस्तार करने के लिए है। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि सभी चुनौतियों और चिंताओं का ध्यान रखा जा रहा है? नहीं ऐसा नहीं है।

स्पष्टï है कि सबसे बड़ी समस्या है संगठनात्मक कायाकल्प करना। यहां प्रभु केंद्र सरकार के इकलौते ऐसे मंत्री लग रहे हैं जो खुल कर स्वतंत्र नियामक के विचार का स्वागत कर रहे हैं। नितिन गडकरी ने राजमार्ग के लिए स्वतंत्र नियामक के विचार को खारिज कर दिया जबकि पीयूष गोयल को लगता है कि कोयला क्षेत्र के लिए नियामक की आवश्यकता नहीं। लेकिन प्रभु को लगता है कि रेलवे के लिए स्वतंत्र नियामक की जरूरत है ताकि टैरिफ तय करने, निजी क्षेत्र के साथ मेलजोल बढ़ाने तथा रेलवे प्रतिष्ठïान को सेवा के स्तर पर जवाबदेह बनाया जा सके। यह समझने की बात है कि वह परदे के पीछे रहकर इसे हकीकत में बदलने के लिए काम कर रहे हैं और साथ ही वह श्रम संगठनों के साथ भी लगातार चर्चा कर रहे हैं ताकि वे वृद्घि और विकास के अपने नजरिये में उनकी बात को शामिल कर सकें। हकीकत में शीर्ष रेलवे संगठन नेता रतन टाटा की अध्यक्षता वाली कायाकल्प परिषद में भी शमिल हैं। इन संगठनों से निपटना भी एक चुनौती है।

रेलवे के व्यापक बदलाव की प्रक्रिया को मुनाफे, यात्रियों का भरोसा जीतने और सकारात्मकता तथा माल ढुलाई में आ रही गिरावट को रोकने की रोजमर्रा की जिम्मेदारियों के बीच ही अंजाम देना होगा। रेलवे के लिए यह सबसे बढिय़ा समय है जब वह लंबे समय से प्रतीक्षित और ऐतिहासिक बदलाव को अंजाम दे सकता है। इस समय देश में एक ऐसे प्रधानमंत्री का शासन है जो काम करने की मंशा रखते हैं। साथ ही एक ऐसे रेलमंत्री हैं जो बेहद परिश्रमी हैं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रभु ने खुद लक्ष्य तय किए हैं जिनका हम सभी दिल से स्वागत करते हैं। हम उनको शुभकामना देते हैं।

साभार-बिज़ेस स्टैंडर्ड से